Friday 13 September 2024

!! भगवान् विट्ठल की करधनी !!

 

!! भगवान् विट्ठल की करधनी !!


          नरहरि सुनार रहते तो पंढरपुर में थे, किन्तु इनका हृदय काशी के भोले बाबा ने चुरा लिया था। शिव की भक्ति में ये इतने मगन रहते थे कि पंढरपुर में रहकर भी विट्ठल भगवान् को न तो इन्होंने कभी देखा और न ही देखने को उत्सुक थे। नरहरि सुनारी का काम करते थे। इसलिए जब सोने के आभूषण बनाते, तो उस समय भी शिव, शिव, शिव, शिव का नाम सतत् इनके होंठों पर रहता। इसलिए इनके बनाए आभूषणों में भी दिव्य सौंदर्य झलकने लगता था। 


          पंढरपुर में ही रहता था एक साहूकार, जो कि विट्ठल भगवान् का भक्त था। उसके कोई पुत्र न था। उसने एक बार विट्ठल भगवान् से मनौती की कि यदि उसे पुत्र हुआ, तो वह विट्ठल भगवान् को सोने की करधनी (कमरबंद या कमर पट्टा) पहनाएगा। 


          विट्ठल भगवान् की कृपा से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। वह खुशी से फूला न समाया और भागा-भागा नरहरि सुनार के पास सोना लेकर पहुँचा और बोला, नरहरि जी ! विट्ठल भगवान् ने प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान किया है। अतः मनौती के अनुसार आज मैं विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित सोने की करधनी पहनाना चाहता हूँ। पंढरपुर में आपके अलावा इस प्रकार की करधनी और कोई नहीं गढ़ सकता। इसलिए आप यह सोना ले लीजिए और पांडुरंग मंदिर में चलकर विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले आइए और जल्दी से करधनी तैयार कर दीजिए। 


          विट्ठल भगवान् का नाम सुनकर नरहरि जी बोले, "भैया ! मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। इसलिए आप किसी दूसरे सुनार से करधनी तैयार करा लें। लेकिन साहूकार बोला, नरहरि जी ! आपके जैसा श्रेष्ठ सुनार तो पंढरपुर में और कोई नहीं है, इसलिए मैं करधनी तो आपसे ही बनवाऊँगा। यदि आप मंदिर नहीं जाना चाहते हैं, तो ठीक है। मैं स्वयं विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ला देता हूँ। नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया।


          साहूकार विट्ठल भगवान् की कमर का नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की रत्नजड़ित सोने की करधनी बना दी। साहूकार आनंद पूर्वक उस करधनी को लेकर अपने आराध्य देव विट्ठल भगवान् को पहनाने मंदिर गया। जब पुजारी जी वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनाने लगे, तो वह करधनी कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई। 


          साहूकार करधनी लेकर वापिस नरहरि जी के पास लौटा और उस करधनी को छोटा करवा लिया। जब वह पुनः करधनी लेकर मंदिर पहुँचा और पुजारी ने वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनानी चाही, तो अबकी बार वह चार अंगुल छोटी निकली। 


          नरहरि जी ने करधनी फिर बड़ी की, तो वह चार अंगुल बढ़ गई। फिर छोटी की, तो वह चार अंगुल कम हो गई। ऐसा चार बार हुआ। पुजारी जी व अन्य श्रद्धालुओं ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं ही विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले लें। 


          साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर नरहरि जी बड़ी मुश्किल से विट्ठल भगवान् के मंदिर में जाकर स्वयं नाप लेने को तैयार हुए। किन्तु कहीं उन्हें विट्ठल भगवान् के दर्शन न हो जाएँ, यह सोचकर उन्होंने साहूकार के सामने यह शर्त रखी कि मंदिर में घुसने से पहले मैं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगा और हाथों से टटोल कर ही आपके विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले सकूँगा। साहूकार ने नरहरि जी की यह शर्त मान ली। अनेक शिवालयों से घिरे पांडुरंग मंदिर की ओर कदम बढ़ाने से पहले नरहरि जी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। साहूकार इन्हें मंदिर के अंदर ले आया और विट्ठल भगवान् के सामने खड़ा कर दिया।


          जब नरहरिजी ने नाप लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए और मूर्ति को टटोलना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि वे पाँच मुख, दस हाथ वाले, साँपों के आभूषण पहने हुए, मस्तक पर जटा और उसमें से प्रवाहित हो रही गंगा वाले शंकर भगवान् की मूर्ति का स्पर्श कर रहे हैं। नरहरि जी ने सोचा, 'कहीं साहूकार मुझ से ठिठोली करने के लिए विट्ठल भगवान् के मंदिर की जगह किसी शिवालय में तो नहीं ले आए हैं। यह सोचकर ये अपने आराध्य देव के दर्शन के लोभ से बच नहीं पाए और प्रसन्न होकर इन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी। 


          किन्तु आँखें खोलकर देखा तो ठगे से रह गए। देखा सामने उनके आराध्य शिव भगवान् नहीं विट्ठल ही खड़े हैं। झट इन्होंने फिर से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और पुनः नाप लेने लगे। लेकिन जैसे ही इन्होंने पुनः मूर्ति के दोनों ओर अपने हाथ ले जाकर कमर की नाप लेने का प्रयास किया, तो इन्हें पुन: ऐसा आभास हुआ कि मानो ये अपने इष्टदेव बाघाम्बर धारी भगवान् शिवजी का ही आलिंगन कर रहे हों। जैसे ही आँखों से पट्टी खोलकर देखा, तो पुनः विट्ठल भगवान् की मुस्कराती हुई छवि दिखलाई पड़ी। हड़बड़ाते हुए इन्होंने तुरंत अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और फिर से मूर्ति की कमर का नाप लेने लगे। लेकिन आँखें बंद करने पर पुनः मूर्ति में शंकर भगवान् का आभास हुआ। 


          जब ऐसा तीन बार हुआ, तो नरहरि जी असमंजस में पड़ गए। इन्हें समझ में आ गया कि शिव और विट्ठल भगवान् अलग-अलग नहीं हैं। जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल (विष्णु) हैं, वे ही शंकर हैं। अब तो इन्होंने झट अपनी आँखों पर बँधी अज्ञान की पट्टी उतारकर फेंकी और क्षमा माँगते हुए विट्ठल भगवान् के चरणों में गिर पड़े और सुबक-सुबककर रोते हुए कहने लगे, हे विश्व के जीवनदाता ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं शिवजी में और आपमें अंतर करता था। इसीलिए मुझ नराधम ने आज तक आपके दर्शन तक न किए। आज आपने मेरे मन का अज्ञान और अंधकार दूर कर दिया।


🙏 ।। जै श्री हरि  ।। 🙏


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

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Monday 19 June 2023

केवट का प्रेम और गंगा पार जाना


चौपाई :

* जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥

बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥


भावार्थ:-जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आए॥1॥


* मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥


भावार्थ:-श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है,॥2॥


* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥


भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥


* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥

जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥


भावार्थ:-मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥


छन्द :

* पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥


भावार्थ:-हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।


सोरठा :

* सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।

बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥


भावार्थ:-केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥100॥


चौपाई :

* कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥

बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥


भावार्थ:-कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥1॥


* जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥


भावार्थ:-एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!॥2॥


* पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥

केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥


भावार्थ:-प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥3॥


* अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥


भावार्थ:-अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है॥4॥


दोहा :

* पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥


भावार्थ:-चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया॥101॥


चौपाई :

* उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥

केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥


भावार्थ:-निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥


* पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥


भावार्थ:-पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥


* नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥


भावार्थ:-(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥


* अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥

फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥


:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥


दोहा :

* बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥


भावार्थ:- प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥102॥


चौपाई :

* तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥

सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥


भावार्थ:-फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥


* पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥

सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥


भावार्थ:-जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥


* सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥

लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥


भावार्थ:-हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे (कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥


* तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥

तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥


भावार्थ:-तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥


दोहा :

* प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।

पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥


भावार्थ:-तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥


चौपाई :

* गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥

तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥


भावार्थ:-मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥


* दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥

नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥


भावार्थ:-गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥


* जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥

तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥


भावार्थ:-हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥3॥


* सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥

पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥


भावार्थ:-उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥


वही दिन अच्छा है जो दिन भगवान की याद

और उनके भजन में बिताया जाए..


राम ही राम 🙏❤


Monday 24 April 2023

जो रामेश्वरम दर्शनही करहहि । ते तनु तजि ममः लोक सिधारिहही।।🚩


लिंग थापि विधिवत कर पूजा ।

शिव सामान प्रिय मोय ना दूजा ।।🚩


श्री राम जी द्वारा रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना --रामेश्वरम शिवलिंग के दर्शन का महत्व--अद्भुत प्रसंग 🍀


शिव द्रोही मम दास कहावा।

सो नर मोय सपनेहु नही भावा ।।🚩


शंकर विमुख भगत चह मोरी।

सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।🚩


शंकर प्रिय ममः द्रोही शिव द्रोही मम दास

ते नर करहि कल्पभर घोर नरक में वास।।🚩


जो रामेश्वरम दर्शनही करहहि ।

ते तनु तजि ममः लोक सिधारिहही।।🚩


राम बचन सब के जिय भाए।

मुनिबर निज निज आश्रम आए॥🚩


गिरिजा रघुपति कै यह रीती।

संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।🚩


श्री राम जी द्वारा रामेश्वरम की स्थापना एवं रामेश्वरम शिवलिंग के दर्शन का महत्ब - जो शिव द्रोही है और भगवान राम की पूजा करता है उनके लिए प्रभु राम ने क्या संदेश दिया है और जो राम द्रोही है और शिव की पूजा करता है उसके लिए प्रभु ने क्या संदेश दिया है


प्रभु ने उसे इस प्रशंग में  कहा है  


शिव द्रोही ममः दाश कहावा 

सो नर मोय सपनेहु नही भावा।।


जो एक वार रामेश्वरम शिवलिंग का दर्शन कर लेगा उसका तो जीवन धन्य हो जाएगा -  इतनी राम जी ने रामेश्वरम की महिमा बताई है 


तुलसी दास जी रामचरित मानस की मधुर चौपाइयों द्वारा इस प्रसंग का वर्णन करते है


सुनि कपीस बहु दूत पठाए।

मुनिबर सकल बोलि लै आए॥🚩

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।

सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥॥🚩


भावार्थ : श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥🚩


सिव द्रोही मम भगत कहावा।

सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥🚩

संकर बिमुख भगति चह मोरी।

सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥4॥🚩


भावार्थ : जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥॥🚩


दोहा :

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥॥🚩


भावार्थ : जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥॥🚩


चौपाई :

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।

ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥🚩

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।

सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥🚩


भावार्थ : जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥॥🚩


होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।

भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥🚩

मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।

सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥॥🚩


भावार्थ : जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥॥🚩


राम बचन सब के जिय भाए।

मुनिबर निज निज आश्रम आए॥🚩

गिरिजा रघुपति कै यह रीती।

संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥॥🚩


भावार्थ : श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥॥🚩


🚩जय हो प्रभु राम की🚩 जय हो राजाराम की🙏🙏

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