Wednesday 5 February 2020

नारद मोह प्रसंग I



परम सौभाग्यशाली मानसानुरागी जननमन सबहिं पुराणों में नारदजी के अनेक जन्मों का प्रसंग आता है। उन्होंने जीवन के अनेक रूपों का अनुभव किया है और वे अनुभव उनके अन्तर्मन में कहीं न कहीं संस्कारों के रूप में       विद्यमान हैं। 


हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि।।

आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा।।

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा।।

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।

मानस बालकांड 124/1-4


मानस में लिखा है कि वे हिमालय की उपत्यका में आते हैं और जब वहाँ का वातावरण देखते हैं कि  बड़ी ,सुगन्धित वायु बह रही है, झरना बह रहा है  तथा चारों तरफ हरियाली है तो उन्हें लगता है कि भगवान का ध्यान करने के लिए यह स्थल बड़ा अनुकूल है, नारद वहाँ एक गुफा में बैठकर प्रभु के ध्यान में तल्लीन हो जाते हैं। आपको पता होगा कि नारद को दक्ष प्रजापति ने शाप दिया था कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं भी नहीं ठहर सकते। 


दक्ष द्वारा निर्मित पुत्र जब बड़े हो जाते थे तो नारद वहाँ पहुँच कर उन्हें ऐसा सत्संग प्रदान करते थे कि वे घर बार छोड़कर वन में चले जाते थे। इसीलिए दक्ष ने उन्हें कहीं अधिक देर तक न ठहरने का शाप दिया था। पर इस शाप से नारद की कोई हानि नहीं हुई,बल्कि लाभ ही हुआ। क्योंकि घूमते रहने से अधिकाधिक लोगों की समस्याओं से उनका परिचय होता गया और वे उनके दुखों को दूर करने में प्रयत्नशील होते रहे।


पर आज उनके अंतःकरण में अन्तर्मुखता की बृत्ति आ गयी और वे बैठकर ध्यान में लीन हो गये। फलस्वरूप प्रजापति का शाप ब्यर्थ चला गया,क्योंकि शाप तो तब कार्य करता,जब नारद देश और काल की सीमा में होते वे तो ध्यान में बैठकर, देश, काल और ब्यक्तित्व की सीमा से ऊपर उठ गये थे। इसका अर्थ यह है कि यदि ध्यान में बैठने पर भी यह याद बनी रहे कि मैं कहाँ बैठा हुआ हूँ,कितना समय हुआ है,मैं कौन हूँ,तो समझ लेना चाहिए कि ध्यान बिल्कुल अधूरा है।


उदाहरणार्थ,जब यह कहते हैं कि ध्यान कीजिये कि,अयोध्या नगर में सरयू बह रही हैं,सरयूजी के किनारे एक कल्पतरु के नीचे एक सिंहासन है और उस सिंहासन पर, भगवान राम और सीता बैठे हुए हैं, तब यदि ब्यक्ति देश के प्रति सजग होगा,तो उसे लगेगा कि नहीं, मैं तो इस शहर में ही बैठा हुआ हूँ। वह अयोध्या,बृन्दावन या उस देश की कल्पना नहीं कर सकता, जहाँ का वह ध्यान करना चाहता है। फलस्वरुप उसमें तन्मयता नहीं आ पायेगी। इसी प्रकार जब काल का चिन्तन करेगा,तब भी उसे दूरी की अनुभूति होगी। उसे लगेगा कि भगवान का अवतार तो कितना पहले हुआ था,अतः हमारे और उनके काल में बड़ी दूरी है,अब राम भला कहाँ हैं,कृष्ण कहाँ हैं ? इसका परिणाम यह होगा कि उसको सच्चा ध्यान नहीं लग पायेगा।


इसी प्रकार सच्चे ध्यान के लिए ब्यक्तित्व की सीमा को भी लाँघना पड़ता है। जैसे भगवान का ध्यान करता हुआ ब्यक्ति अपने आप को कुछ करता हुआ पाता है। भक्त ध्यान करता हुआ देखता है कि वह माला गूँथकर भगवान को पहना रहा है।अब वह अपने आपको जिस शरीर से माला पहनाता हुआ देखता है,वह स्थूल शरीर तो है नहीं,वह तो उसका भावनात्मक शरीर है। ऐसी स्थिति में यदि उसका स्थूल शरीर ही उसके चिन्तन में आता रहा,तो वह सच्ची तन्मयता नहीं प्राप्त कर सकेगा।


नारद ने देश,काल और ब्यक्तित्व तीनों से ही मुक्ति प्राप्त कर ली। इसलिए दक्ष के शाप का कोई अर्थ नहीं रह गया,क्योंकि वे न तो किसी स्थान में बैठे थे,न किसी काल में और न ब्यक्तित्व की सीमा में थे। वे दिब्य मनःस्थिति में थे। लेकिन स्वर्ग में बैठे हुए इन्द्र के मन में भय पैदा हो गया कि नारद कहीं स्वर्ग पर अधिकार करने के लिए तो तपस्या नहीं कर रहे हैं और वह ऐसा सोच, उनकी तपस्या भंग करने की चेष्टा में लग जाता है।


यहाँ पर गोस्वामीजी एक बड़े महत्व की मनोवैज्ञानिक बात कहते हैं। वैसे लगता तो यही है कि दुर्गुणों की ओर से ब्यक्ति के जीवन में बाधा आती है, लेकिन कभी कभी ऐसा भी दिखाई देता है कि दुर्गुण और सद्गुण मिलकर साधक के जीवन में बाधा की सृष्टि कर रहे हैं। नारद की तपस्या को भंग करने की बृत्ति किसी राक्षस या दैत्य के मन में नहीं आयी,वह आती है इन्द्र के मन में। और इन्द्र कौन है ? सबसे बड़ा पुण्यात्मा। सौ अश्वमेध करने वाला ही इन्द्र का पद प्राप्त करता है। तो ऐसा इन्द्र जो स्वयं सत्कर्म करने वाला है,वह दूसरे को सत्कर्म से विरत करने की चेष्टा करत है,तब यह बात बड़ी अटपटी-सी लगती है।


पर विद्वज्जन! यही समाज और जीवन दोनों का सत्य है। अच्छे काम में बाधा केवल बुरे लोग ही नहीं डालते, कभी - कभी अच्छे लोग भी डालते हैं। जब उनके मन में यह ईर्ष्या उत्पन्न होती है कि कहीं वह मुझसे बढ़िया काम न कर दे। अच्छा कहलाने वाले ऐसे ईर्ष्यालु ब्यक्ति भोगपरायण होते हैं। वे सत्कर्म के बदले कुछ पाना चाहते हैं। उनके मन में यही चिन्ता रहती है कि बँटवारे में सब मुझे ही मिले,दूसरों को कुछ न मिल पाये।


तुलसीदासजी से किसी ने पूछा कि स्वर्ग में जाकर ब्यक्ति तो दुर्गुणों से मुक्त हो जाता होगा, गोस्वामीजी ने ब्यंग्य करते हुए कहा - और दुर्गुण चाहे कम हो जाँय, पर वहाँ जाकर एक दुर्गुण बढ़ जाता है - और वह है ईर्ष्या। वे विनयपत्रिका में लिखते हैं -


"स्वर्गहु मिटइ न सावत"


स्वर्ग में सौतियाडाह नहीं मिटती, ईर्ष्या नहीं मिटती।


अब नारद हैं त्यागी और इन्द्र हैं भोगी। और विचित्रता यह है कि त्याग और भोग दोनों ही पुण्य के फल हैं। पुण्य से ब्यक्ति को भोग भी प्राप्त हो सकता है और वैराग्य भी। चुनाव तो ब्यक्ति को करना है। देवर्षि नारद तो  पुण्य के द्वारा वैराग्य पाने के पक्ष में हैं, पर इन्द्र में भय उत्पन्न होता है कि कहीं ए मेरे स्वर्ग पर अधिकार पाने के लिए ही तो तपस्या नहीं कर रहे हैं। इन्द्र अपने मापदंड से नारद को मापता है। उसे लगता है कि हमने इतना सत्कर्म करके स्वर्ग प्राप्त किया, नारद भी निश्चय ही स्वर्ग पाने के लिए तप कर रहे होंगे। और तब यहाँ पर दुर्गुण के साथ देवता का एक अनोखा समझौता हो जाता है।


इन्द्र काम को बुलाकर कहता है - "सहित सहाय जाहु मम हेतू।" 


- कामदेव तुम अपने सहायकों के साथ जाओ और नारद को ध्यान से विरत करने की चेष्टा करो। काम अप्सराओं को लेकर नारद के पास आता है, पर नारद के मन में अप्सराओं के मोहक हाव-भाव,नृत्य आदि का रंचमात्र प्रभाव भी नहीं पड़ा। वे शान्त भाव में बैठे रहते हैं। यह देख काम के मन में यह भय उत्पन्न होता है कि कहीं मुनि क्रोध करके मुझे भस्म न कर दें। नारद शान्त भाव से काम को देखते हैं। काम,डर के मारे उनके चरणों में जा गिरता है और कहता है महाराज ! मैंने जो कुछ किया है,वह इन्द्र के कहने से किया है। काम के इस कथन का अर्थ यही है कि यदि दण्ड देना हो तो इन्द्र को दीजिएगा, मुझे नहीं। 


मित्रों ! यही ब्यक्ति के जीवन की बिडम्बना है। अभी तक तो काम, इन्द्र का सहयोगी बना हुआ था और अब जब अपने उद्यम में असफल हो गया, तब कहता है कि यह मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया है। फिर भी नारद को क्रोध नहीं आया। 


श्रद्धेय मानस-रत्नजी ने  "कामात्क्रोधोभिजायते"  गीताजी के सूत्र का , इस प्रसंग में विलक्षण विस्तार किया।


और नारदजी ने मुस्कुराते हुए काम से कहा - तुम इन्द्र से जाकर कह देना कि मेरे अंतःकरण में स्वर्ग का कोई लोभ नहीं है, वह आनन्द से स्वर्ग के भोगों को भोगे, राज्य करे। काम नारद के चरणों में प्रणाम करके चला गया।


लेकिन एक विचित्र बात हो गयी। अभी नारद के जीवन में सद्विचारों की,सत्कर्मों की, साधना की इतनी बढ़िया खेती हुई थी, पर अब उसकी बगल में घास उग आई और नारद उस घास को अनदेखा कर देते हैं, घास की पहचान नहीं कर पाते हैं। यही नारद की समस्या है। रोग तब होता है जब रोगी कुपथ्य करता है। नारद ने सभी इन्द्रियाँ से तो कुपथ्य रोक दिया,पर एक इन्द्रिय से कुपथ्य हो गया। अप्सराओं का सौन्दर्य सामने आया, तो नेत्र से रंचमात्र कुपथ्य नहीं किया, उस पर दृष्टि तक नहीं डाली। वहीं पर उन अप्सराओं ने दिब्य सुगंध की सृष्टि की, तो नासिका के द्वारा भी उन्होंने कोई कुपथ्य नहीं किया। जिह्वा के माध्यम से भी नारद  किसी वस्तु का कुपथ्य करने वाले थे नहीं। स्पर्श-सुख को त्याग कर उन्होंने त्वचा का भी कोई कुपथ्य नहीं किया। पर एक कुपथ्य से वे बच नहीं पाये। वैसे उससे बच पाना भी बड़ा कठिन है। 


मानस-रत्नजी विनयपत्रिका के एक पद का उद्धरण देते हुए प्रायः सुनाते हैं कि-


"कोउ कछु कहै,कोउ कछु दे, यह वासना न उर से जाई।।"


वह कुपथ्य श्रवणेन्द्रिय का था। आँख, नाक, जिह्वा से कुपथ्य रोकना सरल है, पर कान का कुपथ्य ऐसा प्रिय लगता है कि बड़े-बड़े त्यागी पुरुष भी इस कुपथ्य से बच नहीं पाते। यह कान का कुपथ्य क्या था ? मित्रों ! जब काम जाने लगा तो जाते-जाते एक बात नारदजी के कान में कहता गया, और नारदजी ने बड़े प्रेम से उसे भीतर ले लिया। काम कहता गया - "महाराज ! विश्व के इतिहास में आपसे बढ़कर कोई महापुरुष हुआ ही नहीं । बस ज्योंही प्रशंसा का कुपथ्य,नारद के कान में पैठ गया और उनके अंतःकरण में घास अंकुरित हो गयी। चाहे उसे अहंकार की घास कह लीजिये या मोह की।


कहा जाता है - "जैसा अन्न,वैसा मन।" अतः अन्न के दोषों से बचने के लिए भक्तगण पहले भगवान को भोग लगाते हैं और तब उसका प्रसाद सबको बाँटकर फिर उसको स्वयं ग्रहण करते हैं। तो सामान्य भोजन को तो बहुत से लोग भोग लगाकर ग्रहण करते हैं, पर प्रशंसा के भोजन का भोग लगाना भूल जाते हैं। 


प्रशंसा का भोजन ऐसा होता है जो ब्यक्ति के जीवन में अहंकार की सृष्टि करता है। हम जब भी अपनी प्रशंसा सुनेंगे, अहंकार होने का भय बना ही रहेगा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई प्रशंसा करे ही न। ऐसी स्थिति में उपाय क्या है ?  यही कि इस प्रशंसा को भगवान को समर्पित कर दिया जाय और उसे बाँट दिया जाय। जब भी कानों में प्रशंसा आये, इसे तुरन्त भगवान को निवेदित कर दें।  नारद ने भी ऐसा किया, लेकिन बहुत देर बाद नियम यह है कि पहले भोग लगालें फिर भोजन करें। पर नारदजी तो पहले भोजन कर लेते हैं और बाद में जब थोड़ी सी जूठन बच जाती है, तब भगवान को भोग लगाते हैं। वे क्रम को उलट देते हैं।


भगवान श्रीराम ने श्रीभरतजी के सामने प्रशंसा की लम्बी थाल परोसी और बोले -


"तीनि काल त्रिभुवन मत मोरे। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।"

मिटिहहिं पाप प्रपंच सब,अखिल अमंगल भार।

लोक सुजसु परलोक सुखु,सुमिरत नामु तुम्हार।।"


बन्धुओं ! कितना बड़ा था प्रशंसा का ब्यंजन और परोसने वाले थे साक्षात् भगवान, लेकिन भरतजी ने उसका भोग भगवान को लगा दिया। 


भगवान ने पूछा - बताओ भरत! मैं ठीक कह रहा हूँ कि नहीं? मेरी दृष्टि पर तुम्हें विश्वास है कि नहीं?


भरतजी - प्रभु ! मैं आपकी दृष्टि पर विश्वास कैसे न करूँ? जब आप कह रहे हैं तो अवश्य होगा।


"अब तो अपनी निन्दा नहीं करोगे, अपने को पापी नहीं कहोगे? भगवान बोले !


भरतजी ने कहा - "नहीं भगवान ! मैं जानता हूँ,आपके सामने एक समस्या है।"


वह क्या? -


"यह कि आप दोष देख ही नहीं पाते,इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं, तो यह ठीक ही है।


भगवान ने पूछा - अच्छा ! दोष देखना मुझे यदि नहीं आता तो गुण देखना तो आता है।


भरतजी बोले- भगवान ! गुण देखना आपको आता तो है,पर मैं आपसे पूछता हूँ,कि तोता यदि बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे,तो वह बन्दर या तोते की विशेषता है ,अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की?


भगवान ने कहा-पढ़ाने और नचानेवाले की !


महाराज ! बिल्कुल ठीक कहा आपने ! मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ानेवाले और नचानेवाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।


"सुक नाचहिं कपि पाठ प्रवीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।"


भगवान ने भरत से कहा - भरत! तो प्रशंसा तुमने लौटा दी !


भरतजी बोले - "प्रभु ! प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है,सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है, लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं,पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको निवेदित है।


विद्वज्जन ! नारद ने भी यदि ऐसा ही किया होता और काम की प्रशँसा सुनकर यदि वे गद्गद होकर सोचते कि भगवान कितने कृपावत्सल हैं, जो दुर्गुणों से मुझे बचा लिए और काम, क्रोध, लोभ से मुझे बचा लिए और मुझे उनसे सुरक्षित रखा, तो प्रशंसा, भगवान को अर्पित हो जाती और नारद अहंकार से न बँध पाते।



श्रीराम जय राम जय जय राम।

नमन सबहिं।



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