Thursday 11 July 2019

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

हम जिनके पास बैठते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। जिनके साथ उठते—बैठते हैं, उनका रंग चढ़ जाता है।

सांप के ऊपर अगर स्वाति की बूंद भी गिरती है तो जहर हो जाती है।लेकिन वही बूंद अगर सीपी में बंद हो जाती है तो मोती बन जाती है। बूंद वही है। सांप के साथ जहर हो जाती है; सीपी में बंद होकर मोती बन जाती है। कृष्णा नाम की सीपी में बंद हो जाओ तो मोती बन जाओगे।ये है संगति का महत्व!

जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो जाओगे। सदगुरु के पास बैठते—बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी।गुरु का अर्थ होता है. अंधेरे को जो दूर कर दे।’ गु ‘ का अर्थ होता है : अंधेरा; ‘ रु’ का अर्थ होता है दूर करने वाला। 

गुरु का अर्थ हुआ दीया, रोशनी, क्योंकि रोशनी अंधेरे को दूर कर देती है। रोशनी से जुड़ जाओगे, रोशनी हो जाओगे। इसलिए रैदास कहते हैं हमने तो सब देख - समझ कर यही तय किया कि संगति करनी तो तुम्हारी। 

इस संसार में और कुछ संगति करने योग्य नहीं है।प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं कि राम को कैसे जपें। एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं -

- भजन कैसे हो?
- ध्यान कैसे हो?
- कीर्तन कैसे हो?
- पूजा कैसे? 
- अर्चना कैसे? 

और रैदास कहते हैं हमारी मुसीबत दूसरी ही है। हमारी मुसीबत यह है कि अब कैसे छूटै नामरट लागी!
अब छुडाए नहीं छूटती। ऐसा रंग चढ़ता है कि अब हम चाहें भी कि बंद हो जाए तो बंद नहीं होती।

अब कैसे छूटै नामरट लागी।
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग - अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

रैदास कहते हैं ......

: अब समझ में आना शुरू हुआ कि तुम चंदन हो और हम पानी हैं।

जैसे पानी में चंदन डाल दो तो पानी के कण—कण में चंदन की बास समा जाती है।
तुम मुझमें ऐसे समा गए हो जैसे चंदन की बास पानी में समा जाए। अब अलग करने का कोई उपाय नहीं।

जब परमात्मा को अलग करने का कोई उपाय न रह जाए, तभी समझना कि उसे पाया।
मंदिर गए, तिलक लगा लिया, चंदन घिस कर तीसरे नेत्र पर ऊपर से शीतलता पहुंचा दी और घर चले आए!

तुम्हारे तीसरे नेत्र पर परमात्मा चंदन की बास जैसा हो जाना चाहिए।

और चंदन को क्यों चुना है?
बहुत कारणों से चुना है। चंदन अकेला वृक्ष है जिस पर विषैले सांप लिपटे रहते हैं, 
मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। चंदन विषाक्त नहीं होता। सर्प भला सुगंधित हो जाएं, मगर चंदन विषाक्त नहीं होता।

ऐसा ही यह संसार है - जहर से भरा हुआ। इसमें तुम्हें चंदन जैसे होकर जीना होगा।
यह तुम्हें विषाक्त न कर पाए, ऐसा तुम्हारा साक्षीभाव होना चाहिए। कि कीचड़ में से भी गुजरो तो भी कीचड़ तुम्हें छुए न। 

यह काजल की कोठरी है संसार; इससे गुजरना तो है, परमात्मा चाहता है कि गुजरो। जरूर कोई शिक्षा है जो जरूरी है। लेकिन ऐसे गुजरना जैसे कबीर गुजरे, रैदास गुजरे।

और जैसे बादल घिर आते हैं आषाढ़ में - घनघोर बादल - और मोर नाचने लगते हैं। ऐसे ही रैदास कहते हैं कि तुम घने बादलों की तरह छा गए हो और हम तो मोर हैं, हम नाच उठे।

जिस व्यक्ति ने अपने भीतर अहर्निश प्रभु के नाद को सुना, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है - वृक्षों में, पहाड़ी में, चांद - तारों में, लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में। 

उसे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। और जो सब तरफ परमात्मा से घिर गया है वह मोर की तरह नहीं नाचेगा तो कौन नाचेगा?

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

उसकी आंखें तो जैसे चकोर की आंखें चांद पर टिकी रह जाती हैं,

बस ऐसे ही परमात्मा पर टिकी रह जाती हैं। ही, एक फर्क है। चकोर चांद से आंखें नहीं हटाता और ध्यानी हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता, 

क्योंकि जहां भी आंख ले जाए वहीं उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहीं चांद है उसका। कंकड़— कंकड़ में उसकी ही ध्वनि है, पत्ते - पत्ते पर उसी के हस्ताक्षर हैं। 

तो चकोर तो कभी थक भी जाए… थक भी जाता होगा। कवियों की कविताओं में नहीं थकता, मगर असली चकोर तो थक भी जाता होगा। 

असली चकोर तो कभी रूठ भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी शिकायत से भी भर जाता होगा कि आखिर कब तक देखता रहूं?

लेकिन चकोर के प्रतीक को कवियों ने ही नहीं उपयोग किया, ऋषियों ने भी उपयोग किया है। प्रतीक प्यारा है। चकोर एकटक चांद की तरफ देखता है; 

सारी दुनिया उसे भूल जाती है, सब भूल जाता है, बस चांद ही रह जाता है। ठीक ऐसी ही घटना भक्त को भी घटती है। सब भूलता नहीं, सभी चांद हो जाता है। जहां भी देखता है, पाता है वही, वही परमात्मा है

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

तुम ज्योति हो, हम तुम्हारी बाती हैं। इतना ही तुम्हारे काम आ जाएं तो बहुत। तुम्हारी ज्योति के जलने में उपयोग आ जाएं तो बहुत।

तुम्हारे प्रकाश को फैलाने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। यही हमारा धन्यभाग।

कि हम तुम्हारे दीये की बाती बन जाएं। तुम्हारे लिए मिट जाने में सौभाग्य है; 

अपने लिए जीने में भी सौभाग्य नहीं है। अपने लिए जीने में भी दुर्भाग्य है, नरक है, और तुम्हारे लिए मिट जाने में भी सौभाग्य है, स्वर्ग है।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

कि तुम मोती हो, हमें धागा ही बना लो। इतने ही तुम्हारे काम आ जाएं कि तुम्हारी माला बन जाए। तुम तो बहुमूल्य हो, हमारा क्या मूल्य है! धागे का क्या मूल्य है! मगर धागा भी मूल्यवान हो जाता है जब मोतियों में पिरोया जाता है।

जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

सुहागे का क्या मूल्य है, मगर सोने से मिल जाए तो मूल्यवान हो जाता है।
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

तुम मालिक हो। सूफी फकीर परमात्मा को सौ नाम दिए हैं, उसमें एक नाम सबसे ज्यादा प्यारा है, वह है— या मालिक! कि तुम मालिक हो, हम तो ना - कुछ, तुम्हारे पैरों की धूल!

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

यही हमारी भक्ति है कि हम तुम्हारे मोती में धागा बन जाएं, कि हम तुम्हारी ज्योति में बाती बन जाएं; कि तुम मालिक हो हम दास हो जाएं - 
बस इतनी हमारी भक्ति है। और हमें भक्ति का शास्त्र नहीं आता, कि कितने प्रकार की भक्ति होती है,

नवधा भक्ति, कि कितने प्रकार की पूजा - अर्चना होती है, कि कैसे व्यवस्था से यश करें, हवन करें। हमें कुछ नहीं आता। 

हम तो धागा बनने को राजी हैं, तुम मोती हो ही। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, हमें धागा बन जाने दो। और तुम तो चंदन हो ही, और हम तो पानी हैं।

बस तुम्हारी बास समा जाए, बहुत। और तुम तो ज्योति हो ही, तुम्हें बातियों की जरूरत तो पड़ती ही होगी न? हम तुम्हारी बाती बनने को राजी हैं।

⚘जय श्री राधे ⚘



(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ) 


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