Wednesday 11 December 2019

🦃 मयूर पंख 🦃

       
 वनवास के दौरान माता सीताजी को
पानी की प्यास लगी, तभी श्रीरामजी ने
चारों ओर देखा, तो उनको दूर-दूर तक
     जंगल ही जंगल दिख रहा था.
 कुदरत से प्रार्थना करी ~ हे जंगलजी !
     आसपास जहाँ कहीं पानी हो,
  वहाँ जाने का मार्ग कृपया सुझाईये.

      तभी वहाँ एक मयूर ने आकर 
 श्रीरामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर
    एक जलाशय है. चलिए मैं आपका
      मार्ग पथ प्रदर्शक बनता हूँ,  किंतु
      मार्ग में हमारी भूल चूक होने की
                 संभावना है.

     श्रीरामजी ने पूछा ~ वह क्यों ?
      तब मयूर ने उत्तर दिया कि ~
   मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप
   चलते  हुए आएंगे, इसलिए मार्ग में
 मैं अपना एक-एक पंख बिखेरता हुआ
     जाऊंगा. उस के सहारे आप
   जलाशय तक पहुँच ही जाओगे.

  इस बात को हम सभी जानते हैं कि
  मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं
    एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं.
     अगर वह अपनी इच्छा विरुद्ध
         पंखों को बिखेरेगा, तो
        उसकी मृत्यु हो जाती है.

    और वही हुआ. अंत में जब मयूर
   अपनी अंतिम सांस ले रहा होता है,
      उसने मन में ही कहा कि
    वह कितना भाग्यशाली है, कि
    जो जगत की प्यास बुझाते हैं,
  ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का उसे
          सौभाग्य प्राप्त हुआ.
        मेरा जीवन धन्य हो गया.
 अब मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही.

तभी भगवान श्रीराम ने मयूर से कहा कि
 मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर,
   मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है,
     मैं उस ऋण को अगले जन्म में
              जरूर चुकाऊंगा ....
     ★ मेरे सिर पर धारण करके  ★

        तत्पश्चात अगले जन्म में
     श्री कृष्ण अवतार में उन्होंने
    अपने माथे पर मयूर पंख को
      धारण कर वचन अनुसार
    उस मयूर का ऋण उतारा था.

            🔅🔅🦃🔅🔅

      📍  तात्पर्य यही है कि  📍
 अगर भगवान को ऋण उतारने के लिए
        पुनः जन्म लेना पड़ता है, तो
  हम तो मानव हैं. न जाने हम कितने ही
          ऋणानुबंध से बंधे हैं.
     उसे उतारने के लिए हमें तो
   कई जन्म भी कम पड़ जाएंगे.
          ~  अर्थात  ~
    जो भी भला हम कर सकते हैं,
      इसी जन्म में हमें करना है.


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Wednesday 9 October 2019

सम्पूर्ण समर्पण युक्त विश्वास

कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र को विशाल अश्वरोही सेनाओं के आवागमन के योग्य बनाने हेतु तैयार किया जा रहा था। प्रतिस्पर्धी तंबुओं के लिये स्थान साफ किये जा रहे थे। विशाल सेनाओं के लिये भोजन पकाने हेतु लकड़ियों के विशाल गट्ठर बनाये जा रहे थे। हाथियों द्वारा वृक्षों को गिराया जा रहा था। ऐसे ही एक वृक्ष पर एक गौरैया का घोंसला था जिसमें चार छोटे बच्चे थे। जैसे ही पेड़ को गिराया गया उसका घोेंसला धरती पर गिर पड़ा। बच्चे जो अभी उड़ने के लिये बहुत छोटे थे, चमत्कारिक ढंग से सही-सलामत थे।

असुरक्षित व आतंकित गौरैया ने चारों ओर मदद के लिये देखा। उसी समय उसे कृष्ण दिखाई दिये जो अर्जुन के साथ मैदान का निरीक्षण कर रहे थे। वे वहाँ युद्धभूमि का परीक्षण करने आए थे जिससे युद्ध के आरंभ होने से पहले एक विजयी सैन्य रणनीति पर विचार किया जा सके। गौरैया ने कृष्ण के रथ के पास पहुँचने के लिये पूरी शक्ति से अपने पंख फड़फड़ाए।

और भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करने लगी “हे कृष्ण, कृपया मेरे बच्चों की रक्षा कीजिये, कल जब यह युद्ध आरंभ होगा तो यह सब कुचले जाएंगे।

तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा “मैं तुम्हें सुन रहा हूँ जो सर्वज्ञ हैं। किंतु मैं प्रकृति के नियम में बाधा नहीं डाल सकता।

“भगवन मैं केवल इतना जानती हूँ कि आप मुझे बचाने आये हैं। मैं अपने बच्चों का भाग्य आपके हाथों में सौंपती हूँ। आप उन्हें मार सकते हैं या फिर बचा सकते हैं। अब यह आप पर है।”

यह संकेत करते हुए कि वे इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते, कृष्ण ने साधारण मनुष्य की भांति कहा, “समय का पहिया तो बिना विचार किए चलता है”।

“मैं कोई दर्शनशास्त्र नहीं जानती।” गौरैया ने विश्वास एवं श्रद्धा से कहा “आप ही समय का पहिया हैं। मैं तो यही जानती हूँ। मैं आत्मसमर्पण करती हूँ।” तब भगवान ने कहा फिर अपने घोंसले में तीन सप्ताह का भोजन एकत्रित कर लो।”

इस वार्तालाप से अनभिज्ञ अर्जुन उस गौरैया को भगा रहा था। कृष्ण गौरैया को देखकर मुस्कुरा रहे थे। गौरैया ने अभिवादन स्वरूप थोड़ी देर अपने पंख फड़फड़ाए और अपने घोंसले पर वापस आ गई।

दो दिन पश्चात् युद्ध आरंभ की घोषणा हेतु शंखनाद होने से पूर्व कृष्ण ने अर्जुन से उसका धनुष-बाण मांगा।

अर्जुन भौचक्का था क्योंकि कृष्ण ने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा ली थी। इस के अतिरिक्त अर्जुन को यह विश्वास था कि मैं ही यहाँ सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हूँ।

“आज्ञा दें प्रभु” उसने दृढ़ विश्वास से कहा “मेरे बाणों के लिये कुछ भी अभेद्य नहीं है।”

अर्जुन से चुपचाप धनुष लेते हुए कृष्ण ने एक हाथी पर निशाना साधा। किंतु उस जानवर को मार गिराने के बजाए वह तीर उसके गले में लटकी घंटी पर लगा और चिंगारियाँ निकलीं।

कृष्ण को एक सरल सा निशाना चूकते देख अर्जुन अपनी हंसी रोक न सका।

“क्या, मैं करूँ?” उसने प्रस्ताव किया।
पुनः उसके प्रश्न एवं प्रतिक्रिया को अनदेखा करते हुए कृष्ण ने उसे उसका धनुष वापस कर दिया और कहा कि इसके आगे कुछ और करना आवश्यक नहीं है।

“किंतु केशव, आपने हाथी को क्यों निशाना बनाया?” अर्जुन ने पूछा।

“क्योंकि यही वह हाथी है जिसने उस पेड़ को गिराया था जिस पर उस गौरैया का घोंसला था।”

“कौन सी गौरैया?” अर्जुन ने आश्चर्य प्रकट किया “और वह हाथी तो सकुशल और जीवित है। केवल उसकी घंटी ही गिरी है।” उसके प्रश्न की उपेक्षा करते हुए श्री कृष्ण ने उसे अपना शंख बजाने का आदेश दिया।

युद्ध शुरू हुआ और अगले अठारह दिनों में अनगिनत जीवन नष्ट हो गये। अन्त में पांडवों की विजय हुई। पुनः कृष्ण अर्जुन को लेकर रक्तिम युद्धक्षेत्र का निरीक्षण करने गये। वहाँ कईं शव पड़े थे जिनका अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया था। युद्ध-भूमि में कटे हुए सिर, हाथ-पैर, निर्जीव घोड़े व हाथी कूड़े करकट के समान पड़े हुए थे।

कृष्ण एक स्थान पर रुके और हाथी की एक घंटी को विचार मग्न होकर देखने लगे।

उन्होंने कहा “अर्जुन, क्या तुम मेरे लिये इस घंटी को उठाकर दूसरी ओर रख दोगे ?

यद्यपि आदेश सरल था किंतु अर्जुन को तात्पर्य समझ नहीं आया। आखिरकार इस विशाल युद्धक्षेत्र में जहाँ बहुत सी अन्य वस्तुओं को हटाने की आवश्यकता थी, कृष्ण ने उसे एक तुच्छ धातु के टुकड़े को हटाने के लिए क्यों कहा? उसने उन्हें प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

“हाँ, वह घंटी। यह वही घंटी है जो उस हाथी के गले से तब गिरी थी जब मैंने उस पर तीर चलाया था।”

बिना कोई प्रश्न किये अर्जुन उस भारी घंटी को हटाने के लिये झुका। जैसे ही उसने उसे उठाया उसका संसार सदा के लिये परिवर्तित हो गया।

एक, दो, तीन, चार, पाँच। चार छोटी चिड़िया एक के पीछे एक करके उड़ गयीं और उनके पीछे एक गौरैया थी। माँ चिड़िया कृष्ण के चारों ओर अत्यधिक प्रसन्नता में चक्कर लगाते हुए परिक्रमा करने लगी। वह एक घंटी जो कृष्ण ने अठारह दिनों पूर्व विभाजित की थी उसने चिड़िया के पूरे परिवार की रक्षा की।

“मुझे क्षमा करें कृष्ण” अर्जुन ने कहा “आपको मानव शरीर में साधारण मनुष्यों की भांति व्यवहार करते देख मैं भूल गया था कि आप सचमुच कौन हैं।”

और हम भी अपने ईष्ट अपने भगवान पर उस चिड़िया की तरह भरोसा करें तो हमारे ईष्ट हमारे भगवान भी हर पल हमारे साथ ही हैं,

जरूरत सिर्फ और सिर्फ हमारे विश्वास करने की है!!


🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Tuesday 1 October 2019

राधारानी की कृपा....


श्रीरुप गोस्वामी जी पर राधारानी जी की कृपा 

बरसाना में श्री रुप गोस्वामी , चेतन्य महाप्रभु के छः शिष्यो में से एक., एक बार भ्रमण करते-करते अपने शिष्य श्री जीव गोस्वामी जी के यहाँ बरसाना आए. 

जीव गोस्वामी जी ठहरे फक्कड़ साधू फक्कड़ साधू को जो मिल जाये वो ही खाले जो मिल जाये वो ही पी ले. आज उनके गुरु आए तो उनके मन भाव आया की में रोज सूखी रोटी, पानी में भिगो कर खा लेता हूं. मेरे गुरु आये हैं क्या खिलाऊँ.. 

एक बार अपनी कुटिया में देखा किंचित तीन दिन पुरानी रोटी बिल्कुल कठोर हो चुकी थी, मैं साधू पानी में गला गला खा लूं. यद्यपि मेरे गुरु साधुता की परम स्थिति को प्राप्त कर चुके है फिर भी मेरे मन के आनन्द के लिए, कैसे मेरा मन संतुष्ट होगा.

 एक क्षण के भक्त के मन में सँकल्प आया की अगर समय होता तो किसी बृजवासी के घर चला जाता. दूध मांग लेता, चावल मांग लाता. मेरे गुरु पधारे जो देह के सम्बंध में मेरे चाचा भी लगते हैं. लेकिन भाव साम्रज्य में प्रवेश कराने वाले मेरे गुरु भी तो हैं. उनको खीर खिला देता… 

रूप गोस्वामी ने आकर कहा – जीव भूख लगी है तो जीव गोस्वामी उन सूखी रोटीयो को अपने गुरु को दे रहे है.अँधेरा हो रहा है.जीव गोस्वामी की आँखों में अश्रु आ गए. और रुप गोस्वामी जी ने कहा – तू क्यों रो रहा है हम तो साधू हैं ना. जो मिल जाय वही खा लेते हैं. में खा लूंगा.

 श्री जीव गोस्वामी जी ने कहा- नहीं बाबा मेरा मन नहीं मान रहा.आप की यदि कोई पूर्व सूचना होती तो मेरे मन में कुछ था. यह चर्चा हो ही रही थी की कोई अर्द्धरात्रि में दरवाजा खटखटाता है. ज्यो ही दरवाजा खटखटाया है. जीव गोस्वामी जी ने दरवाजा खोला.

 एक किशोरी खड़ी हुई है 8 -10 वर्ष की हाथ में कटोरा है. कहा, बाबा मेरी माँ ने खीर बनाई है और कहा जाओ बाबा को दे आओ. जीव गोस्वामी ने उस खीर के कटोरे को ले जाकर रुप गोस्वामी जी के पास रख दिया. 

बोले बाबा – पाओ…ज्यों ही रूप गोस्वामी जी ने उस खीर को स्पर्श किया… उनका हाथ कांपने लगा. जीव गोस्वामी को लगा बाबा का हाथ कांप रहा है. पूछा – बाबा कोई अपराध बन गया है ? 

रूप गोस्वामी जी ने पूछा-  जीव! आधी रात को यह खीर कौन लाया…?? 

बाबा पड़ोस में एक कन्या है मैं जानता हूं उसे, वो लेके आई है.नहीं जीव इस खीर को मैने जैसे ही चख के देखा और मेरे में ऐसे रोमांच हो गया. नहीं जीव् तू पता कर यह कन्या मुझे मेरे किशोरी जी के होने अहसास दिला रही है.

 नहीं बाबा,  वह कन्या पास की है, मैं जानता हूं उसको. अर्ध रात्रि में दोनों गए है उस के घर और दरवाजा खटखटाया, अंदर से उस कन्या की माँ निकल कर बाहर आई. जीव गोस्वामी जी ने पूछा – आपको कष्ट दिया, परन्तु आपकी लड़की कहां है ? 

उस महिला ने कहा, – का बात है गई बाबा.. आपकी लड़की है कहाँ…??

 वो तो उसके ननिहाल गई है गोवेर्धन, 15 दिन हो गए हैं. रूप गोस्वामी जी तो मूर्छित हो गए. जीव गोस्वामी जी ने पैर पकडे और जैसे तेसे श्रीजी के मंदिर की सीढ़िया चढ़ने लगे.  जैसे एक क्षण में चढ़ जायें.

 लंबे-लंबे पग भरते हुए मंदिर पहुचे. वहां श्री गोसाई जी से कहा-  बाबा! एक बात बताओ आज क्या भोग लगाया था श्रीजी श्यामा प्यारी को ? गोसांई जी जानते थे श्री जीव गोस्वामी को, कहा क्या बात है गई बाबा…कहा क्या भोग लगाया था… गोसाई जी ने कहा, आज श्रीजी को खीर का भोग लगाया था. 

रूप गोस्वामी तो श्री राधे श्री राधे कहने लगे, उन्होंने गोसाई जी से कहा – बाबा एक निवेदन और है आप से, यद्दपि यह मंदिर की परंपरा के विरुद्ध है कि एक बार जब श्री जी को शयन करा दिया जाये तो उनकी लीला में जाना अपराध है.

 प्रिया प्रियतम जब विराज रहे हों तो नित्य लीला है उनकी,अपराध है फिर भी आप एक बार यह बता दीजिये की जिस पात्र में भोग लगाया था वह पात्र रखो है के नहीं रखो है…गोसाई जी मंदिर के पट खोलते हैं और देखते हैं की वह पात्र नहीं है वहां पर. गोसांई जी बाहर आते हैं और कहते हैं – बाबा ! वह पात्र नहीं है वहां पर ! न जाने का बात है गई है…

रूप गोस्वामी जी ने अपना दुप्पटा हटाया और वह चाँदी का पात्र दिखाया, बाबा यह पात्र तो नहीं है ?

 गोसांई जी ने कहा – हां बाबा यही पात्र तो है… रूप गोस्वामी जी ने कहा- श्री राधा रानी 300 सीढ़ी उतरकर मुझे खीर खिलाने आई, किशोरी पधारी थी, राधारानी आई थी. उस खीर को मुख पर रगड़ लिया सब साधु संतो को बांटते हुए श्री राधे श्री राधे करते हुऐ फिर कई वर्षो तक श्री रूप गोस्वामी जी बरसाना में ही रहे.

 हे करुणा निधान ! इस अधम, पतित-दास को ऐसी पात्रता और ऐसी उत्कंठा अवश्य दे देना कि इन रसिकों के गहन चरित का आस्वादन कर अपने को कृतार्थ कर सकूँ। इनकी पद धूलि की एक कनिका प्राप्त कर सकूँ.

जय जय श्रीराधे...

Saturday 24 August 2019

व्रज के भक्त.... श्री गौरदास बाबा जी


नंदग्राम के पावन सरोवर के तीर पर श्री सनातन गोस्वामीपाद की भजन-कुटी में श्री गौरदास बाबा जी भजन करते थे। वे सिद्ध पुरुष थे। नित्य प्रेम सरोवर के निकट गाजीपुर से फूल चुन लाते, और माला पिरोकर श्रीलाल जी को धारण कराते। फूल-सेवा द्वारा ही उन्होंने श्री कृष्ण-कृपा लाभ की थी। कृपा-लाभ करने से चार-पांच वर्ष पूर्व ही से वे फूल-सेवा करते आ रहे थे। 
आज उन्हें अभिमान हो आया -' इतने दिनों से फूल-सेवा करता आ रहा हूँ, फिर भी लाल जी कृपा नही करते। उनका ह्रदय कठोर हैं किन्तु वृषभानु नन्दिनी के मन प्राण करुणा द्वारा ही गठित हैं। इतने दिन उनकी सेवा की होती, तो वे अवश्य ही कृपा करती। अब मैं यहाँ न रहूँगा...आज ही बरसाना जी चला जाऊँगा।

संध्या के समय कथा आदि पीठ पर लाद कर चल पड़े, बरसाना जी की ओर। जब नंदगाँव से एक मील दूर एक मैदान से होकर चल रहे थे... बहुत से ग्वाल-बाल गोचरण करा गाँव को लौट रहे थे, एक साँवरे रंग के सुंदर बालक ने उनसे पूछा-'बाबा ! तू कहाँ जाय ?

तब बाबा ने उत्तर दिया-' लाला ! हम बरसाने को जाय हैं, और बाबा के नैन डबडबा आये। बालक ने रुक कर कुछ व्याकुलता से बाबा की ओर निहारते हुए कहा -' बाबा ! मत जा।'

बाबा बोले - न लाला ! मैं छः वर्ष यहाँ रहा, मुझे कुछ न मिला। अब और यहाँ रूककर क्या करूँगा..?? बालक ने दोनों हाथ फैलाकर रास्ता रोकते हुए कहा -' बाबा मान जा, मत जा।'

बाबा झुँझलाकर बोले -' ऐ छोरा ! काहे उद्धम करे हैं। रास्ता छोड़ दे मेरा। मोहे जान दे।

तब बालक ने उच्च स्वर में कहा-' बाबा ! तू जायेगा, तो मेरी फूल-सेवा कौन करेगा ...?? 

बाबा ने आश्चर्य से पलट कर पूछा-' कौन हैं रे तू ?? तो न वहाँ बालक, न कोई सखा और न ही कोई गैया।

बाबा के प्राण रो दिये ।हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कह रोते-चीखते भूमि पर लोटने लगे। चेतना खो बैठे। और फिर चेतना आने पर...हा कृष्ण ! हाय रे छलिया ! कृपा भी की, तो छल से। 

यदि कुछ देर दर्शन दे देते, तो तुम्हारी कृपा का भण्डार कम हो जाता क्या ?? पर नही दीनवत्सल ! तुम्हारा नही ,यह मेरा ही दोष हैं। इस नराधम में यह योग्यता ही कहाँ, जो तुम्हे पहचान पाता ? वह प्रेम और भक्ति ही कहाँ ? जिसके कारण तुम रुकने को बाध्य होते।

उधर पुजारी जी को आदेश हुआ -' देखो, गौरदास मेरी फूल-सेवा न छोड़े। मैं किसी और की फूल-सेवा स्वीकार नही करूँगा।

कैसे मान लूँ की 
 तू पल पल में शामिल नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तू हर चीज़ में हाज़िर नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तुझे मेरी परवाह नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तू दूर है पास नहीं.
देर मैने ही लगाईं 
 पहचानने में मेरे ईश्वर.
वरना तूने जो दिया 
 उसका तो कोई हिसाब ही नहीं.
जैसे जैसे मैं सर को झुकाता चला गया
 वैसे वैसे तू मुझे उठाता चला गया....
⚘जय श्री राधे ⚘

(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)  

Sunday 4 August 2019

‼ निरंतर कृष्ण नाम के जाप का प्रभाव ‼

किसी गांव में एक आदमी के पास बहुत सारी बकरियां थी वह बकरियों का दूध बेचकर ही अपना गुजारा करता था। एक दिन उसके गांव में बहुत से महात्मा आकर यज्ञ कर रहे थे और वह वृक्षों के पत्तों पर चंदन से कृष्ण कृष्ण का नाम लिखकर पूजा कर रहे थे।

वह जगह गांव से बाहर थी। वह आदमी बकरियों को वही रोज घास चराने जाता था। साधु हवन यज्ञ करके वहां से जा चुके थे, लेकिन वह पत्ते वहीं पड़े रह गए। तभी पास चरती बकरियों में से एक बकरी ने वो कृष्ण नाम रूपी पत्तों को खा लिया।

जब आदमी सभी बकरियों को घर लेकर गया तो सभी बकरियां अपने बारे में जाकर मैं मैं करने लगी लेकिन वह बकरी जिसने कृष्ण नाम को अपने अंदर ले लिया था वह मैं मैं की जगह *कृष्ण कृष्ण* करने लगी क्योंकि उसके अंदर *कृष्ण* वास करने लगे। उसका मैं यानी अहम तो अपने आप ही दूर हो जाता है।
जब सब बकरियां उसको *कृष्ण कृष्ण* कहते सुनती है तो वह कहती यह क्या कह रही हो? अपनी भाषा छोड़ कर यह क्या बोले जा रही है ?? मैं मैं बोल।

तो वह कहती *कृष्ण* नाम रूपी पता मेरे अंदर चला गया। मेरा तो मैं भी चला गया। सभी बकरियां उसको अपनी भाषा में बहुत कुछ समझाती परंतु वह टस से मस ना हुई और *कृष्ण कृष्ण* रटती रही। सभी बकरियों ने यह निर्णय किया कि इसको अपनी टोली से बाहर ही कर देते हैं। वह सब उसको सीग और धक्के मार कर बाड़े से बाहर निकाल देती हैं । सुबह जब मालिक आता है तो उसको बाड़े से बाहर देखता है, तो उसको पकड़ कर फिर अंदर कर देता है परंतु बकरियां उसको फिर सींग मार कर बाहर कर देती हैं । मालिक को कुछ समझ नहीं आता यह सब इसकी दुश्मन क्यों हो गई। मालिक सोचता है कि जरूर इसको कोई बीमारी होगी जो सब बकरियां इसको अपने पास भी आने नहीं दे रही, तो वह सोचता है कि यह ना हो कि एक बकरी के कारण सभी बीमार पड़ जाए।

वह रात को उस बकरी को जंगल में छोड़ देता है। सुबह जब जंगल में अकेली खड़ी बकरी को एक व्यक्ति जो कि चोर होता है, देखता है तो वह उस बकरी को लेकर जल्दी से भाग जाता है और दूर गांव जाकर उसे किसी एक किसान को बेच देता है। किसान जो कि बहुत ही भोला भाला और भला मानस होता है उसको कोई फर्क नहीं पड़ता की बकरी मै मैं कर रही है या *कृष्ण कृष्ण*। वह बकरी सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* जपती रहती। अब वह किसान उस बकरी का दूध बेच कर अपना गुजारा करता है। *कृष्ण* नाम के प्रभाव से बकरी बहुत ही ज्यादा और मीठा दूध देती है । दूर-दूर से लोग उसका दूध उस किसान से लेने आते हैं । किसान जो की बहुत ही गरीब था बकरी के आने और उसके दूध की बिक्री होने से उसके घर की दशा अब सुधरने लगी।

एक दिन राजा के मंत्री और कुछ सैनिक उस गांव से होकर गुजर रहे थे उसको बहुत भूख लगी तभी उन्हें किसान का घर दिखाई दिया किसान ने उसको बकरी का दूध पिलाया इतना मीठा और अच्छा दूध पीकर मंत्री और सैनिक बहुत खुश हुए। उन्होंने किसान को कहा कि हमने इससे पहले ऐसा दूध कभी नहीं पिया , किसान ने कहा यह तो इस बकरी का दूध है जो सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* करती रहती है। मंत्री उस बकरी को देखकर और *कृष्ण* नाम जपते देखकर हैरान हो गया। वो किसान का धन्यवाद करके वापस नगर में राज महल चले गए। 

उन दिनों राजमाता जो कि काफी बीमार थी कई वैद्य के उपचार के बाद भी वह ठीक ना हुई। राजगुरु ने कहा माताजी का स्वस्थ होना मुश्किल है, अब तो भगवान इनको बचा सकते हैं। राजगुरु ने कहा कि अब आप माता जी को पास बैठकर ज्यादा से ज्यादा ठाकुर जी का नाम लो , राजा जो कि काफी व्यस्त रहता था वह सारा दिन राजपाट संभाल ले या माताजी के पास बैठे।

नगर में किसी के पास भी इतना इतना समय नहीं की राजमाता के पास बैठकर भगवान का नाम ले सके, तभी मंत्री को वह बकरी याद आई जो कि हमेशा *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती थी।
मंत्री ने राजा को इसके बारे में बताया। पहले तो राजा को विश्वास ना हुआ परंतु मंत्री जब राजा को अपने साथ उस किसान के घर ले गया तो राजा ने बकरी को *कृष्ण* नाम का जाप करते हुए सुना तो वह हैरान हो गया। राजा किसान से बोला कि आप यह बकरी मुझे दे दो। किसान बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर राजा से बोला कि इसके कारण ही तो मेरे घर के हालात ठीक हुए, अगर मैं यह आपको दे दूंगा तो मैं फिर से भूखा मरूगा। राजा ने कहा कि आप फिकर ना करो, मैं आपको इतना धन दे दूंगा कि आप की गरीबी दूर हो जाएगी। तब किसान ने खुशी-खुशी बकरी को राजा को दे दिया।

अब तो बकरी राज महल में राजमाता के पास बैठकर निरंतर *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती। *कृष्ण* नाम के कानों में पढ़ने से और बकरी का मीठा और स्वच्छ दूध पीने से राजमाता की सेहत में सुधार होने लगा और धीरे-धीरे वह बिल्कुल ठीक हो गई।

अब तो बकरी राज महल में राजा के पास ही रहने लगी तभी उसकी संगत से पूरा राजमहल *कृष्ण कृष्ण* का जाप करने लगा ।अब पूरे राज महल और पूरे नगर में *कृष्ण* रूपी माहौल हो गया ।

एक बकरी जो कि एक पशु है... कृष्ण नाम के प्रभाव से जो सीधे राज महल में पहुंच गई और उसकी " मैं " यानी अहम खत्म हो गई तो क्या हम इंसान निरंतर कृष्ण का जाप करने से हम भव से पार नहीं हो जाएंगे ?

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*हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ॥*



*🙏|| जय श्री कृष्ण: ||🙏


(Courtesy -  Sri Narayan Maharaj)

*पूर्ण विश्वास*


कृष्ण भोजन के लिए बैठे थे। एक दो कौर मुँह में लेते ही अचानक उठ खड़े हुए। बड़ी व्यग्रता से द्वार की तरफ भागे, फिर लौट आए उदास और भोजन करने लगे।

रुक्मणी ने पूछा,"प्रभु,थाली छोड़कर इतनी तेजी से क्यों गये ? और इतनी उदासी लेकर क्यों लौट आये?"

कृष्ण ने कहा,"मेरा एक प्यारा राजधानी से गुजर रहा है। नंगा फ़कीर है। इकतारे पर मेरे नाम की धुन बजाते हुए मस्ती में झूमते चला जा रहा है। लोग उसे पागल समझकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। उस पर पत्थर फेंक रहे हैं। और वो है कि मेरा ही गुणगान किए जा रहा है। उसके माथे से खून टपक रहा है। वह असहाय है, इसलिए दौड़ना पड़ाl"

"तो फिर लौट क्यों आये?"

कृष्ण बोले, "मैं द्वार तक पहुँचा ही था कि उसने इकतारा नीचे फेंक दिया और पत्थर हाथ में उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर देने में तत्पर हो गया है। उसे अब मेरी जरूरत न रही। जरा रूक जाता,
*पूर्ण विश्वास* करता तो मैं पहुँच गया होता।"


*🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*
(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Thursday 1 August 2019

लंकाधीश रावण कि मांग

बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, 
पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्* मे यह कथा है। रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..। जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसीकृत मानस में भी रावण के मन-भाव लिखे हैं- खर-दूसन मो सम बलवंता। तिनहि को मlरहि बिनु भग-वंता ll रावण के पास जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..। जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्होंने राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है। रावण ने सविनय कहा– "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।" जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचlर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। "मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ" प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया : "क्या राम द्वारा महेश्वर-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?" "बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I" जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतुआचार्य पद अस्वीकार कर दे ? रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।" जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वन-वासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए। अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वरलिंग विग्रह की स्थापना करनेजा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है। "यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो, यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना" *स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य* यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया स्वस्थ कण्ठ से *"सौभाग्यवती भव"* कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया। सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे । "आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत-सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। " दीर्घायु भव !" "लंका विजयी भव ! " दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं। भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा " यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।" श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं। " अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?" " कोई उपाय आचार्य ?" " आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।" श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे। " अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..." आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया। गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे। आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।" जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया। आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।. अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की.. श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?" पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने। " घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..." " लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।" "आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी। "ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी-- “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया । रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ? (रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी )


*🙏🏼जय श्री राम  🙏🏼*



(साभार - अनिल माण्डलिक)

Tuesday 23 July 2019

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि ।

एक ग्रंथ ऐसा भी है हमारे सनातन धर्म मे।

इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए -

यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए  
और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। 

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है

  "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः 
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

अब इस श्लोक का विलोमम्: इस प्रकार है

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः 
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ 

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री ॥


कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा ग्रंथ नही पाया गया है ।

शत् शत् प्रणाम है सनातन धर्म को। 
मैं इतना भाग्यशाली हूं की भारत की इस पवित्र भूमी मे मेरा जन्म हुआ।


जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम।

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Wednesday 17 July 2019

प्रभु को नियम बदलते देखा।

एक समय श्री रंगनाथ मंदिर के महंत जो की प्रभु के प्रिय भक्त भी थे , 
अपने कुछ शिष्यों को साथ लेके दक्षिण में तीर्थदर्शन करते हुए एक नगर में पहुंचे , 
संध्या का समय था , मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख , 
महंत जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर भोजन प्रसाद बनाके हरि नाम संकीर्तन किया जाये ,, 
संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, 
वेश्या वही पास में भवन में रहती थी , 
.
महंत जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था की जिस जगह वे रुक्के विश्राम व् भोजन प्रसादी कर रहे है वो स्थान एक वेश्या का हे। 
वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनंद ले रही थी, 
.
द्वार पर बहुत सुन्दर सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, 
आज मानो संतो के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के ह्रदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो , 
.
स्वयं को बड़भागी जान उसने संतो को विघ्न न हो ये जानके, अपने बारे में कुछ न बताके, दूर से ही अपने भवन से आनंद लेती रही
जब तक सभी संतो का भोजन प्रसाद व् संकीर्तन समाप्त हुआ, तो अंत में उस वेश्या ने एक थाल में बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ लेके, महंत जी के समक्ष प्रस्तुत हुई, और महंत जी को प्रणाम किया व् बताया की ये स्थान मेरा ही है, में यहाँ की स्वामिनी हुँ,
महंत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानके - और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा. की बहुत ही रमणीय स्थान हे, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसंद आया ये स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा , 
.
अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महंतजी की सेवा में प्रस्तुत किया, 
संतो का स्वाभाव होता है वे बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हे और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है, 
अतः महंत जी ने उस वेश्या से कहा - हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से ये धन अर्जित किया है ?
.
वेश्या ने भी द्वार पर आये संतो से झूठ न कहके - सारी बात सच सच बता दी की, में एक वेश्या हु, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हु, उसी से मेने धन अर्जित किया है, 
और महंत जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट -फुटके रोने लगी, व् महंतजी से श्रीठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी,
महंत जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये,
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यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी संत धर्म की हानि।
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अब महंत जी ने अपने रंगनाथ जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा,
हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम ह्रदय से अपने इस कुकर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी संपत्ति को तुरंत बेचके। 
उससे जो धन आये उससे हमारे रंगनाथ जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ, 
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यदि हमारे प्रभु स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हे माफ़ करके अपनी शरण प्रदान की,
वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चूका था, महंत जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरंत ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचके उसने रंगनाथ जी के लिये, ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया ,
**** आज से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पहले की श्री रंगनाथ जी के मंदिर की ये घटना बिलकुल सत्य है - भक्तमाल में भी वर्णन है इसका ,
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कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाके अपने नगर से, महंत जी के साथ रंगनाथ जी मंदिर के लिये प्रस्थान किया,
मंदिर पहुंचते ही जब ये बात समस्त ग्रामवासी और मंदिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट रंगनाथजी धारण करेंगे - तो सभी अपना अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महंत जी और उस वेश्या का मजाक उड़ने लगे,
महंत जी सिद्ध पुरुष थे और रंगनाथजी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की,
.
अब देखिये - जैसे ही वो वेश्या मंदिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुंची ही थी की, पूर्व का पाप बीच में आ गया, 
वेश्या वहीं 'रजस्वला' हो गई, 
.
माथा पिट लिया अपना, फुट फुटके रोने लगी,मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी,
हाय महा- दुःख,
संत की कृपा हुई, रंगनाथ जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की, रजस्वला हो गई, मंदिर में जाने लायक ही न रही,
.
सब लोग हसीं उड़ने लगे, पुजारी भी महंत जी को कोसने लगे,
अब महंत जी भी क्या करते, 
उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेके स्वयं रंगनाथ जी के गर्भगृह पहुंचके, श्री रंग जी को मुकुट पहनने लगे।
.
इधर महंत जी बार बार मुकुट प्रभु के मस्तक पे धराए और रंग जी धारण ही नि करें, मुकुट बार बार रंगनाथ जी के मस्तक से गिर जाये,
अब तो महंत जी भी निराश हो गये, सोचने लगे- हमसे ही बहुत बड़ा अपराध भया है,शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया,
.
इसी लिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे -
.
अपने भक्त को निराश देख, रंग जी से रहा नहीं गया ,
*श्री विग्रह से ही बोल पड़े - बाबा आप निराश मत हो, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था, जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।
महंतजी ने बोला - प्रभु जब स्वीकार कर लिया है तो फिर क्यों उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हो। 
.
रंगनाथ जी बोले मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी हे तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़के आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है 
.
महंत जी ने कहा - प्रभु जी रजस्वला है वो मंदिर में नहीं प्रवेश कर सकती, 
.
अब तो रंग जी जिद करने लगे, इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।
.... मंदिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु के ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये , 
सम्पूर्ण मंदिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया। .... 
**
-- रंगनाथ जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मंदिर में प्रवेश कराया गया, 
अपने हाथो से वेश्या रंगनाथ जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धराये बह रही थी। 
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कितनी अद्भुत दशा होगी ,
रंगनाथ जी भक्त की इसी दशा का तो आनंद ले रहे थे,
रंगनाथ जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चडके मुकुट पहनाना पड़ता है,
भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविंद का मनो अभिषेक हो गया,
वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है अवर्णीय दशा है। 
आज रंगनाथ जी ने उस प्रेम स्वरुप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक निचे झुका दिया और मुकुट धारण कर, उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े बड़े देवता , संत, महात्मा हजारो वर्ष तप, अनुष्ठान करते है पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते है ।
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कोटि कोटि वंदन है ऐसे संत को जो उस अनअधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्रीगोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया,
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वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरुप है,
 
"सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते है", 

लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बना लो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं हे, तो सब व्यर्थ ही है। 
दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुंचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते ,
और दौड़े चले आते है निज भक्त के पास। ...
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प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते है परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बांधने वाला कोई विरला ही होता है।
जिनके पूर्ण समर्पण के भाव से ये करूणानिधि रीझते है।....
.....
,....
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प्रबल प्रेम के पाले पड़ के, प्रभु को नियम बदलते देखा। 
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।।
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जिनके चरण कमल कमला के, करतल से ना निकलते देखा।
उसको गोकुल की गलियों में, कंटक पथ पर चलते देखा।।
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जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा। 
शेष गणेश महेश सुरेश ध्यान धरें पर पार न पावें।
ताते बृज वोह हरी आये वृन्दावन की रास रचाएं।
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जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा।
उसको गोकुल के माखन पर सौ सौ बार मचलते देखा।।
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जिनका ध्यान बिरंची शम्भू सनकादिक न सँभालते देखा।
उसको बाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछालते देखा।।
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जिनकी वक्र भृकुटी के भय से सागर सप्त उबलते देखा।
उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा।।
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प्रभु को नियम बदलते देखा। .... 

⚘जय श्री राधे ⚘
(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)

Thursday 11 July 2019

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

हम जिनके पास बैठते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। जिनके साथ उठते—बैठते हैं, उनका रंग चढ़ जाता है।

सांप के ऊपर अगर स्वाति की बूंद भी गिरती है तो जहर हो जाती है।लेकिन वही बूंद अगर सीपी में बंद हो जाती है तो मोती बन जाती है। बूंद वही है। सांप के साथ जहर हो जाती है; सीपी में बंद होकर मोती बन जाती है। कृष्णा नाम की सीपी में बंद हो जाओ तो मोती बन जाओगे।ये है संगति का महत्व!

जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो जाओगे। सदगुरु के पास बैठते—बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी।गुरु का अर्थ होता है. अंधेरे को जो दूर कर दे।’ गु ‘ का अर्थ होता है : अंधेरा; ‘ रु’ का अर्थ होता है दूर करने वाला। 

गुरु का अर्थ हुआ दीया, रोशनी, क्योंकि रोशनी अंधेरे को दूर कर देती है। रोशनी से जुड़ जाओगे, रोशनी हो जाओगे। इसलिए रैदास कहते हैं हमने तो सब देख - समझ कर यही तय किया कि संगति करनी तो तुम्हारी। 

इस संसार में और कुछ संगति करने योग्य नहीं है।प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं कि राम को कैसे जपें। एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं -

- भजन कैसे हो?
- ध्यान कैसे हो?
- कीर्तन कैसे हो?
- पूजा कैसे? 
- अर्चना कैसे? 

और रैदास कहते हैं हमारी मुसीबत दूसरी ही है। हमारी मुसीबत यह है कि अब कैसे छूटै नामरट लागी!
अब छुडाए नहीं छूटती। ऐसा रंग चढ़ता है कि अब हम चाहें भी कि बंद हो जाए तो बंद नहीं होती।

अब कैसे छूटै नामरट लागी।
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग - अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

रैदास कहते हैं ......

: अब समझ में आना शुरू हुआ कि तुम चंदन हो और हम पानी हैं।

जैसे पानी में चंदन डाल दो तो पानी के कण—कण में चंदन की बास समा जाती है।
तुम मुझमें ऐसे समा गए हो जैसे चंदन की बास पानी में समा जाए। अब अलग करने का कोई उपाय नहीं।

जब परमात्मा को अलग करने का कोई उपाय न रह जाए, तभी समझना कि उसे पाया।
मंदिर गए, तिलक लगा लिया, चंदन घिस कर तीसरे नेत्र पर ऊपर से शीतलता पहुंचा दी और घर चले आए!

तुम्हारे तीसरे नेत्र पर परमात्मा चंदन की बास जैसा हो जाना चाहिए।

और चंदन को क्यों चुना है?
बहुत कारणों से चुना है। चंदन अकेला वृक्ष है जिस पर विषैले सांप लिपटे रहते हैं, 
मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। चंदन विषाक्त नहीं होता। सर्प भला सुगंधित हो जाएं, मगर चंदन विषाक्त नहीं होता।

ऐसा ही यह संसार है - जहर से भरा हुआ। इसमें तुम्हें चंदन जैसे होकर जीना होगा।
यह तुम्हें विषाक्त न कर पाए, ऐसा तुम्हारा साक्षीभाव होना चाहिए। कि कीचड़ में से भी गुजरो तो भी कीचड़ तुम्हें छुए न। 

यह काजल की कोठरी है संसार; इससे गुजरना तो है, परमात्मा चाहता है कि गुजरो। जरूर कोई शिक्षा है जो जरूरी है। लेकिन ऐसे गुजरना जैसे कबीर गुजरे, रैदास गुजरे।

और जैसे बादल घिर आते हैं आषाढ़ में - घनघोर बादल - और मोर नाचने लगते हैं। ऐसे ही रैदास कहते हैं कि तुम घने बादलों की तरह छा गए हो और हम तो मोर हैं, हम नाच उठे।

जिस व्यक्ति ने अपने भीतर अहर्निश प्रभु के नाद को सुना, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है - वृक्षों में, पहाड़ी में, चांद - तारों में, लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में। 

उसे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। और जो सब तरफ परमात्मा से घिर गया है वह मोर की तरह नहीं नाचेगा तो कौन नाचेगा?

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

उसकी आंखें तो जैसे चकोर की आंखें चांद पर टिकी रह जाती हैं,

बस ऐसे ही परमात्मा पर टिकी रह जाती हैं। ही, एक फर्क है। चकोर चांद से आंखें नहीं हटाता और ध्यानी हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता, 

क्योंकि जहां भी आंख ले जाए वहीं उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहीं चांद है उसका। कंकड़— कंकड़ में उसकी ही ध्वनि है, पत्ते - पत्ते पर उसी के हस्ताक्षर हैं। 

तो चकोर तो कभी थक भी जाए… थक भी जाता होगा। कवियों की कविताओं में नहीं थकता, मगर असली चकोर तो थक भी जाता होगा। 

असली चकोर तो कभी रूठ भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी शिकायत से भी भर जाता होगा कि आखिर कब तक देखता रहूं?

लेकिन चकोर के प्रतीक को कवियों ने ही नहीं उपयोग किया, ऋषियों ने भी उपयोग किया है। प्रतीक प्यारा है। चकोर एकटक चांद की तरफ देखता है; 

सारी दुनिया उसे भूल जाती है, सब भूल जाता है, बस चांद ही रह जाता है। ठीक ऐसी ही घटना भक्त को भी घटती है। सब भूलता नहीं, सभी चांद हो जाता है। जहां भी देखता है, पाता है वही, वही परमात्मा है

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

तुम ज्योति हो, हम तुम्हारी बाती हैं। इतना ही तुम्हारे काम आ जाएं तो बहुत। तुम्हारी ज्योति के जलने में उपयोग आ जाएं तो बहुत।

तुम्हारे प्रकाश को फैलाने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। यही हमारा धन्यभाग।

कि हम तुम्हारे दीये की बाती बन जाएं। तुम्हारे लिए मिट जाने में सौभाग्य है; 

अपने लिए जीने में भी सौभाग्य नहीं है। अपने लिए जीने में भी दुर्भाग्य है, नरक है, और तुम्हारे लिए मिट जाने में भी सौभाग्य है, स्वर्ग है।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

कि तुम मोती हो, हमें धागा ही बना लो। इतने ही तुम्हारे काम आ जाएं कि तुम्हारी माला बन जाए। तुम तो बहुमूल्य हो, हमारा क्या मूल्य है! धागे का क्या मूल्य है! मगर धागा भी मूल्यवान हो जाता है जब मोतियों में पिरोया जाता है।

जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

सुहागे का क्या मूल्य है, मगर सोने से मिल जाए तो मूल्यवान हो जाता है।
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

तुम मालिक हो। सूफी फकीर परमात्मा को सौ नाम दिए हैं, उसमें एक नाम सबसे ज्यादा प्यारा है, वह है— या मालिक! कि तुम मालिक हो, हम तो ना - कुछ, तुम्हारे पैरों की धूल!

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

यही हमारी भक्ति है कि हम तुम्हारे मोती में धागा बन जाएं, कि हम तुम्हारी ज्योति में बाती बन जाएं; कि तुम मालिक हो हम दास हो जाएं - 
बस इतनी हमारी भक्ति है। और हमें भक्ति का शास्त्र नहीं आता, कि कितने प्रकार की भक्ति होती है,

नवधा भक्ति, कि कितने प्रकार की पूजा - अर्चना होती है, कि कैसे व्यवस्था से यश करें, हवन करें। हमें कुछ नहीं आता। 

हम तो धागा बनने को राजी हैं, तुम मोती हो ही। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, हमें धागा बन जाने दो। और तुम तो चंदन हो ही, और हम तो पानी हैं।

बस तुम्हारी बास समा जाए, बहुत। और तुम तो ज्योति हो ही, तुम्हें बातियों की जरूरत तो पड़ती ही होगी न? हम तुम्हारी बाती बनने को राजी हैं।

⚘जय श्री राधे ⚘



(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ) 


Sunday 23 June 2019

भगवान को अपनी समस्या सौंपकर निर्भार हो जाओ......


एक साधु भिक्षा लेने एक घर में गये । उस घर में माई भोजन बना रही थी और पास में बैठी उसकी लगभग 8 वर्ष की पुत्री बिलख-बिलखकर रो रही थी । 

साधु का हृदय करुणा से भर गया, वे बोले : ‘‘माता ! यह बच्ची क्यों रो रही है ?’’
माँ भी रोने लगी, बोली : ‘‘महाराजजी ! आज रक्षाबंधन है । मुझे कोई पुत्र नहीं है । मेरी बिटिया मुझसे पूछ रही है कि ‘मैं किसके हाथ पर राखी बाँधूँ ?’

समझ में नहीं आता कि मैं क्या उत्तर दूँ, इसके पिताजी भी नहीं हैं ।’’
साधु ऊँची स्थिति के धनी थे, बोले : ‘‘हे भगवान ! मैं साधु बन गया तो क्या मैं किसीका भाई नहीं बन सकता !

बालिका की तरफ हाथ बढ़ाया और बोले : ‘‘बहन ! मैं तुम्हारा भाई हूँ, मेरे हाथ पर राखी बाँधो ।’’

साधु ने राखी बँधवायी और लीला नामक उस बालिका के भाई बन गये । लीला बड़ी हुई, उसका विवाह हो गया । 

कुछ वर्षों बाद उसके पेट में कैंसर हो गया । अस्पताल में लीला अंतिम श्वास गिन रही थी । घरवालों ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी ।
लीला ने कहा : ‘‘मेरे भाईसाहब को बुलवा दीजिये ।’’

साधु महाराज ने अस्पताल में ज्यों ही लीला के कमरे में प्रवेश किया, त्यों ही लीला जोर-जोर से बोलने लगी : ‘‘भाईसाहब !
कहाँ है भगवान ? 
कह दो उसे कि या तो लीला की पीड़ा हर ले या प्राण हर ले,अब मुझसे कैंसर की पीड़ा सही नहीं जाती ।

लीला लगातार अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी । साधु महाराज लीला के पास पहुँचे और उन्होंने शांत भाव से कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद कीं, 

फिर अपने कंधे पर रखा वस्त्र लीला की तरफ फेंका और बोले : ‘‘जाओ बहन ! या तो प्रभु तुम्हारी पीड़ा हर लेंगे या प्राण ले लेंगे ।’’

उनका बोलना, वस्त्र का गिरना और लीला का उठकर खड़े हो जाना - सब एक साथ हो गया  लीला बोल उठी : ‘‘कहाँ है कैंसर ! मैं एकदम ठीक हूँ, घर चलो ।’’

लीला की जाँच की गयी, कैंसर का नामोनिशान नहीं मिला । घर आकर साधु ने हँसकर पूछा : ‘‘लीला ! अभी मर जाती तो ?’’

लीला बोली : ‘‘मुझे अपने दोनों छोटे बच्चों की याद आ रही थी, उनकी चिंता हो रही थी ।’’
इसलिए प्रभु ने तुम्हें प्राणशक्ति दी है, बच्चों की सेवा करो, बंधन तोड़ दो, मरने के लिए तैयार हो जाओ ।
ऐसा कहकर साधु चले गये ।

लीला सेवा करने लगी, बच्चे अब चाचा-चाची के पास अधिक रहने लगे । ठीक एक वर्ष बाद पुनः लीला के पेट में पहले से जबरदस्त कैंसर हुआ, वही अस्पताल, वही वार्ड, संयोग से वही पलंग ! 
लीला ने अंतिम इच्छा बतायी : ‘‘मेरे भाईसाहब को बुलाइये ।’’

साधु बहन के पास पहुँचे, पूछा : ‘‘क्या हाल है ?’’
लीला एकदम शांत थी, उसने अपने भाई का हाथ अपने सिर पर रखा, वंदना की और बोली : ‘भाईसाहब ! मैं शरीर नहीं हूँ, मैं अमर आत्मा हूँ, मैं प्रभु की हूँ, मैं मुक्त हूँ...’’ कहते-कहते ॐकार का उच्चारण करके लीला ने शरीर त्याग दिया ।

लीला के पति दुःखी होकर रोने लगे । साधु महाराज उन्हें समझाते हुए बोले : ‘‘भैया ! क्यों रोते हो ? 
अब लीला का जन्म नहीं होगा, लीला मुक्त हो गयी ।’’ फिर वे हँसे और दुबारा बोले : ‘‘हम जिसका हाथ पकड़ लेते हैं, उसे मुक्त करके ही छोड़ते हैं ।’’

पति का दुःख कम हुआ । उन्होंने पूछा : ‘‘महाराज ! गत वर्ष लीला तत्काल ठीक कैसे हो गयी थी, आपने क्या किया था ?’’

‘‘गत वर्ष लीला ने बार-बार मुझसे पीड़ा या प्राण हर लेने के लिए प्रभु से प्रार्थना करने को कहा ।

 मैंने प्रभु से कहा : ‘हे भगवान ! अब तक लीला मेरी बहन थी, इस क्षण के बाद वह आपकी बहन है, अब आप ही सँभालिये ।’

प्रभु पर छोड़ते ही प्रभु ने अपनी बहन को ठीक कर दिया । यह है प्रभु पर छोड़ने की महिमा !’’

इंसाँ की अज्म से जब दूर किनारा होता है ।
तूफाँ में टूटी किश्ती का
एक भगवान सहारा होता है ।।

ऐसे ही जब आपके जीवन में कोई ऐसी समस्या, दुःख, मुसीबत आये
जिसका आपके पास हल न हो तो आप भी घबराना नहीं बल्कि किसी एकांत कमरे में चले जाना और भगवान, 
सद्गुरु के चरणों में प्रार्थना करके सब कुछ उनको सौंप देना और शांत-निर्भार हो जाना । 
फिर जिसमें आपका परम मंगल होगा, परम हितैषी परमात्मा वही करेंगे 

⚘जय श्री राधे ⚘


🙏मुकेश दास🙏
श्री हरि मंदिर चण्डीगढ 


Friday 21 June 2019

'' टेंटी को साग औऱ बेजर की रोटी .....

एक बार अष्टसखा में से कुम्भनदास जी श्रीनाथजी को देखने के लिए इन्तजार कर रहे थे बड़ी आतुरता पूर्वक प्रभु की राह देख रहे थे उस दिन श्रीनाथजी को आने में विलंब हो गया पर कुछ देर बात श्रीनाथजी पधारे

तब कुम्भनदास जी बोले ,का बात है लाला आज तो बड़ी विलंब करि आवे में तब श्रीनाथजी बोले क्या बताऊँ (श्रीनाथजी कुम्भनदास जी को प्रेम से कुम्भना कहते थे)

प्रभु बोले क्या बताऊँ कुम्भना आज चतुरानन ने रोटी और बरी को साग अरोगायो पर वो तो कम पड़ ग्यो में तो भूखों ही रह गयो ,

और दूसरी तरफ माधवानंद ने भोग भी सराय लियो दूसरी बार भोग लगाने को कहा पर वह पंडित उसमे भाव नहीं था सो मुझे संतोष प्राप्त नही हुआ में दूसरी बार भी में भूखा रह गया हूं।

इसलिए में तेरे पास आया हु कुम्भना कुछ हो तो मुझे खिला भूख लग रही है ,तब कुम्भनदास जी झट से उठे और अपनी रोटी की पोटली खोली तब प्रभु ने पोटली देखकर कहा कि कुम्भना तेने कुछ खाया नही तब कुम्भनदास जी बोले अरे लाला ऐसा कभी हुआ है 

कि मैं तेरे बिना पेट भर लु ले लाला टेंटी को साग हैं बेजर की रोटी हे छाछ भी हे प्रभु बोले कुम्भना आज तो तेरी गोदी में बैठके अरोगवे को मन हैं

मेरो कुम्भनदास की गोदी में बैठकर प्रभु अरोगवे लगे , कुम्भनदास जी बोले लाला बेर को सांधनों मत खाइयों तेरे गले में चुभेगो अटक जायगो तू रोटी साग के संग छाछ पी, 

प्रभु की आँखों से आँसू छलक गये जैसे ही प्रभु छाछ पिते ओर मुह से छाछ से भर जाता तो कुंभनदास जी अपनी बन्दी अपने कपड़े से प्रभु को श्रीमुख पोछने लगते प्रभु के माथे पर हाथ फेरते रहते ,

दोनों के नेत्र से आंसू छलक रहे थे प्रभु ने भोग अरोग लिया और गोदी से उतर गए और बोले अब मोहे संतोष भयो । 

कुम्भना अब तू भोजन अरोग ले प्रभु पास में बैठ गए और कुम्भदास जी भोजन सामने लेकर प्रभु को निहारने में व्यस्त हो गए एकटक देखते रहे तब श्रीनाथजी बोले अरे कुम्भना तू ऐसे ना खा पायेगो , 

प्रभु फिर कुम्भनदास जी की गोदी में बैठ गए और अपने श्रीहस्त से कुंभनदास जी को भोजन कराने लगे और प्रभु की नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है 

कुम्भनदास जी लाला का मस्तक चूम रहे हे 
ऐसा हे पुष्टि में भगवान का भक्त के प्रति और भक्त का भगवान के प्रति स्नेह भाव और प्रेम !

बोलिये भक्त औऱ भगवान की जय हो ।

श्री हरि मंदिर चण्डीगढ 

Wednesday 24 April 2019

कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद राधा का क्या हुआ..?


जब-जब श्रीकृष्ण का नाम लिया गया है, ऐसा कभी हुआ नहीं कि राधा जी का नाम ना लिया गया हो। श्रीकृष्ण को अमूमन भक्त राधे-कृष्ण कहकर ही पुकारते हैं। क्योंकि यह दो शब्द, यह दो नाम एक-दूसरे के लिए ही बने हैं और इन्हें कोई अलग नहीं कर सकता। 

लेकिन तब क्या हुआ था जब श्रीकृष्ण को राधा को छोड़कर जाना पड़ा?

मंदिरों में केवल श्रीकृष्ण की अकेले मूर्ति देखना कम पाया जाता है, अमूमन हम उनकी मूर्ति के साथ राधा की मूर्ति जरूर देखते हैं। आप स्वयं वृंदावन के किसी भी मंदिर में प्रवेश कर लीजिए, वहां आपको राधे-कृष्ण की ही मूर्ति के दर्शन होंगे....
कृष्ण से राधा को और राधा से कृष्ण को कोई जुदा नहीं कर सकता, यह एक गहरा रिश्ता है 

लेकिन जब वास्तव में श्रीकृष्ण अपनी प्रिय राधा को छोड़कर मथुरा चले गए थे तब राधा का क्या हुआ?

 कृष्ण के बिना उन्होंने अपना जीवन कैसे बिताया?

 क्या जीवन बिताया भी था या...

यह सवाल काफी गहरे हैं लेकिन उससे भी गहराई में जाने के बाद इन सवालों का सही उत्तर सामने आया है। यह सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण का बचपन वृंदावन की गलियों में बीता। नटखट नंदलाल अपनी लीलाओं से सभी को प्रसन्न करते, कुछ को परेशान भी करते लेकिन कृष्ण के साथ ही तो वृंदावन में खुशियां थीं।

बड़े होकर कृष्ण ने अपनी बांसुरी की मधुर ध्वनि से अनेकों गोपियों का दिल जीता, लेकिन सबसे अधिक यदि कोई उनकी बांसुरी से मोहित होता तो वह थीं राधा। परंतु राधा से कई अधिक स्वयं कृष्ण, राधा के दीवाने थे।
क्या आप जानते हैं कि राधा, कृष्ण से उम्र में पांच वर्ष बड़ी थीं। वे वृंदावन से कुछ दूर रेपल्ली नामक गांव में रहती थीं लेकिन रोज़ाना कृष्ण की मधुर बांसुरी की आवाज़ से खींची चली वृंदावन पहुंच जाती थी।

कृष्ण भी राधा से मिलने जाते
जब भी कृष्ण बांसुरी बजाते तो सभी गोपियां उनके आसपास एकत्रित हो जातीं, उस मधुर संगीत को सुनते हुए सभी मग्न हो जाते। और इसी का फायदा पाकर कई बार कृष्ण चुपके से वहां से निकल जाते और राधा से मिलने उनके गांव पहुंच जाते। लेकिन धीरे-धीरे वह समय निकट आ रहा था जब कृष्ण को वृंदावन को छोड़ मथुरा जाना था।

वृंदावन में शोक का माहौल उत्पन्न हो गया, इधर कान्हा के घर में मां यशोदा तो परेशान थी हीं लेकिन कृष्ण की गोपियां भी कुछ कम उदास नहीं थीं। दोनों को लेने के लिए कंस द्वारा रथ भेजा गया, जिसके आते ही सभी ने उस रथ के आसपास घेरा बना लिया यह सोचकर कि वे कृष्ण को जाने नहीं देंगे।

उधर कृष्ण को राधा की चिंता सताने लगी, वे सोचने लगे कि जाने से पहले एक बार राधा से मिल लें इसलिए मौका पाते ही वे छिपकर वहां से निकल गए। फिर मिली उन्हें राधा, जिसे देखते ही वे कुछ कह ना सके। राधा-कृष्ण के इस मिलन की कहानी अद्भुत है।

दोनों ना तो कुछ बोल रहे थे, ना कुछ महसूस कर रहे थे, बस चुप थे। राधा कृष्ण को ना केवल जानती थी, वरन् मन और मस्तिष्क से समझती भी थीं। कृष्ण के मन में क्या चल रहा है, वे पहले से ही भांप लेती, इसलिए शायद दोनों को उस समय कुछ भी बोलने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी।

अंतत: कृष्ण, राधा को अलविदा कह वहां से लौट आए और आकर गोपियों को भी वृंदावन से उन्हें जाने की अनुमति देने के लिए मना लिया।

अखिरकार वृंदावन कृष्ण के बिना सूना-सूना हो गया, ना कोई चहल-पहल थी और ना ही कृष्ण की लीलाओं की कोई झलक। बस सभी कृष्ण के जाने के ग़म में डूबे हुए थे। परंतु दूसरी ओर राधा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन क्यों ! क्योंकि उनकी दृष्टि में कृष्ण कभी उनसे अलग हुए ही नहीं थे।

शारीरिक रूप से जुदाई मिलना उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता था, यदि कुछ महत्वपूर्ण था तो राधा-कृष्ण का भावनात्मक रूप से हमेशा जुड़ा रहना। कृष्ण के जाने के बाद राधा पूरा दिन उन्हीं के बारे में सोचती रहती और ऐसे ही कई दिन बीत गए। लेकिन आने वाले समय में राधा की जिंदगी क्या मोड़ लेने वाली थी,
 उन्हें इसका अंदाज़ा भी नहीं था।

माता-पिता के दबाव में आकार राधा को विवाह करना पड़ा और विवाह के बाद अपना जीवन, संतान तथा घर-गृहस्थि के नाम करना पड़ा। लेकिन दिल के किसी कोने में अब भी वे कृष्ण का ही नाम लेती थीं। दिन बीत गए, वर्ष बीत गए और समय आ गया था जब राधा काफी वृद्ध हो गई थी। फिर एक रात वे चुपके से घर से निकल गई और घूमते-घूमते कृष्ण की द्वारिका नगरी में जा पहुंची।

वहां पहुंचते ही उसने कृष्ण से मिलने के लिए निवेदन किया, लेकिन पहली बार में उन्हें वह मौका प्राप्त ना हुआ। परंतु फिर आखिरकार उन्होंने काफी सारे लोगों के बीच खड़े कृष्ण को खोज निकाला। राधा को देखते ही कृष्ण के खुशी का ठिकाना नहीं रहा, लेकिन तब ही दोनों में कोई वार्तालाप ना हुई।

क्योंकि वह मानसिक संकेत अभी भी उपस्थित थे, उन्हें लफ़्ज़ों की आवश्यक्ता नहीं थी। कहते हैं राधा कौन थी, यह द्वारिका नगरी में कोई नहीं जानता था। राधा के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के रूप में नियुक्त करा दिया, वे दिन भर महल में रहती, महल से संबंधित कार्यों को देखती और जब भी मौका मिलता दूर से ही कृष्ण के दर्शन कर लेती।

लेकिन फिर भी ना जाने क्यों राधा में धीरे-धीरे एक भय पैदा हो रहा था, जो बीतते समय के साथ बढ़ता जा रहा था। उन्हें फिर से कृष्ण से दूर हो जाने का डर सताता रहता, उनकी यह भवनाएं उन्हें कृष्ण के पास रहने न देतीं। साथ ही बढ़ती उम्र ने भी उन्हें कृष्ण से दूर चले जाने को मजबूर कर दिया। अंतत: एक शाम वे महल से चुपके से निकल गई और ना जाने किस ओर चल पड़ी।

वे नहीं जानती थीं कि वे कहां जा रही हैं, आगे मार्ग पर क्या मिलेगा, बस चलती जा रही थी। परंतु कृष्ण तो भगवान हैं, वे सब जानते थे इसलिए अपने अंतर्मन वे जानते थे कि राधा कहां जा रही है। फिर वह समय आया जब राधा को कृष्ण की आवश्यकता पड़ी, वह अकेली थी और बस किसी भी तरह से कृष्ण को देखना चाहती थी और यह तमन्ना उत्पन्न होते ही कृष्ण उनके सामने आ गए।

कृष्ण को अपने सामने देख राधा अति प्रसन्न हो गई। परंतु दूसरी ओर वह समय निकट था जब राधा पाने प्राण त्याग कर दुनिया को अलविदा कहना चाहती थी। कृष्ण ने राधा से प्रश्न किया और कहा कि वे उनसे कुछ मांगे लेकिन राधा ने मना कर दिया।

कृष्ण ने फिर से कहा कि जीवन भर राधा ने कभी उनसे कुछ नहीं मांगा, इसलिए राधा ने एक ही मांग की और वह यह कि ‘वे आखिरी बार कृष्ण को बांसुरी बजाते देखना चाहती थी’। कृष्ण ने बांसुरी ली और बेहद मधुर धुन में उसे बजाया, बांसुरी बजाते-बजाते राधा ने अपने शरीर का त्याग किया और दुनिया से चली गई। उनके जाते ही कृष्ण ने अपनी बांसुरी तोड़ दी और कोसों दूर फेंक दी।.

🌹 *जय जय श्री राधे।।* 🌹



(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message) 

Monday 22 April 2019

🌻क्यों पड़ते है श्री जगन्नाथ भगवान प्रत्येक वर्ष बीमार...

  
उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे , श्री माधव दास जी  अकेले रहते थे, कोई संसार से इनका लेना देना नही।

अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे और उन्ही को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे।

प्रभु इनके साथ अनेक लीलाए किया करते थे | भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे |

एक बार माधव दास जी को अतिसार( उलटी – दस्त ) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना ये अपना कार्य स्वयं करते थे और सेवा किसी से लेते भी नही थे।

कोई कहे महाराजजी हम कर दे आपकी सेवा तो कहते नही मेरे तो एक जगन्नाथ ही है वही मेरी रक्षा करेंगे । ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया वो उठने बेठने में भी असमर्थ हो गये ,

तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुचे और माधवदासजी को कहा की हम आपकी सेवा कर दे।

भक्तो के लिए आपने क्या क्या नही किया…
क्यूंकि उनका इतना रोग बढ़ गया था की उन्हें पता भी नही चलता था की कब मल मूत्र त्याग देते थे। वस्त्र गंदे हो जाते थे।

उन वस्त्रो को जगन्नाथ भगवान अपने हाथो से साफ करते थे, उनके पुरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे।

कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सके, जितनी जगन्नाथ भगवान ने भक्त माधव दास जी की करी है।

भक्त माधव दास जी पर प्रभु का स्नेह.........

जब माधवदासजी को होश आया,तब उन्होंने तुरंत पहचान लीया की यह तो मेरे प्रभु ही हैं।
एक दिन श्री माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से –

“प्रभु आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता”

ठाकुरजी कहते हा देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता,इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्द्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है।

अगर उसको इस जन्म में नही काटोगे तो उसको भोगने के लिए फिर तुम्हे अगला जन्म लेना पड़ेगा और मै नही चाहता की मेरे भक्त को ज़रा से प्रारब्द्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े,

इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नही टाल सकता 

भक्तो के सहायक बन उनको प्रारब्द्ध के दुखो से, कष्टों से सहज ही पार कर देते है प्रभु
अब तुम्हारे प्रारब्द्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे
15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदास जी से ले लिया

आज भी इसलिए जगन्नाथ भगवान होते है बीमार.......

वो तो हो गयी तब की बात पर भक्त वत्सलता देखो आज भी वर्ष में एक बार जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है ( जिसे स्नान यात्रा कहते है )

स्नान यात्रा करने के बाद हर साल 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान आज भी बीमार पड़ते है।

15 दिन के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है  कभी भी जगनाथ भगवान की रसोई बंद नही होती पर इन 15 दिन के लिए उनकी रसोई बंद कर दी जाती है।

भगवान को 56 भोग नही खिलाया जाता , ( बीमार हो तो परहेज़ तो रखना पड़ेगा ) 

प्रभु को लगाया जाता है काढ़ो का भोग.........

15 दिन जगन्नाथ भगवान को काढ़ो का भोग लगता है | इस दौरान भगवान को आयुर्वेदिक काढ़े का भोग लगाया जाता है। जगन्नाथ धाम मंदिर में तो भगवान की बीमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं।

काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। वहीं रोज शीतल लेप भी लगया जाता है। बीमार के दौरान उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है।

आराम के लिए 15 दिन तक मंदिरों पट भी बंद कर दिए जाते है और उनकी सेवा की जाती है। ताकि वे जल्दी ठीक हो जाएं।

जिस दिन वे पूरी तरह से ठीक होते है उस दिन जगन्नाथ यात्रा निकलती है, जिसके दर्शन हेतु असंख्य भक्त उमड़ते है।

खुद पे तकलीफ ले कर अपने भक्तो का जीवन सुखमयी बनाये। ऐसे तो सिर्फ मेरे भगवान ही हो सकते है ।।

🌻जय जगन्नाथ जी🌻




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