Sunday 23 June 2019

भगवान को अपनी समस्या सौंपकर निर्भार हो जाओ......


एक साधु भिक्षा लेने एक घर में गये । उस घर में माई भोजन बना रही थी और पास में बैठी उसकी लगभग 8 वर्ष की पुत्री बिलख-बिलखकर रो रही थी । 

साधु का हृदय करुणा से भर गया, वे बोले : ‘‘माता ! यह बच्ची क्यों रो रही है ?’’
माँ भी रोने लगी, बोली : ‘‘महाराजजी ! आज रक्षाबंधन है । मुझे कोई पुत्र नहीं है । मेरी बिटिया मुझसे पूछ रही है कि ‘मैं किसके हाथ पर राखी बाँधूँ ?’

समझ में नहीं आता कि मैं क्या उत्तर दूँ, इसके पिताजी भी नहीं हैं ।’’
साधु ऊँची स्थिति के धनी थे, बोले : ‘‘हे भगवान ! मैं साधु बन गया तो क्या मैं किसीका भाई नहीं बन सकता !

बालिका की तरफ हाथ बढ़ाया और बोले : ‘‘बहन ! मैं तुम्हारा भाई हूँ, मेरे हाथ पर राखी बाँधो ।’’

साधु ने राखी बँधवायी और लीला नामक उस बालिका के भाई बन गये । लीला बड़ी हुई, उसका विवाह हो गया । 

कुछ वर्षों बाद उसके पेट में कैंसर हो गया । अस्पताल में लीला अंतिम श्वास गिन रही थी । घरवालों ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी ।
लीला ने कहा : ‘‘मेरे भाईसाहब को बुलवा दीजिये ।’’

साधु महाराज ने अस्पताल में ज्यों ही लीला के कमरे में प्रवेश किया, त्यों ही लीला जोर-जोर से बोलने लगी : ‘‘भाईसाहब !
कहाँ है भगवान ? 
कह दो उसे कि या तो लीला की पीड़ा हर ले या प्राण हर ले,अब मुझसे कैंसर की पीड़ा सही नहीं जाती ।

लीला लगातार अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी । साधु महाराज लीला के पास पहुँचे और उन्होंने शांत भाव से कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद कीं, 

फिर अपने कंधे पर रखा वस्त्र लीला की तरफ फेंका और बोले : ‘‘जाओ बहन ! या तो प्रभु तुम्हारी पीड़ा हर लेंगे या प्राण ले लेंगे ।’’

उनका बोलना, वस्त्र का गिरना और लीला का उठकर खड़े हो जाना - सब एक साथ हो गया  लीला बोल उठी : ‘‘कहाँ है कैंसर ! मैं एकदम ठीक हूँ, घर चलो ।’’

लीला की जाँच की गयी, कैंसर का नामोनिशान नहीं मिला । घर आकर साधु ने हँसकर पूछा : ‘‘लीला ! अभी मर जाती तो ?’’

लीला बोली : ‘‘मुझे अपने दोनों छोटे बच्चों की याद आ रही थी, उनकी चिंता हो रही थी ।’’
इसलिए प्रभु ने तुम्हें प्राणशक्ति दी है, बच्चों की सेवा करो, बंधन तोड़ दो, मरने के लिए तैयार हो जाओ ।
ऐसा कहकर साधु चले गये ।

लीला सेवा करने लगी, बच्चे अब चाचा-चाची के पास अधिक रहने लगे । ठीक एक वर्ष बाद पुनः लीला के पेट में पहले से जबरदस्त कैंसर हुआ, वही अस्पताल, वही वार्ड, संयोग से वही पलंग ! 
लीला ने अंतिम इच्छा बतायी : ‘‘मेरे भाईसाहब को बुलाइये ।’’

साधु बहन के पास पहुँचे, पूछा : ‘‘क्या हाल है ?’’
लीला एकदम शांत थी, उसने अपने भाई का हाथ अपने सिर पर रखा, वंदना की और बोली : ‘भाईसाहब ! मैं शरीर नहीं हूँ, मैं अमर आत्मा हूँ, मैं प्रभु की हूँ, मैं मुक्त हूँ...’’ कहते-कहते ॐकार का उच्चारण करके लीला ने शरीर त्याग दिया ।

लीला के पति दुःखी होकर रोने लगे । साधु महाराज उन्हें समझाते हुए बोले : ‘‘भैया ! क्यों रोते हो ? 
अब लीला का जन्म नहीं होगा, लीला मुक्त हो गयी ।’’ फिर वे हँसे और दुबारा बोले : ‘‘हम जिसका हाथ पकड़ लेते हैं, उसे मुक्त करके ही छोड़ते हैं ।’’

पति का दुःख कम हुआ । उन्होंने पूछा : ‘‘महाराज ! गत वर्ष लीला तत्काल ठीक कैसे हो गयी थी, आपने क्या किया था ?’’

‘‘गत वर्ष लीला ने बार-बार मुझसे पीड़ा या प्राण हर लेने के लिए प्रभु से प्रार्थना करने को कहा ।

 मैंने प्रभु से कहा : ‘हे भगवान ! अब तक लीला मेरी बहन थी, इस क्षण के बाद वह आपकी बहन है, अब आप ही सँभालिये ।’

प्रभु पर छोड़ते ही प्रभु ने अपनी बहन को ठीक कर दिया । यह है प्रभु पर छोड़ने की महिमा !’’

इंसाँ की अज्म से जब दूर किनारा होता है ।
तूफाँ में टूटी किश्ती का
एक भगवान सहारा होता है ।।

ऐसे ही जब आपके जीवन में कोई ऐसी समस्या, दुःख, मुसीबत आये
जिसका आपके पास हल न हो तो आप भी घबराना नहीं बल्कि किसी एकांत कमरे में चले जाना और भगवान, 
सद्गुरु के चरणों में प्रार्थना करके सब कुछ उनको सौंप देना और शांत-निर्भार हो जाना । 
फिर जिसमें आपका परम मंगल होगा, परम हितैषी परमात्मा वही करेंगे 

⚘जय श्री राधे ⚘


🙏मुकेश दास🙏
श्री हरि मंदिर चण्डीगढ 


Friday 21 June 2019

'' टेंटी को साग औऱ बेजर की रोटी .....

एक बार अष्टसखा में से कुम्भनदास जी श्रीनाथजी को देखने के लिए इन्तजार कर रहे थे बड़ी आतुरता पूर्वक प्रभु की राह देख रहे थे उस दिन श्रीनाथजी को आने में विलंब हो गया पर कुछ देर बात श्रीनाथजी पधारे

तब कुम्भनदास जी बोले ,का बात है लाला आज तो बड़ी विलंब करि आवे में तब श्रीनाथजी बोले क्या बताऊँ (श्रीनाथजी कुम्भनदास जी को प्रेम से कुम्भना कहते थे)

प्रभु बोले क्या बताऊँ कुम्भना आज चतुरानन ने रोटी और बरी को साग अरोगायो पर वो तो कम पड़ ग्यो में तो भूखों ही रह गयो ,

और दूसरी तरफ माधवानंद ने भोग भी सराय लियो दूसरी बार भोग लगाने को कहा पर वह पंडित उसमे भाव नहीं था सो मुझे संतोष प्राप्त नही हुआ में दूसरी बार भी में भूखा रह गया हूं।

इसलिए में तेरे पास आया हु कुम्भना कुछ हो तो मुझे खिला भूख लग रही है ,तब कुम्भनदास जी झट से उठे और अपनी रोटी की पोटली खोली तब प्रभु ने पोटली देखकर कहा कि कुम्भना तेने कुछ खाया नही तब कुम्भनदास जी बोले अरे लाला ऐसा कभी हुआ है 

कि मैं तेरे बिना पेट भर लु ले लाला टेंटी को साग हैं बेजर की रोटी हे छाछ भी हे प्रभु बोले कुम्भना आज तो तेरी गोदी में बैठके अरोगवे को मन हैं

मेरो कुम्भनदास की गोदी में बैठकर प्रभु अरोगवे लगे , कुम्भनदास जी बोले लाला बेर को सांधनों मत खाइयों तेरे गले में चुभेगो अटक जायगो तू रोटी साग के संग छाछ पी, 

प्रभु की आँखों से आँसू छलक गये जैसे ही प्रभु छाछ पिते ओर मुह से छाछ से भर जाता तो कुंभनदास जी अपनी बन्दी अपने कपड़े से प्रभु को श्रीमुख पोछने लगते प्रभु के माथे पर हाथ फेरते रहते ,

दोनों के नेत्र से आंसू छलक रहे थे प्रभु ने भोग अरोग लिया और गोदी से उतर गए और बोले अब मोहे संतोष भयो । 

कुम्भना अब तू भोजन अरोग ले प्रभु पास में बैठ गए और कुम्भदास जी भोजन सामने लेकर प्रभु को निहारने में व्यस्त हो गए एकटक देखते रहे तब श्रीनाथजी बोले अरे कुम्भना तू ऐसे ना खा पायेगो , 

प्रभु फिर कुम्भनदास जी की गोदी में बैठ गए और अपने श्रीहस्त से कुंभनदास जी को भोजन कराने लगे और प्रभु की नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है 

कुम्भनदास जी लाला का मस्तक चूम रहे हे 
ऐसा हे पुष्टि में भगवान का भक्त के प्रति और भक्त का भगवान के प्रति स्नेह भाव और प्रेम !

बोलिये भक्त औऱ भगवान की जय हो ।

श्री हरि मंदिर चण्डीगढ