Tuesday 23 July 2019

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि ।

एक ग्रंथ ऐसा भी है हमारे सनातन धर्म मे।

इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए -

यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो रामायण की कथा पढ़ी जाए  
और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। 

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है

  "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः 
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

अब इस श्लोक का विलोमम्: इस प्रकार है

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः 
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ 

विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री ॥


कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें की दुनिया में कहीं भी ऐसा ग्रंथ नही पाया गया है ।

शत् शत् प्रणाम है सनातन धर्म को। 
मैं इतना भाग्यशाली हूं की भारत की इस पवित्र भूमी मे मेरा जन्म हुआ।


जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम।

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Wednesday 17 July 2019

प्रभु को नियम बदलते देखा।

एक समय श्री रंगनाथ मंदिर के महंत जो की प्रभु के प्रिय भक्त भी थे , 
अपने कुछ शिष्यों को साथ लेके दक्षिण में तीर्थदर्शन करते हुए एक नगर में पहुंचे , 
संध्या का समय था , मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख , 
महंत जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर भोजन प्रसाद बनाके हरि नाम संकीर्तन किया जाये ,, 
संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, 
वेश्या वही पास में भवन में रहती थी , 
.
महंत जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था की जिस जगह वे रुक्के विश्राम व् भोजन प्रसादी कर रहे है वो स्थान एक वेश्या का हे। 
वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनंद ले रही थी, 
.
द्वार पर बहुत सुन्दर सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, 
आज मानो संतो के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के ह्रदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो , 
.
स्वयं को बड़भागी जान उसने संतो को विघ्न न हो ये जानके, अपने बारे में कुछ न बताके, दूर से ही अपने भवन से आनंद लेती रही
जब तक सभी संतो का भोजन प्रसाद व् संकीर्तन समाप्त हुआ, तो अंत में उस वेश्या ने एक थाल में बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ लेके, महंत जी के समक्ष प्रस्तुत हुई, और महंत जी को प्रणाम किया व् बताया की ये स्थान मेरा ही है, में यहाँ की स्वामिनी हुँ,
महंत जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानके - और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा. की बहुत ही रमणीय स्थान हे, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसंद आया ये स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा , 
.
अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महंतजी की सेवा में प्रस्तुत किया, 
संतो का स्वाभाव होता है वे बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हे और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है, 
अतः महंत जी ने उस वेश्या से कहा - हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से ये धन अर्जित किया है ?
.
वेश्या ने भी द्वार पर आये संतो से झूठ न कहके - सारी बात सच सच बता दी की, में एक वेश्या हु, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हु, उसी से मेने धन अर्जित किया है, 
और महंत जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट -फुटके रोने लगी, व् महंतजी से श्रीठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी,
महंत जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये,
.
यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी संत धर्म की हानि।
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अब महंत जी ने अपने रंगनाथ जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा,
हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम ह्रदय से अपने इस कुकर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी संपत्ति को तुरंत बेचके। 
उससे जो धन आये उससे हमारे रंगनाथ जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ, 
.
यदि हमारे प्रभु स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हे माफ़ करके अपनी शरण प्रदान की,
वेश्या का मन तो पहले ही निर्मल हो चूका था, महंत जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरंत ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचके उसने रंगनाथ जी के लिये, ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया ,
**** आज से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पहले की श्री रंगनाथ जी के मंदिर की ये घटना बिलकुल सत्य है - भक्तमाल में भी वर्णन है इसका ,
.
कुछ ही दिनों में वेश्या ने मुकुट बनवाके अपने नगर से, महंत जी के साथ रंगनाथ जी मंदिर के लिये प्रस्थान किया,
मंदिर पहुंचते ही जब ये बात समस्त ग्रामवासी और मंदिर के पुजारियों को पता चली की अब वेश्या के धन से अर्जित मुकुट रंगनाथजी धारण करेंगे - तो सभी अपना अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महंत जी और उस वेश्या का मजाक उड़ने लगे,
महंत जी सिद्ध पुरुष थे और रंगनाथजी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की,
.
अब देखिये - जैसे ही वो वेश्या मंदिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुंची ही थी की, पूर्व का पाप बीच में आ गया, 
वेश्या वहीं 'रजस्वला' हो गई, 
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माथा पिट लिया अपना, फुट फुटके रोने लगी,मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी,
हाय महा- दुःख,
संत की कृपा हुई, रंगनाथ जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की, रजस्वला हो गई, मंदिर में जाने लायक ही न रही,
.
सब लोग हसीं उड़ने लगे, पुजारी भी महंत जी को कोसने लगे,
अब महंत जी भी क्या करते, 
उन्होंने वेश्या के हाथ से मुकुट लेके स्वयं रंगनाथ जी के गर्भगृह पहुंचके, श्री रंग जी को मुकुट पहनने लगे।
.
इधर महंत जी बार बार मुकुट प्रभु के मस्तक पे धराए और रंग जी धारण ही नि करें, मुकुट बार बार रंगनाथ जी के मस्तक से गिर जाये,
अब तो महंत जी भी निराश हो गये, सोचने लगे- हमसे ही बहुत बड़ा अपराध भया है,शायद प्रभु ने उस वेश्या को स्वीकार नहीं किया,
.
इसी लिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे -
.
अपने भक्त को निराश देख, रंग जी से रहा नहीं गया ,
*श्री विग्रह से ही बोल पड़े - बाबा आप निराश मत हो, हमने तो उसी दिन उस वेश्या को स्वीकार कर लिया था, जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।
महंतजी ने बोला - प्रभु जब स्वीकार कर लिया है तो फिर क्यों उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हो। 
.
रंगनाथ जी बोले मुकुट तो हम उसी वेश्या के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी हे तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़के आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है 
.
महंत जी ने कहा - प्रभु जी रजस्वला है वो मंदिर में नहीं प्रवेश कर सकती, 
.
अब तो रंग जी जिद करने लगे, इसी समय लाओ हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।
.... मंदिर के समस्त पुजारियों ने प्रभु के ये आज्ञा सुन दाँतो तले उंगलिया दबा ली, सब विस्मित से हो गये , 
सम्पूर्ण मंदिर में हाहाकार मच गया, जिसने सुना वो अचंभित हो गया। .... 
**
-- रंगनाथ जी की आज्ञा को शिरोधार्य कर सैकड़ो लोगो की उपस्थिति में उस वेश्या को सम्मान पूर्वक मंदिर में प्रवेश कराया गया, 
अपने हाथो से वेश्या रंगनाथ जी को मुकुट धारण कराने लगी, नैनो से अविरल अश्रु की धराये बह रही थी। 
.
कितनी अद्भुत दशा होगी ,
रंगनाथ जी भक्त की इसी दशा का तो आनंद ले रहे थे,
रंगनाथ जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चडके मुकुट पहनाना पड़ता है,
भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविंद का मनो अभिषेक हो गया,
वेश्या के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है अवर्णीय दशा है। 
आज रंगनाथ जी ने उस प्रेम स्वरुप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक निचे झुका दिया और मुकुट धारण कर, उस वेश्या को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े बड़े देवता , संत, महात्मा हजारो वर्ष तप, अनुष्ठान करते है पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते है ।
.
कोटि कोटि वंदन है ऐसे संत को जो उस अनअधिकारी वेश्या पर अनुग्रह कर श्रीगोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया,
.
वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरुप है,
 
"सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते है", 

लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बना लो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं हे, तो सब व्यर्थ ही है। 
दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुंचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते ,
और दौड़े चले आते है निज भक्त के पास। ...
.
प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते है परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बांधने वाला कोई विरला ही होता है।
जिनके पूर्ण समर्पण के भाव से ये करूणानिधि रीझते है।....
.....
,....
.
प्रबल प्रेम के पाले पड़ के, प्रभु को नियम बदलते देखा। 
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।।
.
जिनके चरण कमल कमला के, करतल से ना निकलते देखा।
उसको गोकुल की गलियों में, कंटक पथ पर चलते देखा।।
.
जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा। 
शेष गणेश महेश सुरेश ध्यान धरें पर पार न पावें।
ताते बृज वोह हरी आये वृन्दावन की रास रचाएं।
.
जिनकी केवल कृपा दृष्टी से सकल विश्व को पलते देखा।
उसको गोकुल के माखन पर सौ सौ बार मचलते देखा।।
.
जिनका ध्यान बिरंची शम्भू सनकादिक न सँभालते देखा।
उसको बाल सखा मंडल में लेकर गेंद उछालते देखा।।
.
जिनकी वक्र भृकुटी के भय से सागर सप्त उबलते देखा।
उसको माँ यशोदा के भय से अश्रु बिंदु दृग ढलते देखा।।
.
प्रभु को नियम बदलते देखा। .... 

⚘जय श्री राधे ⚘
(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)

Thursday 11 July 2019

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

हम जिनके पास बैठते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। जिनके साथ उठते—बैठते हैं, उनका रंग चढ़ जाता है।

सांप के ऊपर अगर स्वाति की बूंद भी गिरती है तो जहर हो जाती है।लेकिन वही बूंद अगर सीपी में बंद हो जाती है तो मोती बन जाती है। बूंद वही है। सांप के साथ जहर हो जाती है; सीपी में बंद होकर मोती बन जाती है। कृष्णा नाम की सीपी में बंद हो जाओ तो मोती बन जाओगे।ये है संगति का महत्व!

जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो जाओगे। सदगुरु के पास बैठते—बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी।गुरु का अर्थ होता है. अंधेरे को जो दूर कर दे।’ गु ‘ का अर्थ होता है : अंधेरा; ‘ रु’ का अर्थ होता है दूर करने वाला। 

गुरु का अर्थ हुआ दीया, रोशनी, क्योंकि रोशनी अंधेरे को दूर कर देती है। रोशनी से जुड़ जाओगे, रोशनी हो जाओगे। इसलिए रैदास कहते हैं हमने तो सब देख - समझ कर यही तय किया कि संगति करनी तो तुम्हारी। 

इस संसार में और कुछ संगति करने योग्य नहीं है।प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं कि राम को कैसे जपें। एक तरफ हैं लोग जो पूछते हैं -

- भजन कैसे हो?
- ध्यान कैसे हो?
- कीर्तन कैसे हो?
- पूजा कैसे? 
- अर्चना कैसे? 

और रैदास कहते हैं हमारी मुसीबत दूसरी ही है। हमारी मुसीबत यह है कि अब कैसे छूटै नामरट लागी!
अब छुडाए नहीं छूटती। ऐसा रंग चढ़ता है कि अब हम चाहें भी कि बंद हो जाए तो बंद नहीं होती।

अब कैसे छूटै नामरट लागी।
प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग - अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।
प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

रैदास कहते हैं ......

: अब समझ में आना शुरू हुआ कि तुम चंदन हो और हम पानी हैं।

जैसे पानी में चंदन डाल दो तो पानी के कण—कण में चंदन की बास समा जाती है।
तुम मुझमें ऐसे समा गए हो जैसे चंदन की बास पानी में समा जाए। अब अलग करने का कोई उपाय नहीं।

जब परमात्मा को अलग करने का कोई उपाय न रह जाए, तभी समझना कि उसे पाया।
मंदिर गए, तिलक लगा लिया, चंदन घिस कर तीसरे नेत्र पर ऊपर से शीतलता पहुंचा दी और घर चले आए!

तुम्हारे तीसरे नेत्र पर परमात्मा चंदन की बास जैसा हो जाना चाहिए।

और चंदन को क्यों चुना है?
बहुत कारणों से चुना है। चंदन अकेला वृक्ष है जिस पर विषैले सांप लिपटे रहते हैं, 
मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। चंदन विषाक्त नहीं होता। सर्प भला सुगंधित हो जाएं, मगर चंदन विषाक्त नहीं होता।

ऐसा ही यह संसार है - जहर से भरा हुआ। इसमें तुम्हें चंदन जैसे होकर जीना होगा।
यह तुम्हें विषाक्त न कर पाए, ऐसा तुम्हारा साक्षीभाव होना चाहिए। कि कीचड़ में से भी गुजरो तो भी कीचड़ तुम्हें छुए न। 

यह काजल की कोठरी है संसार; इससे गुजरना तो है, परमात्मा चाहता है कि गुजरो। जरूर कोई शिक्षा है जो जरूरी है। लेकिन ऐसे गुजरना जैसे कबीर गुजरे, रैदास गुजरे।

और जैसे बादल घिर आते हैं आषाढ़ में - घनघोर बादल - और मोर नाचने लगते हैं। ऐसे ही रैदास कहते हैं कि तुम घने बादलों की तरह छा गए हो और हम तो मोर हैं, हम नाच उठे।

जिस व्यक्ति ने अपने भीतर अहर्निश प्रभु के नाद को सुना, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है - वृक्षों में, पहाड़ी में, चांद - तारों में, लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में। 

उसे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। और जो सब तरफ परमात्मा से घिर गया है वह मोर की तरह नहीं नाचेगा तो कौन नाचेगा?

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

उसकी आंखें तो जैसे चकोर की आंखें चांद पर टिकी रह जाती हैं,

बस ऐसे ही परमात्मा पर टिकी रह जाती हैं। ही, एक फर्क है। चकोर चांद से आंखें नहीं हटाता और ध्यानी हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता, 

क्योंकि जहां भी आंख ले जाए वहीं उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है, वहीं चांद है उसका। कंकड़— कंकड़ में उसकी ही ध्वनि है, पत्ते - पत्ते पर उसी के हस्ताक्षर हैं। 

तो चकोर तो कभी थक भी जाए… थक भी जाता होगा। कवियों की कविताओं में नहीं थकता, मगर असली चकोर तो थक भी जाता होगा। 

असली चकोर तो कभी रूठ भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी शिकायत से भी भर जाता होगा कि आखिर कब तक देखता रहूं?

लेकिन चकोर के प्रतीक को कवियों ने ही नहीं उपयोग किया, ऋषियों ने भी उपयोग किया है। प्रतीक प्यारा है। चकोर एकटक चांद की तरफ देखता है; 

सारी दुनिया उसे भूल जाती है, सब भूल जाता है, बस चांद ही रह जाता है। ठीक ऐसी ही घटना भक्त को भी घटती है। सब भूलता नहीं, सभी चांद हो जाता है। जहां भी देखता है, पाता है वही, वही परमात्मा है

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती।

तुम ज्योति हो, हम तुम्हारी बाती हैं। इतना ही तुम्हारे काम आ जाएं तो बहुत। तुम्हारी ज्योति के जलने में उपयोग आ जाएं तो बहुत।

तुम्हारे प्रकाश को फैलाने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। यही हमारा धन्यभाग।

कि हम तुम्हारे दीये की बाती बन जाएं। तुम्हारे लिए मिट जाने में सौभाग्य है; 

अपने लिए जीने में भी सौभाग्य नहीं है। अपने लिए जीने में भी दुर्भाग्य है, नरक है, और तुम्हारे लिए मिट जाने में भी सौभाग्य है, स्वर्ग है।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

कि तुम मोती हो, हमें धागा ही बना लो। इतने ही तुम्हारे काम आ जाएं कि तुम्हारी माला बन जाए। तुम तो बहुमूल्य हो, हमारा क्या मूल्य है! धागे का क्या मूल्य है! मगर धागा भी मूल्यवान हो जाता है जब मोतियों में पिरोया जाता है।

जैसे सोनपहिं मिलत सुहागा।।

सुहागे का क्या मूल्य है, मगर सोने से मिल जाए तो मूल्यवान हो जाता है।
प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

तुम मालिक हो। सूफी फकीर परमात्मा को सौ नाम दिए हैं, उसमें एक नाम सबसे ज्यादा प्यारा है, वह है— या मालिक! कि तुम मालिक हो, हम तो ना - कुछ, तुम्हारे पैरों की धूल!

प्रभुजी तुम स्‍वामी हम दासा। ऐसी भक्‍ति करै रैदासा।।

यही हमारी भक्ति है कि हम तुम्हारे मोती में धागा बन जाएं, कि हम तुम्हारी ज्योति में बाती बन जाएं; कि तुम मालिक हो हम दास हो जाएं - 
बस इतनी हमारी भक्ति है। और हमें भक्ति का शास्त्र नहीं आता, कि कितने प्रकार की भक्ति होती है,

नवधा भक्ति, कि कितने प्रकार की पूजा - अर्चना होती है, कि कैसे व्यवस्था से यश करें, हवन करें। हमें कुछ नहीं आता। 

हम तो धागा बनने को राजी हैं, तुम मोती हो ही। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, हमें धागा बन जाने दो। और तुम तो चंदन हो ही, और हम तो पानी हैं।

बस तुम्हारी बास समा जाए, बहुत। और तुम तो ज्योति हो ही, तुम्हें बातियों की जरूरत तो पड़ती ही होगी न? हम तुम्हारी बाती बनने को राजी हैं।

⚘जय श्री राधे ⚘



(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)