Saturday 24 August 2019

व्रज के भक्त.... श्री गौरदास बाबा जी


नंदग्राम के पावन सरोवर के तीर पर श्री सनातन गोस्वामीपाद की भजन-कुटी में श्री गौरदास बाबा जी भजन करते थे। वे सिद्ध पुरुष थे। नित्य प्रेम सरोवर के निकट गाजीपुर से फूल चुन लाते, और माला पिरोकर श्रीलाल जी को धारण कराते। फूल-सेवा द्वारा ही उन्होंने श्री कृष्ण-कृपा लाभ की थी। कृपा-लाभ करने से चार-पांच वर्ष पूर्व ही से वे फूल-सेवा करते आ रहे थे। 
आज उन्हें अभिमान हो आया -' इतने दिनों से फूल-सेवा करता आ रहा हूँ, फिर भी लाल जी कृपा नही करते। उनका ह्रदय कठोर हैं किन्तु वृषभानु नन्दिनी के मन प्राण करुणा द्वारा ही गठित हैं। इतने दिन उनकी सेवा की होती, तो वे अवश्य ही कृपा करती। अब मैं यहाँ न रहूँगा...आज ही बरसाना जी चला जाऊँगा।

संध्या के समय कथा आदि पीठ पर लाद कर चल पड़े, बरसाना जी की ओर। जब नंदगाँव से एक मील दूर एक मैदान से होकर चल रहे थे... बहुत से ग्वाल-बाल गोचरण करा गाँव को लौट रहे थे, एक साँवरे रंग के सुंदर बालक ने उनसे पूछा-'बाबा ! तू कहाँ जाय ?

तब बाबा ने उत्तर दिया-' लाला ! हम बरसाने को जाय हैं, और बाबा के नैन डबडबा आये। बालक ने रुक कर कुछ व्याकुलता से बाबा की ओर निहारते हुए कहा -' बाबा ! मत जा।'

बाबा बोले - न लाला ! मैं छः वर्ष यहाँ रहा, मुझे कुछ न मिला। अब और यहाँ रूककर क्या करूँगा..?? बालक ने दोनों हाथ फैलाकर रास्ता रोकते हुए कहा -' बाबा मान जा, मत जा।'

बाबा झुँझलाकर बोले -' ऐ छोरा ! काहे उद्धम करे हैं। रास्ता छोड़ दे मेरा। मोहे जान दे।

तब बालक ने उच्च स्वर में कहा-' बाबा ! तू जायेगा, तो मेरी फूल-सेवा कौन करेगा ...?? 

बाबा ने आश्चर्य से पलट कर पूछा-' कौन हैं रे तू ?? तो न वहाँ बालक, न कोई सखा और न ही कोई गैया।

बाबा के प्राण रो दिये ।हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कह रोते-चीखते भूमि पर लोटने लगे। चेतना खो बैठे। और फिर चेतना आने पर...हा कृष्ण ! हाय रे छलिया ! कृपा भी की, तो छल से। 

यदि कुछ देर दर्शन दे देते, तो तुम्हारी कृपा का भण्डार कम हो जाता क्या ?? पर नही दीनवत्सल ! तुम्हारा नही ,यह मेरा ही दोष हैं। इस नराधम में यह योग्यता ही कहाँ, जो तुम्हे पहचान पाता ? वह प्रेम और भक्ति ही कहाँ ? जिसके कारण तुम रुकने को बाध्य होते।

उधर पुजारी जी को आदेश हुआ -' देखो, गौरदास मेरी फूल-सेवा न छोड़े। मैं किसी और की फूल-सेवा स्वीकार नही करूँगा।

कैसे मान लूँ की 
 तू पल पल में शामिल नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तू हर चीज़ में हाज़िर नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तुझे मेरी परवाह नहीं.
कैसे मान लूँ की 
 तू दूर है पास नहीं.
देर मैने ही लगाईं 
 पहचानने में मेरे ईश्वर.
वरना तूने जो दिया 
 उसका तो कोई हिसाब ही नहीं.
जैसे जैसे मैं सर को झुकाता चला गया
 वैसे वैसे तू मुझे उठाता चला गया....
⚘जय श्री राधे ⚘

(साभार - श्री हरि मंदिर चण्डीगढ)  

Sunday 4 August 2019

‼ निरंतर कृष्ण नाम के जाप का प्रभाव ‼

किसी गांव में एक आदमी के पास बहुत सारी बकरियां थी वह बकरियों का दूध बेचकर ही अपना गुजारा करता था। एक दिन उसके गांव में बहुत से महात्मा आकर यज्ञ कर रहे थे और वह वृक्षों के पत्तों पर चंदन से कृष्ण कृष्ण का नाम लिखकर पूजा कर रहे थे।

वह जगह गांव से बाहर थी। वह आदमी बकरियों को वही रोज घास चराने जाता था। साधु हवन यज्ञ करके वहां से जा चुके थे, लेकिन वह पत्ते वहीं पड़े रह गए। तभी पास चरती बकरियों में से एक बकरी ने वो कृष्ण नाम रूपी पत्तों को खा लिया।

जब आदमी सभी बकरियों को घर लेकर गया तो सभी बकरियां अपने बारे में जाकर मैं मैं करने लगी लेकिन वह बकरी जिसने कृष्ण नाम को अपने अंदर ले लिया था वह मैं मैं की जगह *कृष्ण कृष्ण* करने लगी क्योंकि उसके अंदर *कृष्ण* वास करने लगे। उसका मैं यानी अहम तो अपने आप ही दूर हो जाता है।
जब सब बकरियां उसको *कृष्ण कृष्ण* कहते सुनती है तो वह कहती यह क्या कह रही हो? अपनी भाषा छोड़ कर यह क्या बोले जा रही है ?? मैं मैं बोल।

तो वह कहती *कृष्ण* नाम रूपी पता मेरे अंदर चला गया। मेरा तो मैं भी चला गया। सभी बकरियां उसको अपनी भाषा में बहुत कुछ समझाती परंतु वह टस से मस ना हुई और *कृष्ण कृष्ण* रटती रही। सभी बकरियों ने यह निर्णय किया कि इसको अपनी टोली से बाहर ही कर देते हैं। वह सब उसको सीग और धक्के मार कर बाड़े से बाहर निकाल देती हैं । सुबह जब मालिक आता है तो उसको बाड़े से बाहर देखता है, तो उसको पकड़ कर फिर अंदर कर देता है परंतु बकरियां उसको फिर सींग मार कर बाहर कर देती हैं । मालिक को कुछ समझ नहीं आता यह सब इसकी दुश्मन क्यों हो गई। मालिक सोचता है कि जरूर इसको कोई बीमारी होगी जो सब बकरियां इसको अपने पास भी आने नहीं दे रही, तो वह सोचता है कि यह ना हो कि एक बकरी के कारण सभी बीमार पड़ जाए।

वह रात को उस बकरी को जंगल में छोड़ देता है। सुबह जब जंगल में अकेली खड़ी बकरी को एक व्यक्ति जो कि चोर होता है, देखता है तो वह उस बकरी को लेकर जल्दी से भाग जाता है और दूर गांव जाकर उसे किसी एक किसान को बेच देता है। किसान जो कि बहुत ही भोला भाला और भला मानस होता है उसको कोई फर्क नहीं पड़ता की बकरी मै मैं कर रही है या *कृष्ण कृष्ण*। वह बकरी सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* जपती रहती। अब वह किसान उस बकरी का दूध बेच कर अपना गुजारा करता है। *कृष्ण* नाम के प्रभाव से बकरी बहुत ही ज्यादा और मीठा दूध देती है । दूर-दूर से लोग उसका दूध उस किसान से लेने आते हैं । किसान जो की बहुत ही गरीब था बकरी के आने और उसके दूध की बिक्री होने से उसके घर की दशा अब सुधरने लगी।

एक दिन राजा के मंत्री और कुछ सैनिक उस गांव से होकर गुजर रहे थे उसको बहुत भूख लगी तभी उन्हें किसान का घर दिखाई दिया किसान ने उसको बकरी का दूध पिलाया इतना मीठा और अच्छा दूध पीकर मंत्री और सैनिक बहुत खुश हुए। उन्होंने किसान को कहा कि हमने इससे पहले ऐसा दूध कभी नहीं पिया , किसान ने कहा यह तो इस बकरी का दूध है जो सारा दिन *कृष्ण कृष्ण* करती रहती है। मंत्री उस बकरी को देखकर और *कृष्ण* नाम जपते देखकर हैरान हो गया। वो किसान का धन्यवाद करके वापस नगर में राज महल चले गए। 

उन दिनों राजमाता जो कि काफी बीमार थी कई वैद्य के उपचार के बाद भी वह ठीक ना हुई। राजगुरु ने कहा माताजी का स्वस्थ होना मुश्किल है, अब तो भगवान इनको बचा सकते हैं। राजगुरु ने कहा कि अब आप माता जी को पास बैठकर ज्यादा से ज्यादा ठाकुर जी का नाम लो , राजा जो कि काफी व्यस्त रहता था वह सारा दिन राजपाट संभाल ले या माताजी के पास बैठे।

नगर में किसी के पास भी इतना इतना समय नहीं की राजमाता के पास बैठकर भगवान का नाम ले सके, तभी मंत्री को वह बकरी याद आई जो कि हमेशा *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती थी।
मंत्री ने राजा को इसके बारे में बताया। पहले तो राजा को विश्वास ना हुआ परंतु मंत्री जब राजा को अपने साथ उस किसान के घर ले गया तो राजा ने बकरी को *कृष्ण* नाम का जाप करते हुए सुना तो वह हैरान हो गया। राजा किसान से बोला कि आप यह बकरी मुझे दे दो। किसान बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर राजा से बोला कि इसके कारण ही तो मेरे घर के हालात ठीक हुए, अगर मैं यह आपको दे दूंगा तो मैं फिर से भूखा मरूगा। राजा ने कहा कि आप फिकर ना करो, मैं आपको इतना धन दे दूंगा कि आप की गरीबी दूर हो जाएगी। तब किसान ने खुशी-खुशी बकरी को राजा को दे दिया।

अब तो बकरी राज महल में राजमाता के पास बैठकर निरंतर *कृष्ण कृष्ण* का जाप करती। *कृष्ण* नाम के कानों में पढ़ने से और बकरी का मीठा और स्वच्छ दूध पीने से राजमाता की सेहत में सुधार होने लगा और धीरे-धीरे वह बिल्कुल ठीक हो गई।

अब तो बकरी राज महल में राजा के पास ही रहने लगी तभी उसकी संगत से पूरा राजमहल *कृष्ण कृष्ण* का जाप करने लगा ।अब पूरे राज महल और पूरे नगर में *कृष्ण* रूपी माहौल हो गया ।

एक बकरी जो कि एक पशु है... कृष्ण नाम के प्रभाव से जो सीधे राज महल में पहुंच गई और उसकी " मैं " यानी अहम खत्म हो गई तो क्या हम इंसान निरंतर कृष्ण का जाप करने से हम भव से पार नहीं हो जाएंगे ?

~~~~~~~~~~~~~~~

*हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ॥*



*🙏|| जय श्री कृष्ण: ||🙏


(Courtesy -  Sri Narayan Maharaj)

*पूर्ण विश्वास*


कृष्ण भोजन के लिए बैठे थे। एक दो कौर मुँह में लेते ही अचानक उठ खड़े हुए। बड़ी व्यग्रता से द्वार की तरफ भागे, फिर लौट आए उदास और भोजन करने लगे।

रुक्मणी ने पूछा,"प्रभु,थाली छोड़कर इतनी तेजी से क्यों गये ? और इतनी उदासी लेकर क्यों लौट आये?"

कृष्ण ने कहा,"मेरा एक प्यारा राजधानी से गुजर रहा है। नंगा फ़कीर है। इकतारे पर मेरे नाम की धुन बजाते हुए मस्ती में झूमते चला जा रहा है। लोग उसे पागल समझकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। उस पर पत्थर फेंक रहे हैं। और वो है कि मेरा ही गुणगान किए जा रहा है। उसके माथे से खून टपक रहा है। वह असहाय है, इसलिए दौड़ना पड़ाl"

"तो फिर लौट क्यों आये?"

कृष्ण बोले, "मैं द्वार तक पहुँचा ही था कि उसने इकतारा नीचे फेंक दिया और पत्थर हाथ में उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर देने में तत्पर हो गया है। उसे अब मेरी जरूरत न रही। जरा रूक जाता,
*पूर्ण विश्वास* करता तो मैं पहुँच गया होता।"


*🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*
(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Thursday 1 August 2019

लंकाधीश रावण कि मांग

बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, 
पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्* मे यह कथा है। रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..। जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसीकृत मानस में भी रावण के मन-भाव लिखे हैं- खर-दूसन मो सम बलवंता। तिनहि को मlरहि बिनु भग-वंता ll रावण के पास जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..। जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्होंने राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है। रावण ने सविनय कहा– "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।" जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्वर-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचlर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है। "मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ" प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया : "क्या राम द्वारा महेश्वर-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?" "बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I" जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतुआचार्य पद अस्वीकार कर दे ? रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।" जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वन-वासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए। अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वरलिंग विग्रह की स्थापना करनेजा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है। "यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो, यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना" *स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य* यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया स्वस्थ कण्ठ से *"सौभाग्यवती भव"* कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया। सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे । "आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत-सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। " दीर्घायु भव !" "लंका विजयी भव ! " दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं। भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा " यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।" श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं। " अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?" " कोई उपाय आचार्य ?" " आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।" श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे। " अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..." आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया। गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे। आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।" जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया। आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।. अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की.. श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?" पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने। " घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..." " लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।" "आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी। "ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी-- “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया । रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ? (रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी )


*🙏🏼जय श्री राम  🙏🏼*



(साभार - अनिल माण्डलिक)