Tuesday 9 November 2021

जब भगवान रात में राशन खरीदने आए...


 


।। भक्त चरित्र ।। 


श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है । जिसे 'बड़ी जगह' अथवा  'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है। 


काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे । जिनका नाम था  श्री रामप्रसाद जी। 


उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी।  ज्यादा लोग नहीं आते थे। 


श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। 

वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है 

जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। 


चूँकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे .... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था। 


प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए को ( जिसका नाम था पलटू बनिया ) भिजवाया जाता था। 


उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था.... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और 

जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे।


एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गाँठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए ..? 


कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि 


भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है... 

अतः थोड़ा सा राशन उधार दे दो... 

कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। 


पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... 

मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा। 


श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो 

"जैसी भगवान की इच्छा" 

कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। 


सारे साधु भी जल पी के रह गए। प्रभु की ऐसी परीक्षा थी की रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए।


वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर उढ़ाया जाता था तथा 

शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। 


पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए। धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। 


करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। 


जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं- 

अरे पलटू... 

पलटू सेठ ... 

अरे दरवाजा खोल...। 


उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... 

अभी इनकी अच्छे से डाँट लगाउँगा। 


जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि 


चार चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी .... 

एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं। 

वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। 


उनकी छवि इतनी मोहक .... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा- 


बच्चों ...! 

तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...? 


बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। 


ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो। 


ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करते थे। 


जल्दी-जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चाँदी के सोलह सौ सिक्के निकले। 


प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने बताया इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना। 


अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई कि हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए। 


पश्चाताप, सङ्कोच और प्रेम के साथ उसने हाँथ जोड़कर कहा- बच्चों..! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा ।तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा। 


बच्चों ने कहा ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... 


आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा। 

पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए । 


वो फिर हाँथ जोड़कर बोला- जैसी महन्त जी की आज्ञा। इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते-जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए। 


इधर सवेरे सवेरे मङ्गला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा 


भगवान का पीताम्बर गायब है। 

उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया। 


जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाँथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। 


रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था । 

वे पूछें- क्या हुआ... 

अरे किस बात की माफी माँग रहा है। 

पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे 

महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... 

मैं कान पकड़ता हूँ। 

आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और  ये रहा आपका पीताम्बर... 


वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे.... बड़े प्यारे बच्चे थे... 

इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये... 

आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।


जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। 


अब वो पूछें कि ये तुम्हारे पास कैसे आया ? तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई। 


अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि- 


हे भक्तवत्सल...! 

मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और 


कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की ..मुझे तो दर्शन ना हुआ ... 

और 

इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए । 


जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा । वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... 

अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। 

अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोए । 


ख़ैर इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। 


इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए। 


श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। 


संसार के लिए तो वे मूर्छित थे 

किन्तु मूर्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और 


उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा 

अपनी उँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई ।


जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। 


उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ। 


वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जान बूझकर इन्हें भेजते हैं 

ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाए्... 


उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके। 

जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दें। 



श्री कृष्णार्पणमस्तु....


Thursday 15 July 2021

श्री लक्ष्मण जी के पांच प्रश्न ।

 

पञ्चवटी में, वनवास के दौरान, लक्ष्मण जी ने राम जी से अपने मन में उठ रही जिज्ञासा को इन 5 प्रश्नों के रूप में पूछा था, जिसे अगर कोई अपने जीवन में अपना लें तो ये उसका जीवन, सत्य के स्वरूप को जान और समझकर, पूरी तरह बदल सकता है।

 

लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान राम जी से पूछा..

1- ज्ञान किसको कहते हैं?

2- वैराग्य किसको कहते हैं?

3- माया का स्वरूप बतलाइये?

4- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो?

5- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये?


भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं-


थोरेहि महं सब कहउं बुझाई।

सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।


अर्थात - थोड़े में ही सब समझा देता हूं। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हू्ं।


1- पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी -


मैं अरु मोर तोर तैं माया।

जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।


अर्थात - मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ''मैं'' आता है तो ''मेरा'' आता है और जहां ''मेरा'' होता है वहां ''तेरा'' भी होता है - तो ये भेद माया के कारण होता है।


माया के भी दो भेद बताये हैं- एक विद्या और दूसरी अविद्या।


एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।

जा बस जीव परा भवकूपा।।

एक रचइ जग गुन बस जाकें।

प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।

अर्थात - अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।

2 - दूसरा प्रश्न - ज्ञान किसको कहते हैं?

अर्थात - हम ज्ञानी किसे कहेंगे ?, जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो वही ज्ञानी ! पंडित और ज्ञानी में अन्तर है, उसे पंडित कह सकते हैं लेकिन ज्ञानी नहीं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है ज्ञानी की-

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।

अर्थात - ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान - अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सबमें ही जो ब्रह्म को देखे। ज्ञान के द्वारा तो ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो सबमें भगवान को देखने लग जाता है।


3- तीसरा प्रश्न - वैरागी किसको कहेंगे?

अर्थात - हमारी परिभाषा यह है कि भगवें कपड़े पहने हो या फिर संसार छोड़ कर भाग गया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो - वैरागी !

भगवान श्री राम कहते हैं-

कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।

अर्थात - परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है - उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।

4- चौथा प्रश्न - जीव और ईश्वर में भेद-

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।

अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता - वह जीव और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला - ईश्वर।


5- पांचवां प्रश्न- भक्ति के साधन कौन से हैं, जिससे भक्ति प्राप्त हो जाए ?

भगवान श्री राम कहते हैं-


भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।

एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।

श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।।

अर्थात - भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताये मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियां आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं में प्रेम हो जाएगा।

संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे - इतना कर ले, तो समझो मिल गयी भक्ति ! 

अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले ?
तो इसके लिये दो चौपाई और बतायी हैं-

मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।

काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।

अर्थात - मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से पानी बहने लगे - लेकिन केवल इतना ही काफी नहीं है। 

"काम आदि मद दंभ न जाकें"

जिसमें काम (विकार) न हो, मद (अहंकार) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ (पाखंड) न हो- वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।

दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउँ सदा बिश्राम।।

आगे भगवान कहते हैं - जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूं।

🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏