Monday 19 June 2023

केवट का प्रेम और गंगा पार जाना


चौपाई :

* जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥

बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥


भावार्थ:-जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगाजी के तीर पर आए॥1॥


* मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥

चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥


भावार्थ:-श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है,॥2॥


* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥


भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥


* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥

जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥


भावार्थ:-मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥


छन्द :

* पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।

मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥

बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।

तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥


भावार्थ:-हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।


सोरठा :

* सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।

बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥


भावार्थ:-केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥100॥


चौपाई :

* कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥

बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥


भावार्थ:-कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥1॥


* जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥

सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥


भावार्थ:-एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!॥2॥


* पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥

केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥


भावार्थ:-प्रभु के इन वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचानकर) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥3॥


* अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥

बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥


भावार्थ:-अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि कोई नहीं है॥4॥


दोहा :

* पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥


भावार्थ:-चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान पुण्य के द्वारा) अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को गंगाजी के पार ले गया॥101॥


चौपाई :

* उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥

केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥


भावार्थ:-निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी (नाव से) उतरकर गंगाजी की रेत (बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥


* पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥

कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥


भावार्थ:-पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥


* नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥

बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥


भावार्थ:-(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥


* अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥

फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥


:-हे नाथ! हे दीनदयाल! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥


दोहा :

* बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।

बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥


भावार्थ:- प्रभु श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥102॥


चौपाई :

* तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥

सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥


भावार्थ:-फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥


* पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥

सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥


भावार्थ:-जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥


* सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥

लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥


भावार्थ:-हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे (कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥


* तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥

तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥


भावार्थ:-तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥


दोहा :

* प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।

पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥


भावार्थ:-तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥


चौपाई :

* गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥

तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥


भावार्थ:-मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥


* दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥

नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥


भावार्थ:-गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥


* जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥

तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥


भावार्थ:-हे रघुराज! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों की कुटिया) बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥3॥


* सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥

पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥


भावार्थ:-उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥


वही दिन अच्छा है जो दिन भगवान की याद

और उनके भजन में बिताया जाए..


राम ही राम 🙏❤


Monday 24 April 2023

जो रामेश्वरम दर्शनही करहहि । ते तनु तजि ममः लोक सिधारिहही।।🚩


लिंग थापि विधिवत कर पूजा ।

शिव सामान प्रिय मोय ना दूजा ।।🚩


श्री राम जी द्वारा रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना --रामेश्वरम शिवलिंग के दर्शन का महत्व--अद्भुत प्रसंग 🍀


शिव द्रोही मम दास कहावा।

सो नर मोय सपनेहु नही भावा ।।🚩


शंकर विमुख भगत चह मोरी।

सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।🚩


शंकर प्रिय ममः द्रोही शिव द्रोही मम दास

ते नर करहि कल्पभर घोर नरक में वास।।🚩


जो रामेश्वरम दर्शनही करहहि ।

ते तनु तजि ममः लोक सिधारिहही।।🚩


राम बचन सब के जिय भाए।

मुनिबर निज निज आश्रम आए॥🚩


गिरिजा रघुपति कै यह रीती।

संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।।🚩


श्री राम जी द्वारा रामेश्वरम की स्थापना एवं रामेश्वरम शिवलिंग के दर्शन का महत्ब - जो शिव द्रोही है और भगवान राम की पूजा करता है उनके लिए प्रभु राम ने क्या संदेश दिया है और जो राम द्रोही है और शिव की पूजा करता है उसके लिए प्रभु ने क्या संदेश दिया है


प्रभु ने उसे इस प्रशंग में  कहा है  


शिव द्रोही ममः दाश कहावा 

सो नर मोय सपनेहु नही भावा।।


जो एक वार रामेश्वरम शिवलिंग का दर्शन कर लेगा उसका तो जीवन धन्य हो जाएगा -  इतनी राम जी ने रामेश्वरम की महिमा बताई है 


तुलसी दास जी रामचरित मानस की मधुर चौपाइयों द्वारा इस प्रसंग का वर्णन करते है


सुनि कपीस बहु दूत पठाए।

मुनिबर सकल बोलि लै आए॥🚩

लिंग थापि बिधिवत करि पूजा।

सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥॥🚩


भावार्थ : श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥🚩


सिव द्रोही मम भगत कहावा।

सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥🚩

संकर बिमुख भगति चह मोरी।

सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥4॥🚩


भावार्थ : जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥॥🚩


दोहा :

संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।

ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥॥🚩


भावार्थ : जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥॥🚩


चौपाई :

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं।

ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥🚩

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि।

सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥🚩


भावार्थ : जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥॥🚩


होइ अकाम जो छल तजि सेइहि।

भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥🚩

मम कृत सेतु जो दरसनु करिही।

सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥॥🚩


भावार्थ : जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥॥🚩


राम बचन सब के जिय भाए।

मुनिबर निज निज आश्रम आए॥🚩

गिरिजा रघुपति कै यह रीती।

संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥॥🚩


भावार्थ : श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥॥🚩


🚩जय हो प्रभु राम की🚩 जय हो राजाराम की🙏🙏

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Wednesday 29 March 2023

श्रीरामनवमी - तीनों लोकों के पालनहार प्रभु श्रीराम जी का जन्मोत्सव ।

 


आज श्रीरामनवमी का पावन पर्व है जो कि तीनों लोकों के पालनहार प्रभु श्रीराम जी का जन्मोत्सव है। प्रभु के श्री चरणों में प्रणाम करते हुए प्रभु से प्रार्थना है कि प्रभु आप  सभी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें और उनकी कृपा से सम्पूर्ण विश्व में मंगल ही मंगल होगा।


महाकवि गोस्वामी तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के बालकांड में बहुत ही ह्रदय स्पर्शी रूप से प्रभु श्रीराम के प्राकट्य का वर्णन किया है। आइये भगवान् के प्राकट्य और बाललीला का आनंद गोस्वामी जी के शब्दों में लें। 


नौमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता

मध्य दिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा ।।


पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त था। न बहुत सर्दी थी, न धूप ( गर्मी ) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था।


सीतल मंद सुरभि बह बाऊ । हरषित सुर संतन मन चाऊ ।।

बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा । स्त्रवहिं सकल सरिता अमृत धारा ।।


शीतल, मन्द और सुगंधित ( तीनों प्रकार का ) वायु बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में ( बड़ा ) चाव था। वन फूलें हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रहीं थीं।


सो अवसर बिरंचि जब जाना । चले सकल सुर साजि बिमाना ।

गगन बिमल संकुल सुर जूथा । गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ।।


जब ब्रह्मा जी ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना, तब उनके समेत सारे देवता विमान सजा-सजा कर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे।


बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी । गहगहि गगन दुदंभी बाजी ।।

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा । बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ।।


और सुन्दर अञ्जुलियों में सजा-सजा कर पुष्प बरसाने लगे । आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे । नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा ( उपहार ) भेंट करने लगे।


दोहा - सुर समूह बिनती करि पहुँचें निज निज धाम ।

जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ।।


देवताओं के समूह प्रार्थना करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए।


छन्द - भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।

भूषन बनमाला नयन बिसाला शोभासिंधु खरारी ।।


भावार्थ:- दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए।


यहाँ पर ध्यान देने वाली बात है कि माँ कौसल्या जी के सामने चार भुजा धारण करके अस्त्र-शस्त्र लिए, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने भगवान प्रकट हुए। अर्थात भगवान माँ के पेट से तो नहीं पैदा हुए, यह बात स्पष्ट हो गयी। क्योंकि माँ के पेट से अस्त्र-शस्त्र दिव्य आभूषण और वनमाला पहने कोई भी बच्चा नहीं आता। आगे और स्पष्ट तुलसीदास जी लिखते है -


कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ।।

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ।।


भावार्थ:- दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित (भगवान का निराकार स्वरूप) बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।


यहाँ पर तुलसीदास जी लिखते है कि लक्ष्मीपति भगवान प्रकट हुए। इसका मतलब की विष्णु जी प्रकट हुए चार भुजा धारण करके अस्त्र-शस्त्र लिए, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने।


ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।।

उपजा जब ग्याना प्रभु मुस्काना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ।।


भावार्थ:- वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)


यहाँ पर राम की माँ कौसल्या जी कहती है कि जिसके रोम-रोम में माया के ब्रह्माण्डों के समूह है वो मेरे गर्भ में है यह हँसी की बात है। फिर जब माँ को भगवान ने कहा कि माँ आपने पूर्व जन्म में वर मांगा था। तो मैं आपके पुत्र के रूप में प्रकट हो गया हूँ। परन्तु माँ कौसल्या जी कहती है कि मैंने तो आपको पुत्र रूप में वर माँगा था आप तो मेरे पिता के रूप में आ गये।


माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।

कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।।

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।

यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहि भवकूपा ।।


भावार्थ:- माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया।


(तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते।


यहाँ पर और स्पष्ट हो जाता है कि भगवान पहले विष्णु रूप में प्रकट हुए फिर बाद में माँ कौसल्या के कहने पर भगवान विष्णु ने अपने आपको बालक रूप धारण कर के रोना शुरू कर दिया। अब यह स्पष्ट हो जाता है की भगवान राम माँ के पेट से नहीं पैदा हुए। भगवान विष्णु ने अपने आप को बालक (राम) स्वरूप बनाया और फिर रोना शुरू किया बालक की भाती।


दोहा - बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।।


भावार्थ:- ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्‌, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)


इसका मतलब की भगवान का शरीर माया और उसके गुण (सत्‌, रज, तम) से नहीं बना है।


मनुष्य का शरीर माया से पंचतत्व या पंचमहाभूत - पृथ्वी, पानी, आकाश, अग्नि और वायु से बनता है। और मनुष्य बनने का कारण है कर्म बंधन। परन्तु भगवान कर्म बंधन में नहीं बधे है अतएव तुलसीदास जी लिखते है की राम का शरीर यह माया से (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा) नहीं बना है। भगवान का शरीर दिव्य है और भगवान अपनी इच्छा से ही अपना शरीर बनाते है।


सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥

हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥


भावार्थ:- बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए।


सार - ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रभु श्री राम का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में कर्क लग्न में दोपहर के समय में हुआ था। उस समय अभिजीत महूर्त था। जब भगवान राम का जन्म हुआ जब पांच ग्रह अपने उच्च स्थान में उपस्थित थे। जो किसी साधारण मनुष्य के जन्म के समय नहीं होता है।


🚩जय जय सियाराम 🚩

राम ही राम ❤🙏


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)