Monday, 21 October 2024

ठाकुर जी का मुकुट ।


 एक समय श्री ठाकुर मन्दिर के महन्त जो की प्रभु के बहुत प्रिय भक्त भी थे, अपने कुछ शिष्यों को साथ लेकर दक्षिण में तीर्थ दर्शन करते हुए एक नगर में पहुँचे। संध्या का समय था, मार्ग में बहुत ही रमणीय उपवन देख महन्त जी का मन हुआ यही कुछ देर विश्राम कर, भोजन प्रसाद बनाकर हरिनाम संकीर्तन किया जाये।


संयोग से वह स्थान एक वेश्या का था, वेश्या वही पास के भवन में रहती थी। महन्त जी और उनके शिष्यों को इस बात का पता नहीं था कि जिस जगह वह रुके हैं, विश्राम व भोजन प्रसादी कर रहे हैं वो स्थान एक वेश्या का है। वेश्या भी दूर से अपने भवन से हरि भक्तो की क्रियाओं का आनन्द ले रही थी।


द्वार पर बहुत सुन्दर-सुन्दर श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, अपने साथ अपने ठाकुर जी को भी लाये, आज मानो सन्तों के प्रभाव मात्र से पापआसक्त उस वेश्या के हृदय में भी प्रभु का प्रेम प्रस्फुटित हो रहा हो। स्वयं को बड़भागी जान उसने सन्तों को विघ्न न हो ये जानकर तथा अपने बारे में कुछ न बताकर दूर से ही अपने भवन से ठाकुर जी के दर्शनों का आनन्द लेती रही।


जब सभी सन्तों का भोजन प्रसाद व संकीर्तन समाप्त हुआ तो अन्त में वह वेश्या ने एक थाल में बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएँ लेकर महन्त जी के समक्ष प्रस्तुत हुई और महन्त जी को प्रणाम किया व बताया की ये स्थान मेरा ही है, मैं यहाँ की मालकिन हूँ। महन्त जी को बड़ी प्रसन्नता हुई ये जानकर और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने भी कहा कि यह बहुत ही रमणीय स्थान है, हमारे ठाकुर जी को भी बड़ा पसन्द आया है यह स्थान, संकीर्तन में भी बड़ा मन लगा।


अब वेश्या ने वो स्वर्ण से भरा हुआ थाल महन्तजी की सेवा में प्रस्तुत किया। सचे सन्तों का स्वाभाव होता है वो बिना जाने किसी भी अयोग्य व्यक्ति का धन या सेवा नहीं लेते हैं, और शास्त्र भी अनुमति नहीं देता है। अतः महन्त जी ने उस वेश्या से कहा हम बिना जाने ये धन स्वीकार नहीं कर सकते, आपने किस तरह से यह धन अर्जित किया है?


वेश्या ने भी द्वार पर आये सन्तों से झूठ न कहकर सारी बात सच-सच बता दी की, मैं एक वेश्या हूँ, समाज के आसक्त पुरुषों को रिझाती हूँ, उसी से मैंने यह धन अर्जित किया है। इतना कहकर वह महन्त जी के चरणों में पूर्ण समर्पण करते हुए फुट-फुट कर रोने लगी, व महन्तजी से श्री ठाकुरजी की भक्ति का दान देने का अनुग्रह करने लगी।


महन्त जी को भी दया आयी उसके इस अनुग्रह पर, लेकिन वे बड़े धर्म संकट में पड़ गये, यदि वेश्या का धन स्वीकार किया तो धर्म की हानि होगी और यदि शरण में आये हुए को स्वीकारा नहीं, मार्ग नहीं दिखाया तो भी सन्त धर्म की हानि।


अब महन्त जी ने अपने ठाकुर जी का ध्यान किया और उन्ही को साक्षी कर वेश्या के सामने शर्त रखी और कहा–हम तो ये धन स्वीकार नहीं कर सकते यदि तुम हृदय से अपने इस बुरे कर्म को छोड़ना ही चाहती हो तो ऐसा करो इस पाप कर्म से अर्जित की हुई सारी सम्पत्ति को तुरन्त बेचकर जो धन आये उससे हमारे ठाकुर जी के लिए सुन्दर सा मुकुट बनवाओ। यदि हमारे प्रभु वह मुकुट स्वीकार कर ले तो समझ लेना उन्होंने तुम्हें माफ करके अपनी कृपा प्रदान की है।


वेश्या स्त्री का मन तो पहले ही निर्मल हो चुका था, महन्त जी की आज्ञा शिरोधार्य कर तुरन्त ही सम्पूर्ण संपत्ति बेचकर उसने ठाकुर जी के लिये ३ लाख रुपये का सुन्दर मुकुट बनवाया। कुछ ही दिनों में उस स्त्री ने मुकुट बनवाकर अपने नगर से महन्त जी के साथ ठाकुर जी मन्दिर के लिये प्रस्थान किया।


मन्दिर पहुँचते ही जब यह बात समस्त ग्रामवासीयों और मन्दिर के पुजारियों को पता चली की अब वह वेश्यावृति के धन से अर्जित मुकुट ठाकुर जी धारण करेंगे तो सभी अपना-अपना रोष व्यक्त करने लगे, और महन्त जी और उस स्त्री का मजाक उड़ाने लगे। महन्त जी सिद्ध पुरुष थे और ठाकुर जी के सर्वविदित प्रेमी भक्त भी थे तो किसी ने उनका विरोध करने की चेष्ठा नहीं की।


अब देखिये जैसे ही वो स्त्री मन्दिर में प्रवेश करने लगी, द्वार तक पहुँची ही थी की पूर्व का पाप बीच में आ गया, स्त्री वहीं "रजस्वला" हो गई... माथा पीट लिया अपना, फुट फुटकर रोने लगी, मूर्छित होके भूमि पे गिर पड़ी।


'हाय महा-दुःख, सन्त की कृपा हुई, ठाकुर जी का अनुग्रह प्राप्त होने ही वाला था की रजस्वला हो गई, मन्दिर में जाने लायक ही न रही'–सब लोग हसीं उड़ाने लगे, पुजारी भी महन्त जी को कोसने लगे।


अब महन्त जी भी क्या करते, उन्होंने स्त्री के हाथ से मुकुट लेकर स्वयं ठाकुर जी के गर्भगृह प्रवेश कर श्री ठाकुर जी को मुकुट पहनाने लगे। इधर महन्त जी बार-बार मुकुट प्रभु के मस्तक पर धराए और ठाकुर जी धारण ही ना करें, मुकुट बार-बार ठाकुर जी के मस्तक से गिर जाये।अब तो महन्त जी भी निराश हो गये सोचने लगे हमसे ही बहुत बड़ा अपराध हुआ है, शायद प्रभु ने उस स्त्री को स्वीकार नहीं किया, इसलिये ठाकुर जी मुकुट धारण नहीं कर रहे हैं।


अपने भक्त को निराश देखकर ठाकुर जी से रहा नहीं गया। अपने श्री विग्रह से ही बोल पड़े–'बाबा आप निराश मत हों, हमने तो उसी दिन उस स्त्री को स्वीकार कर लिया था जिस दिन आपने उसे आश्वासन देकर हमारे लिए मुकुट बनवाने को कहा था।'


महन्तजी ने कहा–'प्रभु जब स्वीकार कर ही लिया है तो फिर उस बेचारी का लाया हुआ मुकुट धारण क्यों नहीं कर रहे हैं ?'


ठाकुर बोले–'मुकुट तो हम उसी स्त्री के हाथ से धारण करेंगे, इतने प्रेम से लायी है तो पहनेगे भी उसी के हाथ से, उसे तो तू बाहर ही छोड़कर आ गया और खुद मुकुट पहना रहा है मुझको!'


महन्त जी ने कहा–'प्रभु जी वो रजस्वला है, वो मन्दिर में नहीं प्रवेश कर सकती।'


अब तो ठाकुर जी जिद करने लगे– हम तो उसी के हाथ से पहनेंगे मुकुट।'

'उसे कहो कि रजस्वला के समय पूर्ण होने के बाद आये, विग्रह तक न आने पाने की वजह से जो कष्ट उसे हो रहा है। यह उसके पूर्व कर्मो को काट रहा है और जल्द ही वह पापमुक्त हो जाएगी। 


कुछ दिनों के पश्चयात, उस स्त्री ने फिर से मंदिर की सीढ़ियों को छुआ, ओर कुछ भी गलत नही हुआ। 


ठाकुर जी का श्री विग्रह बहुत बड़ा होने के कारण ऊपर चढकर मुकुट पहनाना पड़ता है, भक्त के अश्रु से प्रभु के सम्पूर्ण मुखारविन्द का मानो अभिषेक हो गया। स्त्री के मुख से शब्द नहीं निकल रहे, नयन अविरल अश्रु बहा रहे है, अवर्णीय दशा है। 


आज ठाकुर जी ने उस प्रेम स्वरूप भेट स्वीकार करने हेतु अपना मस्तक नीचे झुका दिया और मुकुट धारण कर उस स्त्री को वो पद प्रदान किया जिसके लिए बड़े-बड़े देवता, सन्त-महात्मा हजारो वर्ष तप-अनुष्ठान करते हैं पर उन महाप्रभु का अनुग्रह प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।


कोटि-कोटि वन्दन है ऐसे सन्त को जो उस अन-अधिकारी महिला-पुरुषों पर अनुग्रह कर श्री गोविन्द के चरणों का अनुसरण करवाया!


वास्तव में प्रभु का ये ही शाश्वत सत्य स्वरूप है, सिर्फ और सिर्फ प्रेम से ही रिझते हैं, लाख जतन करलो, हजारो नियम कायदे बनालो परन्तु यदि भाव पूर्ण भक्ति नहीं है तो सब व्यर्थ है


दीनदयाल, करुणानिधान प्रभु तक जब किसी भक्त की करुणा पुकार पहुँचती है तो अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते हैं निजभक्त के पास।


प्रभु तो स्वयं प्रेम की डोरी में स्वयं बंधने के लिए तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम में बाँधने वाला कोई विरला ही होता है।


🙏🙏 राधे राधे, हरे कृष्ण  🙏🙏


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)


Friday, 13 September 2024

!! भगवान् विट्ठल की करधनी !!

 

!! भगवान् विट्ठल की करधनी !!


          नरहरि सुनार रहते तो पंढरपुर में थे, किन्तु इनका हृदय काशी के भोले बाबा ने चुरा लिया था। शिव की भक्ति में ये इतने मगन रहते थे कि पंढरपुर में रहकर भी विट्ठल भगवान् को न तो इन्होंने कभी देखा और न ही देखने को उत्सुक थे। नरहरि सुनारी का काम करते थे। इसलिए जब सोने के आभूषण बनाते, तो उस समय भी शिव, शिव, शिव, शिव का नाम सतत् इनके होंठों पर रहता। इसलिए इनके बनाए आभूषणों में भी दिव्य सौंदर्य झलकने लगता था। 


          पंढरपुर में ही रहता था एक साहूकार, जो कि विट्ठल भगवान् का भक्त था। उसके कोई पुत्र न था। उसने एक बार विट्ठल भगवान् से मनौती की कि यदि उसे पुत्र हुआ, तो वह विट्ठल भगवान् को सोने की करधनी (कमरबंद या कमर पट्टा) पहनाएगा। 


          विट्ठल भगवान् की कृपा से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। वह खुशी से फूला न समाया और भागा-भागा नरहरि सुनार के पास सोना लेकर पहुँचा और बोला, नरहरि जी ! विट्ठल भगवान् ने प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान किया है। अतः मनौती के अनुसार आज मैं विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित सोने की करधनी पहनाना चाहता हूँ। पंढरपुर में आपके अलावा इस प्रकार की करधनी और कोई नहीं गढ़ सकता। इसलिए आप यह सोना ले लीजिए और पांडुरंग मंदिर में चलकर विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले आइए और जल्दी से करधनी तैयार कर दीजिए। 


          विट्ठल भगवान् का नाम सुनकर नरहरि जी बोले, "भैया ! मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। इसलिए आप किसी दूसरे सुनार से करधनी तैयार करा लें। लेकिन साहूकार बोला, नरहरि जी ! आपके जैसा श्रेष्ठ सुनार तो पंढरपुर में और कोई नहीं है, इसलिए मैं करधनी तो आपसे ही बनवाऊँगा। यदि आप मंदिर नहीं जाना चाहते हैं, तो ठीक है। मैं स्वयं विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ला देता हूँ। नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया।


          साहूकार विट्ठल भगवान् की कमर का नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की रत्नजड़ित सोने की करधनी बना दी। साहूकार आनंद पूर्वक उस करधनी को लेकर अपने आराध्य देव विट्ठल भगवान् को पहनाने मंदिर गया। जब पुजारी जी वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनाने लगे, तो वह करधनी कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई। 


          साहूकार करधनी लेकर वापिस नरहरि जी के पास लौटा और उस करधनी को छोटा करवा लिया। जब वह पुनः करधनी लेकर मंदिर पहुँचा और पुजारी ने वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनानी चाही, तो अबकी बार वह चार अंगुल छोटी निकली। 


          नरहरि जी ने करधनी फिर बड़ी की, तो वह चार अंगुल बढ़ गई। फिर छोटी की, तो वह चार अंगुल कम हो गई। ऐसा चार बार हुआ। पुजारी जी व अन्य श्रद्धालुओं ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं ही विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले लें। 


          साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर नरहरि जी बड़ी मुश्किल से विट्ठल भगवान् के मंदिर में जाकर स्वयं नाप लेने को तैयार हुए। किन्तु कहीं उन्हें विट्ठल भगवान् के दर्शन न हो जाएँ, यह सोचकर उन्होंने साहूकार के सामने यह शर्त रखी कि मंदिर में घुसने से पहले मैं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगा और हाथों से टटोल कर ही आपके विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले सकूँगा। साहूकार ने नरहरि जी की यह शर्त मान ली। अनेक शिवालयों से घिरे पांडुरंग मंदिर की ओर कदम बढ़ाने से पहले नरहरि जी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। साहूकार इन्हें मंदिर के अंदर ले आया और विट्ठल भगवान् के सामने खड़ा कर दिया।


          जब नरहरिजी ने नाप लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए और मूर्ति को टटोलना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि वे पाँच मुख, दस हाथ वाले, साँपों के आभूषण पहने हुए, मस्तक पर जटा और उसमें से प्रवाहित हो रही गंगा वाले शंकर भगवान् की मूर्ति का स्पर्श कर रहे हैं। नरहरि जी ने सोचा, 'कहीं साहूकार मुझ से ठिठोली करने के लिए विट्ठल भगवान् के मंदिर की जगह किसी शिवालय में तो नहीं ले आए हैं। यह सोचकर ये अपने आराध्य देव के दर्शन के लोभ से बच नहीं पाए और प्रसन्न होकर इन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी। 


          किन्तु आँखें खोलकर देखा तो ठगे से रह गए। देखा सामने उनके आराध्य शिव भगवान् नहीं विट्ठल ही खड़े हैं। झट इन्होंने फिर से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और पुनः नाप लेने लगे। लेकिन जैसे ही इन्होंने पुनः मूर्ति के दोनों ओर अपने हाथ ले जाकर कमर की नाप लेने का प्रयास किया, तो इन्हें पुन: ऐसा आभास हुआ कि मानो ये अपने इष्टदेव बाघाम्बर धारी भगवान् शिवजी का ही आलिंगन कर रहे हों। जैसे ही आँखों से पट्टी खोलकर देखा, तो पुनः विट्ठल भगवान् की मुस्कराती हुई छवि दिखलाई पड़ी। हड़बड़ाते हुए इन्होंने तुरंत अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और फिर से मूर्ति की कमर का नाप लेने लगे। लेकिन आँखें बंद करने पर पुनः मूर्ति में शंकर भगवान् का आभास हुआ। 


          जब ऐसा तीन बार हुआ, तो नरहरि जी असमंजस में पड़ गए। इन्हें समझ में आ गया कि शिव और विट्ठल भगवान् अलग-अलग नहीं हैं। जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल (विष्णु) हैं, वे ही शंकर हैं। अब तो इन्होंने झट अपनी आँखों पर बँधी अज्ञान की पट्टी उतारकर फेंकी और क्षमा माँगते हुए विट्ठल भगवान् के चरणों में गिर पड़े और सुबक-सुबककर रोते हुए कहने लगे, हे विश्व के जीवनदाता ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं शिवजी में और आपमें अंतर करता था। इसीलिए मुझ नराधम ने आज तक आपके दर्शन तक न किए। आज आपने मेरे मन का अज्ञान और अंधकार दूर कर दिया।


🙏 ।। जै श्री हरि  ।। 🙏


(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

-----------------------------------------------