Sunday 27 January 2019

ठाकुर जी की यारी

एक साधु वर्षा के जल में प्रेम और मस्ती से भरा चला जा रहा था…

कि इस साधु ने एक मिठाई की दुकान को देखा जहां एक कढ़ाई में गरम दूध उबला जा रहा था तो मौसम के हिसाब से दूसरी कढ़ाई में गरमा गरम जलेबियां तैयार हो रही थी

साधु कुछ क्षणों के लिए वहाँ रुक गया..... शायद भूख का एहसास हो रहा था या मौसम का असर था....
साधु हलवाई की भट्ठी को बड़े गौर से देखने लगा साधु कुछ खाना चाहता था लेकिन साधु की जेब ही नहीं थी तो पैसे भला कहां से होते....

साधु कुछ पल भट्ठी से हाथ सेंकने के बाद चला ही जाना चाहता था..... कि नेक दिल हलवाई से रहा न गया और एक प्याला गरम दूध और कुछ जलेबियां साधु को दें दी...

मलंग ने गरम जलेबियां गरम दूध के साथ खाई और फिर हाथों को ऊपर की ओर उठाकर हलवाई के लिऐ प्रार्थना की..... फिर आगे चल दिया.....

साधु बाबा का पेट भर चुका था दुनिया के दु:खों से बेपरवाह वे फिर इक नए जोश से बारिश के गंदले पानी के छींटे उड़ाता चला जा रहा था.......

वह इस बात से बेखबर था कि एक युवा प्रेमी जोड़ा भी वर्षा के जल से बचता बचाता उसके पीछे चला आ रहें है ......

एक बार इस मस्त साधु ने बारिश के गंदले पानी में जोर से लात मारी..... बारिश का पानी उड़ता हुआ सीधा पीछे आने वाली युवती के कपड़ों को भिगो गया उस औरत के कीमती कपड़े कीचड़ से लथपथ हो गये.....

उसके यार से यह बात बर्दाश्त नहीं हुई.....

इसलिए वह आस्तीन चढ़ाकर आगे बढ़ा और साधु के कपड़ो से पकड़ कर कहने लगा अंधा है...... तुमको नज़र नहीं आता तेरी हरकत की वजह से मेरी प्रेमिका  के कपड़े गीले हो गऐ हैं और कीचड़ से भर गऐ हैं.....

साधु हक्का-बक्का सा खड़ा था.... जबकि इस युवा को साधु का चुप रहना नाखुशगवार गुजर रहा था.....

महिला ने आगे बढ़कर युवा के हाथों से साधु को छुड़ाना भी चाहा.... लेकिन युवा की आंखों से निकलती नफरत की चिंगारी देख वह भी फिर पीछे खिसकने पर मजबूर हो गई.....

राह चलते राहगीर भी उदासीनता से यह सब दृश्य देख रहे थे लेकिन युवा के गुस्से को देखकर किसी में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उसे रोक पाते

और आख़िर जवानी के नशे मे चूर इस युवक ने एक जोरदार थप्पड़ साधु के चेहरे पर जड़ दिया बूढ़ा मलंग थप्पड़ की ताब ना झेलता हुआ.... लड़खड़ाता हुऐ कीचड़ में जा पड़ा.....

युवक ने जब साधु को नीचे गिरता देखा तो मुस्कुराते हुए वहां से चल दिया..

बूढे साधु ने आकाश की ओर देखा और उसके होठों से निकला वाह मेरे ठाकुर जी गरम दूध जलेबियां और कभी गरम थप्पड़....

लेकिन जो तू चाहे मुझे भी वही पसंद है........यह कहता हुआ वह एक बार फिर अपने रास्ते पर चल दिया....

दूसरी ओर वह युवा जोड़ा अपनी मस्ती को समर्पित अपनी मंजिल की ओर अग्रसर हो गया.....

थोड़ी ही दूर चलने के बाद वे एक मकान के सामने पहुंचकर रुक गए......वह अपने घर पहुंच गए थे....
वे युवा अपनी जेब से चाबी निकाल कर अपनी प्रेमिका  से हंसी मजाक करते हुए ऊपर घर की सीढ़ियों तय कर रहा था....

बारिश के कारण सीढ़ियों पर फिसलन हो गई थी अचानक युवा का पैर फिसल गया और वह सीढ़ियों से नीचे गिरने लगा....

महिला ने बहुत जोर से शोर मचा कर लोगों का ध्यान अपने पति की ओर आकर्षित करने लगी जिसकी वजह से काफी लोग तुरंत सहायता के लिये युवा की ओर लपके.....

लेकिन देर हो चुकी थी युवक का सिर फट गया था और कुछ ही देर मे ज्यादा खून बह जाने के कारण इस नौजवान युवक की मौत हो चुकी थी

कुछ लोगों ने दूर से आते साधु बाबा को देखा तो आपस में कानाफुसी होने लगीं कि निश्चित रूप से इस साधु बाबा ने थप्पड़ खाकर युवा को श्राप दिया है....
अन्यथा ऐसे नौजवान युवक का केवल सीढ़ियों से गिर कर मर जाना बड़े अचम्भे की बात लगती है.....

कुछ मनचले युवकों ने यह बात सुनकर साधु बाबा को घेर लिया एक युवा कहने लगा कि आप कैसे भगवान के भक्त हैं जो केवल एक थप्पड़ के कारण युवा को श्राप दे बैठे......भगवान के भक्त मे रोष व गुस्सा हरगिज़ नहीं होता ....आप तो जरा सी असुविधा पर भी धैर्य न कर सकें.....

साधु बाबा कहने लगा ठाकुर जी  की क़सम मैंने इस युवा को श्राप नहीं दिया....

अगर आप ने श्राप नहीं दिया तो ऐसा नौजवान युवा सीढ़ियों से गिरकर कैसे मर गया ?

तब साधु बाबा ने दर्शकों से एक अनोखा सवाल किया कि आप में से कोई इस सब घटना का चश्मदीद गवाह मौजूद है ?
एक युवक ने आगे बढ़कर कहा..... हाँ मैं इस सब घटना का चश्मदीद गवाह हूँ

साधु ने अगला सवाल किया.....मेरे क़दमों से जो कीचड़ उछला था क्या उसने युवा के कपड़े को दागी किया था ?

युवा बोला..... नहीं.... लेकिन महिला के कपड़े जरूर खराब हुए थे
मलंग ने युवक की बाँहों को थामते हुए पूछा.. फिर युवक ने मुझे क्यों मारा ?

युवा कहने लगा...... क्योंकि वह युवा इस महिला का प्रेमी था और यह बर्दाश्त नहीं कर सका कि कोई उसके प्रेमी के कपड़ों को गंदा करे..... इसलिए उस युवक ने आपको मारा....

युवा की बात सुनकर साधु बाबा ने एक जोरदार ठहाका बुलंद किया और यह कहता हुआ वहाँ से विदा हो गया.....

तो ठाकुर जी  की क़सम मैंने श्राप कभी किसी को नहीं दिया लेकिन कोई है जो मुझ से प्रेम रखता है....
अगर उसका यार सहन नहीं कर सका तो मेरे यार को कैसे बर्दाश्त होगा कि कोई मुझे मारे और...
वह इतना शक्तिशाली है कि दुनिया का बड़े से बड़ा राजा भी उसकी लाठी से डरता है …

उस परमात्मा की लाठी दीख़ती नही और आवाज भी नही करती लेकिन पडती हैं तों बहुत दर्द देंती हैं
हमारें कर्म ही हमें उसकी लाठ़ी से बचातें हैं बस़ कर्म अच्छें होंने चाहिए.......


*🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*



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Saturday 26 January 2019

महाभारत के युद्ध के दौरान भोजन की व्यवस्था

* महाभारत के युद्ध को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध कह सकते हैं... क्योंकि, शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया..!!!

*इस युद्ध में आर्यावर्त के समस्त राजा या तो कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे..!!!

*सिर्फ बलराम और रुक्मी ही दो व्यक्ति ऐसे थे... जिन्होंने, इस युद्ध में भाग नहीं लिया था.

*कम से कम हम सभी तो यही जानते हैं...!!

*लेकिन, ये सिर्फ अर्धसत्य है क्योंकि इनके अलावा भी एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था

*और, वो राज्य था दक्षिण के "उडुपी" का राज्य.

*जब उडुपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे.

*परंतु, उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे।
*उन्होंने कृष्ण से पूछा -----
*"हे माधव !!
*दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है... किन्तु , क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा ???

*इस पर कृष्ण ने कहा -----* *महाराज !!!
*आपने बिलकुल उचित सोचा है.... और, आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है।

*अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।

*इसपर उडुपी नरेश ने कहा ---- "हे वासुदेव !!!
*ये सत्य है कि...!!
*भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।

*परंतु, ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।

*इस पर कृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा ------
*"महाराज !!!
*आपका विचार अति उत्तम है।
*इस युद्ध में लगभग 50,00,000 (50 लाख) योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।

*वैसे भी मुझे पता है कि... सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।

*लेकिन, भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि "आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार सँभालिये।

*इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार सँभाला।

*पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया।

*यह जानकर आपके आश्चर्य की सीमा नहीं रहेगी कि... उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।

*जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी।

*और, दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।

*किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।

*इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसपर भी इस प्रकार कि... अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।

*अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई।

*अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया कि....

*हे महाराज !!!
*समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे।

*परंतु, मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया।

*मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।

*इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा -----
*"सम्राट !!!
*आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ???

*इसपर युधिष्ठिर ने कहा -----
*"श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ??

*अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।

*तब उडुपी नरेश ने कहा -----
*"हे महाराज !!!
*आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है।
*ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।

*तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा --
*"हे महाराज!!!!
*श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में उबली हुई मूँगफली खाते थे।

*मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था... और, उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूँगफली खायी है।

*वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक 1000 गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे। अर्थात अगर वे 50 मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन 50,000 योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे।

*उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था।

*यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।

*श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए।

*ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है जो कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में आज भी ये कथा हमेशा सुनाई जाती है

*🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*



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Thursday 24 January 2019

प्रेम के वशआते है प्रभु

🌺"जय श्री कृष्ण "🌺
        
वृन्दावन में बिहारी जी की अनन्य भक्त थी । नाम था कांता बाई...

बिहारी जी को अपना लाला कहा करती थी उन्हें लाड दुलार से रखा करती और दिन रात उनकी सेवा में लीन रहती थी। क्या मजाल कि उनके लल्ला को जरा भी तकलीफ हो जाए।

एक दिन की बात है कांता बाई अपने लल्ला को विश्राम करवा कर खुद भी तनिक देर विश्राम करने लगी तभी उसे जोर से हिचकिया आने लगी...

और वो इतनी बेचैन हो गयी कि उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था। तभी कांता बाई कि पुत्री उसके घर पे आई, जिसका विवाह पास ही के गाँव में किया हुआ था तब कांता बाई की हिचकियां रुक गयी।

अच्छा महसूस करने लग गयी तो उसने अपनी पुत्री को सारा वृत्तांत सुनाया कि कैसे वो हिचकियो में बेचैन हो गयी।

तब पुत्री ने कहा कि माँ मैं तुम्हे सच्चे मन से याद कर रही थी उसी के कारण तुम्हे हिचकियां आ रही थीं और अब जब मैं आ गयी हूँ तो तुम्हारी हिचकिया भी बंद हो चुकी हैं।

कांता बाई हैरान रह गयी कि ऐसा भी भला होता है ? तब पुत्री ने कहा हाँ माँ ऐसा ही होता है, जब भी हम किसी अपने को मन से याद करते है तो हमारे अपने को हिचकियां आने लगती हैं।

तब कांता बाई ने सोचा कि मैं तो अपने ठाकुर को हर पल याद करती रहती हूँ यानी मेरे लल्ला को भी हिचकियां आती होंगी ??

हाय मेरा छोटा सा लल्ला हिचकियों में कितना बेचैन हो जाता होगा.! नहीं ऐसा नहीं होगा अब से मैं अपने लल्ला को जरा भी परेशान नहीं होने दूंगी और... उसी दिन से कांता बाई ने ठाकुर को याद करना छोड़ दिया।

अपने लल्ला को भी अपनी पुत्री को ही दे दिया सेवा करने के लिए। लेकिन कांता बाई ने एक पल के लिए भी अपने लल्ला को याद नहीं किया.। और ऐसा करते-करते हफ्ते बीत गए और फिर एक दिन...

जब कांता बाई सो रही थी तो साक्षात बांके बिहारी कांता बाई के सपने में आते है और कांता बाई के पैर पकड़ कर ख़ुशी के आंसू रोने लगते हैं.? कांता बाई फौरन जाग जाती है और उठ कर प्रणाम करते हुए रोने लगती है और कहती है कि...

प्रभु आप तो उन को भी नहीं मिल पाते जो समाधि लगाकर निरंतर आपका ध्यान करते रहते हैं। फिर मैं पापिन जिसने आपको याद भी करना छोड़ दिया है आप उसे दर्शन देने कैसे आ गए ??

तब बिहारी जी ने मुस्कुरा कर कहा- माँ, कोई भी मुझे याद करता है तो या तो उसके पीछे किसी वस्तु का स्वार्थ होता है। या फिर कोई साधू ही जब मुझे याद करता है तो उसके पीछे भी उसका मुक्ति पाने का स्वार्थ छिपा होता है।

लेकिन धन्य हो माँ तुम ऐसी पहली भक्त हो जिसने ये सोचकर मुझे याद करना छोड़ दिया कि कहीं मुझे हिचकियां आती होंगी। मेरी इतनी परवाह करने वाली माँ मैंने पहली बार देखी है।

तभी कांता बाई अपने मिटटी के शरीर को छोड़ कर अपने लल्ला में ही लीन हो जाती हैं।

इसलिए बंधुओ वो ठाकुर तुम्हारी भक्ति और चढ़ावे के भी भूखे नहीं हैं, वो तो केवल तुम्हारे प्रेम के भूखे है उनसे प्रेम करना सीखो।

उनसे केवल और केवल किशोरी जी ही प्रेम करना सिखा सकती है।

तो क्या बोलना है.?

🌹 *जय जय श्री राधे।।* 🌹
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Wednesday 23 January 2019

तुलसी सो नर चतुर है, राम भजन लवलीन।

सबसे कीमती धन है-समय। समय लगाने से धन मिल सकता है, पर धन लगाने से समय नहीं मिलता। अगर धन के बदले समय मिलता तो धनी आदमी नहीं मरते; क्योंकि पैसे देकर वे अपनी उम्र और बढ़ा लेते। परन्तु साठ वर्षों में जो धन कमाया है, उसके बदले साठ मिनट भी समय नहीं मिलता। ऐसे अमूल्य समयको भगवान्के भजन में और संसार की सेवामें लगाना चाहिये। नहीं तो समय सब चला जायगा और मिलेगा कुछ नहीं। जो भगवान्के भजन में समय लगाता है, वही चतुर आदमी है। दूसरे का धन लेने में तथा दूसरे का मन खींचने में तो वेश्या भी चतुर होती है l

                            तुलसी सो नर चतुर है, राम भजन लवलीन।
                            पर-धन पर-मन हरण को, वेश्या भी परवीन॥

विचार करें, आज दिन तक जितना समय चला गया, उसमें हमने आध्यात्मिक उन्नति कितनी की है ? इसमें लोग कलियुग को दोष देते हैं, पर वास्तव में  कलियुग उनके लिये खराब है, जो भजन नहीं करते। भजन करने वालों के लिये कलियुग बहुत लाभदायक है, बड़ा सुन्दर मौका है।

Saturday 19 January 2019

|| गीता की महिमा ||


🙏🏼🌹* श्रीकृष्ण *🌹🙏🏼


* श्रीज़गन्नाथपुरी में एक सरल हृदय के  सदाचारी ब्राह्मण सपरिवार रहते थे । उनको गीता से बड़ा प्रेम था, वह दिन-रात गीता का अध्ययन और मनन किया करते थे । अवश्य ही उनका  सकाम भाव अभी दूर नहीँ हुआ था, परन्तु थे वे बड़े विश्वासी ।

* एक दिन वे गीता के प्रत्येक शब्द का क्रियात्मक अर्थ देखना चाहते थे । पाठ करते समय जब उपर्युक्त श्लोकका "वहाम्यहम्" शब्द आया, तब ब्राह्मण सोचने लगे कि क्या भगवान् अपने भक्तके लिये आवश्यक वस्तुएँ स्वयं ढोकर उसके घर पहुँचा आते हैं; नहीं, नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता, भगवान् किसी दूसरे साधन से संग्रह करां देते होंगे। यह विचारकर ब्राह्यणने  "वहाम्यहम" का अर्थ ठीक न बैठते देख गीताके उक्त पद को काटकर उसकी जगह ऊपर "करोम्यहम" लिख दिया ।

* ब्राह्मण भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करते थे । भगवान की अपार माया है; एक दिन मूसलाधार वृष्टि होने लगी । ब्राह्मणदेवता उस दिन घर से न निकल सकने के कारण दिनभर सपरिवार भूखे ही रहे । दूसरे दिन वर्षा बन्द होने पर ब्राह्मण भीखके लिये चले । उनके घर से जाने के थोड़ी ही देर बाद एक खून से लथपथ अत्यन्त ही सुन्दर बालक ब्राह्मणके घर पर आकर ब्राह्मणी से बोला "पंडितजी महाराजने यह प्रसाद भेजा है।" ब्राह्मणी बालक के मनोहर बदन को देखकर और उसके मीठे वचन सुनकर मुग्ध हो गयी, परन्तु उसके शरीर से खून बहता देखकर 'उसे बहुत ही दुःख हुआ । उसने आँसू भरे नेत्रोंसे पूछा "तुमको किस निठुरने मारा है ?" बालक ने ब्राह्मणीके पतिका नाम लेकर कहा कि "मुझको ब्राह्मणदेवता ने मारा है ।"_*

* ब्राह्मणी तो अचरजमें डूब गयी; कहने लगी 'वह तो बड़े सीधे-सादे, अक्रोधी और परम भागवत हैँ; तुम-सरीखे नयनमनलुभावन बालक को वह क्यों मारने लगे ?' बालकने कहा 'मैं सच कहता हूँ माँ ! उन्होंने ही एक शूलसे मेरे बदनको काट डाला है, उन्होंने क्यों ऐसा किया, इस बात को तो वही जाने।'*

* इतना कहकर और प्रसाद रखकर बालक वहाँ से चल दिया; ब्राह्मणीको अन्यमनस्क होनेके कारण उसको जानेका पता नहीं लगा। वह कुछ भी न समझकर अति दुःखित चित्तसे स्वामीके घर आने की बाट देखने लगी । समय पर ब्राह्मण घर आये । ब्राह्मणीने विनयके साथ, किन्तु रोष और विषादभरे शब्दों में सारा वृत्तान्त ब्राह्मण को कह सुनाया ।

* पण्डितजी गृहिणी की बात सुनकर अवाक् हो गये । गीता के श्लोक पर हरताल की कलम फेरनेकी घटना को स्मरण कर वह व्याकुल हो उठे । उनकी आँखों से आँसुओँ की धारा बहने लगी । ब्राह्मण अब समझे कि सचमुच ही भगवान् अपने विश्वासी भक्तके लिये स्वयं सिरपर ढोकर आहारादि पहुँचाते हैं । गीता श्रीभगवान् का अंग हें । गीताका श्लोक काटने से भगवान् के शरीर पर चोट लगी है । ब्राह्मण अपनी करनीपर पश्चात्ताप करते-करते मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । भगवान् ने उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया । कुछ समय बाद उठकर वे भगवान् से  क्षमा-प्रार्थना करने लगे और भावविह्वल होकर गीताके चारों ओर "वहाम्यहम्" "वहाम्यहम्" लिखने लगे !*
(प्रेम-दर्शन पृ. ९०)

*नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार*

🙏🏼🌹 *श्री राधे* 🌹🙏🏼

Friday 18 January 2019

सोना चांदी नहीं भावनाओं का महत्व

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन बहुत ही अजीब सा विचार आया। वह हठ करने लगीं कि श्री कृष्ण जी को अपने गहनों से तोलेंगी। श्री कृष्ण जी को जब यह बात पता चली तो वे सत्यभामा से कुछ बोले नहीं बस मंद मंद मुस्कुराने लगे।
सत्यभामा अपने ढेर सारे जेवर ले आयीं। पलड़े के एक तरफ उन्होंने भगवान को बैठा दिया और दूसरी तरफ अपने जेवर रखने लगी। लेकिन पलड़ा अभी भगवान की तरफ ही झुका था।
सत्यभामा के पास जेवरों की कोई कमी तो थी नहीं वो जाकर और ढेर सारे जेवर ले आयीं लेकिन पलड़ा जरा भी नहीं हिला । सत्यभामा ने अपने सारे जेवर तराजू पर रख दिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अंत में वह थक कर बैठ गईं।
तभी वहाँ रुक्मणी जी का आगमन हुआ, सत्यभामा ने उन्हे सारी बात कह सुनाई। सत्यभामा की बात सुनकर तुरंत रुक्मणी जी पूजा का सामान ले आयीं। उन्होने भगवान की पूजा अर्चना की और उसके बाद में जिस पात्र में भगवान का चरणोंदक रखा होता है उसे गहनों वाले पलड़े पर रख दिया।
देखते ही देखते पलड़ा झुकने लगा और भगवान का पलड़ा ऊपर उठ गया। सत्यभामा हैरानी से सब कुछ देख रही थी। उसको समझ नहीं आ रहा था कि जो पलड़ा उनके इतने सारे गहनों से नहीं झुका वो एक हल्के से पात्र से कैसे झुक गया!
वे रुक्मणी जी से इसका कारण पूछने लगी। तभी नारद मुनि भ्रमण करते हुए वहाँ पहुँच गये। सत्यभामा की परेशानी समझ कर वे इसका कारण उन्हे बताने लगे। नारद जी बोले भगवान की पूजा में महत्व सोने चांदी के गहनों का नहीं होता बल्कि सच्ची भावना और श्रद्धा का होता है।
रुक्मणी जी ने अत्यंत प्रेम से भगवान का पूजन किया जिससे उनकी श्रद्धा और भक्ति की ताकत चरणोंदक में समा गई। जब रुक्मणी जी ने वह पात्र तराजू पर रखा तो उनकी भक्ति की ताकत से पलड़ा नीचे चला गया।

ईश्वर को सिर्फ सच्चे प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की भावना से ही पाया जा सकता है। सोने चांदी और रुपए पैसों का भगवान की नजर में कोई मोल नहीं होता। भगवान की पूजा यदि सही ढंग से की जाये तो ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है। सच्ची भक्ति और प्रेम के आगे ईश्वर भी झुक जाते हैं। सत्यभामा को उनकी बात समझ में आ गई थी।

*🙏🌺हरे कृष्ण🌺🙏*



(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)