Sunday 29 March 2020

भगवान विट्टलनाथ जी के परम भक्त संत तुकाराम जी !

⚘ जय श्री राधे  ⚘

तुकाराम जी भगवान विट्टलनाथ जी के परम भक्त थे उनका जन्म पूना जिले में हुआ था  उनके माता-पिता के बडे ही लाडले बेटे थे, पर अठारह वर्ष की आयु में इनके माता-पिता का स्वर्ग वास हो गया और कहते है कि भक्त जब भक्ति के मार्ग पर जाता है. तो परमात्मा सारे विघ्नों को हटा देते है

माता पिता के मरने के बाद इनके गाँव में ऐसा अकाल पडा कि इनकी पत्नि और बच्चे भूख से मर गए और तुकाराम जी उन्हें बचा नहीं सके, एक के बाद एक ऐसी विपत्तियाँ आई कि मन संसार से हट गया और परमात्मा में लगने लगा, और रहा बचा हुआ तो मन संसार में लगा था 

वो इनकी दूसरी पत्नी ने हटा दिया. इनका दूसरा विवाह जीजा बाई के साथ हुआ कहीं-कहीं ऐसा आता है कि जीजाबाई स्वभाव की कर्कसा थी और तुकाराम जी एकदम विरक्त थे चित्त सदा शांत रहता था और विट्टलनाथ जी का स्मरण करते थे और अपना जीवन व्यतीत करते थे पर ये बात जीजाबाई केा अच्छी नहीं लगती थी

संसार से वैराग्य

प्रसंग 1 - एक दिन तुकाराम जी के सपने में संत आए और तुकाराम जी को  “राम-कृष्ण-हरि विट्ठल"  का मंत्र दे दिया इसके बाद मानो वैराग्य और पक्का हो गया लेकिन अभी मोह संसार से था उनकी पत्नी इनका विरक्त स्वभाव अच्छा लगता नहीं है एक बार किसी बात को लेकर पत्नी ने गुस्से में आकर गन्ना तुकाराम जी की पीठ पर दे मारा, तो गन्ने के दो टूकडे हो गए
तो तुकाराम जी ने कहा - कि अच्छा हुआ जो तूने ही इसे बाँट दिया, उन्हें इस बात से वैराग्य हुआ, वास्तव में इस संसार में प्रीति रखने का काम नहीं और विरक्त हो गए और दिन रात विट्ठलनाथ जी भक्ति में डूब गए

 तो अंदर से प्रेरणा हुई कि कुछ लिखा जाए तो उन्होंनें  “अभग”  लिखे जिसमें वेद की वाणी, गीता, रामायण का सार था जिनको वह वाणी बड़ी अच्छी लगी. लोगों को उसमें जीवन में की सच्चाई दिखी, तो लोग बडी प्रशंसा करने लगे

जब उनकी कीर्ति फैलने लगी, जब अच्छा काम करो तो लोग आलोचना ना करें तो ऐसा तो हो ही नहीं सकतालेकिन तुकाराम जी का भाव तो यहीं था  कि परमात्मा ने जो वाणी मुझे दी है उससे ना सिर्फ मेरा बल्कि पूरी जनता का उद्धार हो।  वास्तव में एक संत का काम ऐसा ही होता है। वह केवल अपने लिए नहीं जीता v
उन्होंने सोचा लोगों को भी ये चीज पता चलनी चाहिए, तो लोक उद्धार के लिए उनके मन में कविता के रूप में वो अपने आप वाणी आ गई

तुकाराम जी का अभग लिखना

प्रसंग 2- जब एक बार अनंदी नामक ग्राम में थे और कीर्तन कर रहे थे, वहीं पर अभग सुना रहे थे वहीं पर रामेश्वर शास्त्री नामक के एक व्यक्ति ने देखा कि इनकी वाणी में श्रीमदभागवत, गीता और भागवत का सार है
ये वाणी तो साक्षात वेद की है और तुकाराम जी अपने मुख से गा रहे है,  तो वो गुस्से से तुकाराम जी के पास गए.
और बोले - कि तुम्हारी वाणी में तो वेदार्थ है, और तुम तो शूद्र हो, शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि शूद्र इसे नहीं पढ सकते है, वर्जित है। शूद्र के लिए तुम्हारी वाणी जो भी ये सुनेगा तो अधर्म हो जाएगा तुमसे ये किसने कहा कि तुम वेदवाणी कहो

तो तुकाराम जी बोले – भैया ! ये मेरी वाणी नहीं ये तो देववाणी है, और साक्षात पाडुंरगा स्वामी मेरे विट्ठल नाथ जी ने मुझे इसे कहने का आदेश दिया है, पर वो पंडित भी कहाँ शांत बैठने वाला था, क्योंकि जलन जब मन में आती है तो व्यक्ति बहुत निकृष्ट काम करता है यहीं उस रामेश्वर पंडित ने किया। 

वो चाहता था कि इनकी सारी रचनाँए जो इन्होने लिखी है, वो पानी में फेंक दी जाए इसलिए उसने गाव के मुखिया को भडकाया और कहा कि देखो ये तुकाराम शूद्र जाति का होके कितना अधर्म कर रहा है और सारे गाँव वालों को ही भडकाया

तो तुकाराम जी के अभग को नदी में पत्थर बाँधकर फेंक दिया ताकि अभग तैरकर ऊपर न आ सके, तुकाराम जी को बहुत दुखा हुआ और वे उसी इन्द्राणी नदी के किनारे एक पत्थर पर तेरह दिन तब बैठ रहे।  पर कुछ नहीं हुआ.

जब अभग पानी में तैरने लगे

एक फकीर के श्राप से रामेश्वर शास्त्री के बदन में बहुत दाह ताप हुआ बहुत प्रयत्न करने पर भी ताप शांत नहीं हुआ। और इधर तुकाराम जी के सपने में बिठठल नाथ जी आए और कहा - कि देखो नदी की तरफ, मैने तेरह दिन तक तुम्हारे अभग की रक्षा की है कल वो नदी में तैरेंगे. और यहीं स्वप्न विट्ठलनाथ ने पूरे गाँवों वालों को दिया

ये चमत्कार नहीं था बल्कि ये दृढ संकल्प था तुकाराम जी का, कि वो विनती जरूर सुनेंगे।  उनकी ही कृपा से मैने अभग लिखे, और काव्यों में उनको गाया। ये दृढ विश्वास ही परमात्मा तक पुहॅचा देता है। और अगले दिन जब सारे गाँव वाले नदी के किनारे पहुचे, तो देखा कि अभग पानी पर तैर रहा है

सबने वे अभग उठाए और देखा कि पानी की एक भी बूदॅ अभग पर नहीं है, बडे प्रसन्न हुए सारे लोग तुकाराम जी के चरणों में गिर पडे और बोले कि हमें माफ कर दो साक्षात परमात्मा ने हमें सपने में आकर दर्शन दिए

और वहाँ पर जब रामेश्वर पंडित का दाह शांत नहीं हुआ, तो भगवान ने उसे सपने में कहा - कि तुमने तुकाराम जैसे सतं का अपमान किया हैं संत तो संत होता है, उसकी कोई जाति नहीं होती है और तुकाराम जी तो बहुत बडे संत है वो चाहते तो ये ज्ञान अपने तक सीमित रखते पर उन्होंने इसे जनसाधारण में दिया और आपने उनका अपमान किया और सारे गाँव वालों को भडकाया इसीलिए आपकी यहीं सजा है, आपके सारे शरीर में दाह होती रहेगी। तो रामेश्वर जी बोले – प्रभु! मुझसे भूल हो गई क्षमा करो,

तो भगवान बोले - कि तुमने मेरा अपराध किया होता तो मैं क्षमा कर देता पर तुमने मेंरे भक्त का अपमान किया है अगर तुम तुकाराम जी की शरण में जाओगे वे तुम्हें माफ कर देंगे तो हम भी तुम्हें माफ कर देंगे

जब तुकाराम जी को ये समाचार मिला तो जो अभग उन्होंने लिखे थे उनमें से एक अभग लिखकर रामेश्वर जी के पास भिजवा दिया। और कहा कि आप की कोई गलती नहीं है और जब रामेश्वरजी ने वो अभग पडा तो पढते ही उनका दाह शांत हो गयाv

जब रामेश्वर जी वापिस देहू गाँव में आए तो तुकाराम जी से माफी मागने लगे और उनके कीर्तन में गाने लगेक्योंकि संत कभी किसी का बुरा नहीं करते करते है कि एक पल का सतसंग व्यक्ति का जीवन बना देता है

और एक पल का कुसंग व्यक्ति का जीवन बर्बाद कर देता है तो रामेश्वरजी तुकाराम जी की सभा में कीर्तन करने लगे और जिस फकीर ने रामेश्वर जी को श्राप दिया था उसे पता चला कि तुकाराम जी ने मेरा श्राप विफल कर दिया, तो वो गुस्से में तुकाराम जी के घर आ गया

अब देखने में वो फकीर थे, तो उस समय घर में तुकाराम जी की बेटी थी, तो उसने एक चुटकी आटा उनकी झोली में डाला तो वो लबालब भर गया और आटा गिरने लगा  जो ये चमत्कार देखा तो वो समझ गए कि ये केाई साधारण संत नहीं है, सिद्धि भी चली गई, इनके आगें कुछ नहीं कर सके, और ये भी तुकाराम जी के सान्ध्यि में आ गए और उनके साथ रहने लगे

जब तुकाराम जी में हुए विट्ठलनाथ जी के दर्शन

प्रसंग 3- जब ये एक बार अपने ननीहाल में गए तो वहा पर भी ये संकीर्तन करने लगें क्योंकि इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी तो जब सबने कहा - कि कीर्तन करो तो जब ये कीर्तन करने लगे दो युवक बाह्रमण थे, वो भी इनके कीर्तन में आ गए और देखने लगे कि यहाँ पर तो चाहे स्त्री हो, पूरूष, शूद् हो, चाहे कोई छोटा हो चाहे कोई बड़ा हो, कोई भी जाति हो, सब कुछ भूलकर इतनी विषमताओं को हटाकर सब इसका कीर्तन कर रहें है औह बाह्रमण भी इस शूद्र के साथ कीर्तन कर रहे है, और अपना धर्म च्युत कर रहे है

पर कोरी पंडिताई किस काम की जिसमें भक्तिी भाव ना हो, भगवान तो पंडिताई से नहीं भक्तिी से प्रसन्न होते हैअब तो उन दोंनों को बडा गुस्सा आया और वे दूत देवजी दादा जो गाँव के प्रमुख थे, के पास जाकर बोले - कि देखो ! कैसा समय आ गया लोगा अपने बाह्रमण धर्म को त्याग का एक शूद्र के चरणों में बैठे है जप कर रहे है 

आप इस अधर्म का नाश करो, तो दादू जी उनकी बात में आ गए कि तुम लोग सहीं कह रहे हो शूद्र कीर्तन करवा रहे है तो वहाँ पहुँच गए जहाँ तुकाराम जी कीर्तन कर रहे थे और उन्होंने देखा बूढे, बच्चे, और हर जाति के लोग एक साथ बैठे थे सब मस्त होकर भजन में तो दादू जी भी कीर्तन में बैठ गए और सोचा कीर्तन के बाद में देंखेंगे

तो भगवान की कृपा देखो जब दादू जी ने तुकाराम जी की ओर देखा तो सब भूल गए और जब बाद में उन दोंनों ने दादू जी से कहा कि आपने तुकाराम का कीर्तन बंद क्यों नहीं करवाया तो वो बोले - कि मुझे तो यहाँ पर केाई तुकाराम नहीं दिखा

मेंरे सामने तो साक्षात विट्ठलनाथ जी कीर्तन करवा रहे थे मैनें यहाँ तुकाराम को नहीं देखा मुझे तो लगा विट्ठल नाथ जी कीर्तन करवा रहे है और मैं उनकेा कैसे रोक सकता हूँ , और उन दोंनों को गाँव से निकाल दिया कि जिसके अंदर भक्तिी नहीं है

और तुकाराम जी से कहा - प्रभु ! आप धन्य हो, कि एक भक्त के रूप में आपने मुझे दर्शन दिए तो इस तरह तुकाराम जी ने अपने अभग से कीर्तन से करोडों लोगों का उद्धार किया और परमात्मा की ओर लगाया

धन्य है वे संत जो अपने साथ आने वाले सभी लोंगों को परमात्मा की ओर लगा देते है ऐेसे संतो के चरणों में हमारा कोटि केाटि नमन है

⚘ जय श्री राधे  ⚘


(साभार - श्री हरि मंदिर वृन्दावन)

Thursday 19 March 2020

प्रकृति का संविधान l

महाभारत का एक सार्थक प्रसंग जो अंतर्मन को छूता है !

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फटे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी !  

गिद्ध , कुत्ते , सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा "देवव्रत" (भीष्म पितामह) शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था -- अकेला !

तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची , "प्रणाम पितामह" !

भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी ,  बोले , " आओ देवकीनंदन !  स्वागत है तुम्हारा !!  

मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था" !!

कृष्ण बोले ,  "क्या कहूँ पितामह ! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप" !

भीष्म चुप रहे , कुछ क्षण बाद बोले," पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव ?  
उनका ध्यान रखना , परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है" !

कृष्ण चुप रहे !

भीष्म ने पुनः कहा , "कुछ पूछूँ केशव  ?  
बड़े अच्छे समय से आये हो !  
सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय " !!

कृष्ण बोले - कहिये न पितामह ! 

एक बात बताओ प्रभु !  तुम तो ईश्वर हो न ?

कृष्ण ने बीच में ही टोका ,  "नहीं पितामह ! मैं ईश्वर नहीं मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह , ईश्वर नहीं "

भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े !  बोले , " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण , सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा , पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया , अब तो ठगना छोड़ दे रे !! "

कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले . " कहिये पितामह !"

भीष्म बोले , "एक बात बताओ कन्हैया !  इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या  ?"

"किसकी ओर से पितामह ?  पांडवों की ओर से  ?"

" कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया !  पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था ?  आचार्य द्रोण का वध , दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार , दुःशासन की छाती का चीरा जाना , जयद्रथ के साथ हुआ छल , निहत्थे कर्ण का वध , सब ठीक था क्या  ?  यह सब उचित था क्या ?"

इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह  !  
इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया  !!  
उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम , उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन !! 

 मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह  !!

"अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण ?
अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है , पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है  !  
मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण !"

"तो सुनिए पितामह  !  
कुछ बुरा नहीं हुआ , कुछ अनैतिक नहीं हुआ  ! 
वही हुआ जो हो होना चाहिए !"

"यह तुम कह रहे हो केशव ?  
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है ?  यह छल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया ? "

"इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह , पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है ! 

हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है  !! 
राम त्रेता युग के नायक थे , मेरे भाग में द्वापर आया था !  
हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह  !!"

" नहीं समझ पाया कृष्ण ! तनिक समझाओ तो  !"

राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह !  
राम के युग में खलनायक भी ' रावण ' जैसा शिवभक्त होता था !!  
तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण जैसे सन्त हुआ करते थे !  
तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे !  
उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था !!
इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया ! 

किंतु मेरे युग के भाग में में कंस , जरासन्ध , दुर्योधन , दुःशासन , शकुनी , जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं  !! उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह ! पाप का अंत आवश्यक है पितामह , वह चाहे जिस विधि से हो !!

तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव ?  
क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा ?  
और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा ??

भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह  !  

कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा  !
वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा ... नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा  !  

जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ  सत्य एवं धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों,  तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह !  

तब महत्वपूर्ण होती है विजय , केवल विजय  ! 

 भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह  !!

क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव  ? 
और यदि धर्म का नाश होना ही है , तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है ?

सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह  ! 
ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता ..... !केवल मार्ग दर्शन करता है
सब मनुष्य को ही स्वयं  करना पड़ता है ! 

आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न  !  

तो बताइए न पितामह , मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या ?  
सब पांडवों को ही करना पड़ा न ? 
यही प्रकृति का संविधान है !  
युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से ! यही परम सत्य है  !!

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे ! 
उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी  ! 
उन्होंने कहा - चलो कृष्ण ! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है .... कल सम्भवतः चले जाना हो ... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण !

कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले , पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था !

जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ  सत्य और धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है ।।


*🙏|| जय श्री कृष्ण: ||🙏


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Monday 16 March 2020

भगवान श्री राम जी जन्म कथा ।


भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

भगवान श्री राम जी का जन्म कैसे हुआ ? रामचरितमानस अनुसार राम जन्म कथा -

भगवान राम ने कैसे अवतार लिया अथवा कैसे जन्म लिया ? कुछ लोग ऐसा सोचते है कि भगवान श्री रामचंद्र हमारे जैसे माँ के पेट से पैदा हुए और हमारे जैसे मानव (मनुष्य) थे। परन्तु वास्तविकता यह नहीं है।

भगवान श्री राम ने जन्म कैसे लिया इस बारे में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है, हम वही राम जन्म की कथा को आपको बतायेगें। तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड में लिखते है-

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥

भावार्थ:- दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए।

यहाँ पर ध्यान देने वाली बात है कि माँ कौसल्या जी के सामने चार भुजा धारण करके अस्त्र-शस्त्र लिए, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने भगवान प्रकट हुए। अर्थात भगवान माँ के पेट से तो नहीं पैदा हुए, यह बात स्पष्ट हो गयी। क्योंकि माँ के पेट से अस्त्र-शस्त्र दिव्य आभूषण और वनमाला पहने कोई भी बच्चा नहीं आता। आगे और स्पष्ट तुलसीदास जी लिखते है -

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥

भावार्थ:- दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित (भगवान का निराकार स्वरूप) बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।

यहाँ पर तुलसीदास जी लिखते है कि लक्ष्मीपति भगवान प्रकट हुए। इसका मतलब की विष्णु जी प्रकट हुए चार भुजा धारण करके अस्त्र-शस्त्र लिए, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥

भावार्थ:- वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)

यहाँ पर राम की माँ कौसल्या जी कहती है कि जिसके रोम-रोम में माया के ब्रह्माण्डों के समूह है वो मेरे गर्भ में है यह हँसी की बात है। फिर जब माँ को भगवान ने कहा कि माँ आपने पूर्व जन्म में वर मांगा था। तो मैं आपके पुत्र के रूप में प्रकट हो गया हूँ। परन्तु माँ कौसल्या जी कहती है कि मैंने तो आपको पुत्र रूप में वर माँगा था आप तो मेरे पिता के रूप में आ गये।

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥

भावार्थ:- माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया।

(तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते।

यहाँ पर और स्पष्ट हो जाता है कि भगवान पहले विष्णु रूप में प्रकट हुए फिर बाद में माँ कौसल्या के कहने पर भगवान विष्णु ने अपने आपको बालक रूप धारण कर के रोना शुरू कर दिया। अब यह स्पष्ट हो जाता है की भगवान राम माँ के पेट से नहीं पैदा हुए। भगवान विष्णु ने अपने आप को बालक (राम) स्वरूप बनाया और फिर रोना शुरू किया बालक की भाती।

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥

भावार्थ:- ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्‌, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)

इसका मतलब की भगवान का शरीर माया और उसके गुण (सत्‌, रज, तम) से नहीं बना है।

मनुष्य का शरीर माया से पंचतत्व या पंचमहाभूत - पृथ्वी, पानी, आकाश, अग्नि और वायु से बनता है। और मनुष्य बनने का कारण है कर्म बंधन। परन्तु भगवान कर्म बंधन में नहीं बधे है अतएव तुलसीदास जी लिखते है की राम का शरीर यह माया से (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा) नहीं बना है। भगवान का शरीर दिव्य है और भगवान अपनी इच्छा से ही अपना शरीर बनाते है।

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥

भावार्थ:- बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए।

।। जय श्री राम ।।

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

ऊधो मैया कूँ सुनाइयो ,तेरो लाला दुःख पावै ।

उद्धव जब मथुरा से गोकुल की ओर रवाना होने लगे तो कान्हा के ह्रदय में वह दृश्य उमड़कर आंखों तक आ गया और आंसुओं की झड़ी लग गयी ............

नंद बाबा चुपचाप रथ पर कान्हा के वस्त्राभूषणों की गठरी रख रहे थे। दूर ओसारे में मूर्ति की तरह शीश झुका कर खड़ी यशोदा को देख कर कहा- दुखी क्यों हो यशोदा, दूसरे की बस्तु पर अपना क्या अधिकार ?

यशोदा ने शीश उठा कर देखा नंद बाबा की ओर, उनकी आंखों में जल भर आया था। नंद निकट चले आये। यशोदा ने भारी स्वर से कहा - तो क्या कान्हा पर हमारा कोई अधिकार नहीं ? ग्यारह वर्षों तक हम असत्य से ही लिपट कर जीते रहे ?

नंद ने कहा- अधिकार क्यों नहीं, कन्हैया कहीं भी रहे, पर रहेगा तो हमारा ही लल्ला न ! पर उसपर हमसे ज्यादा देवकी वसुदेव का अधिकार है, और उन्हें अभी कन्हैया की आवश्यकता भी है।

यशोदा ने फिर कहा - तो क्या मेरे ममत्व का कोई मोल नहीं ?
नंद बाबा ने थके हुए स्वर में कहा - ममत्व का तो सचमुच कोई मोल नहीं होता यशोदा। पर देखो तो, कान्हा ने इन ग्यारह वर्षों में हमें क्या नहीं दिया है। उम्र के उत्तरार्ध में जब हमने संतान की आशा छोड़ दी थी, तब वह हमारे आंगन में आया। तुम्हें नहीं लगता कि इन ग्यारह वर्षों में हमने जैसा सुखी जीवन जिया है, वैसा कभी नहीं जी सके थे। दूसरे की वस्तु से और कितनी आशा करती हो यशोदा, एक न एक दिन तो वह अपनी बस्तु मांगेगा ही न ! कान्हा को जाने दो यशोदा।

यशोदा से अब खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, वे वहीं धरती पर बैठ गयी, कहा - आप मुझसे क्या त्यागने के लिए कह रहे हैं, यह आप नहीं समझ रहे।

नंद बाबा की आंखे भी भीग गयी थीं। उन्होंने हारे हुए स्वर में कहा - तुम देवकी को क्या दे रही हो यह मुझसे अधिक कौन समझ सकता है यशोदा ! आने वाले असंख्य युगों में किसी के पास तुम्हारे जैसा दूसरा उदाहरण नहीं होगा। यह जगत सदैव तुम्हारे त्याग के आगे नतमस्तक रहेगा।

यशोदा आँचल से मुह ढांप कर घर मे जानें लगीं तो नंद बाबा ने कहा - अब कन्हैया तो भेज दो यशोदा, देर हो रही है। यशोदा ने आँचल को मुह पर और तेजी से दबा लिया, और अस्पस्ट स्वर में कहा - एक बार उसे खिला तो लेने दीजिये, अब तो जा रहा है। कौन जाने फिर.........

नंद चुप हो गए।

यशोदा माखन की पूरी मटकी ले कर ही बैठी थीं , और भावावेश में कन्हैया की ओर एकटक देखते हुए उसी से निकाल निकाल कर खिला रही थी। कन्हैया ने कहा- एक बात पूछूं मइया ?

यशोदा ने जैसे आवेश में ही कहा- पूछो लल्ला।
तुम तो रोज मुझे माखन खाने पर डांटती थी मइया , फिर आज अपने ही हाथों क्यों खिला रही हो ?

यशोदा ने उत्तर देना चाहा पर मुह से स्वर न फुट सके। वह चुपचाप खिलाती रही। कान्हा ने पूछा - क्या सोच रही हो मइया ?

यशोदा ने अपने अश्रुओं को रोक कर कहा - सोच रही हूँ कि तुम चले जाओगे तो मेरी गैया कौन चरायेगा।

कान्हा ने कहा - तनिक मेरी सोचो मइया, वहां मुझे इस तरह माखन कौन खिलायेगा ? मुझसे तो माखन छिन ही जाएगा मइया। यशोदा ने कान्हा को चूम कर कहा- नहीं लल्ला , वहां तुम्हे देवकी रोज माखन खिलाएगी।

कन्हैया ने फिर कहा - पर तुम्हारी तरह प्रेम कौन करेगा मइया ?
अबकी यशोदा कृष्ण को स्वयं से लिपटा कर फफक पड़ी। मन ही मन कहा - यशोदा की तरह प्रेम तो सचमुच कोई नहीं कर सकेगा लल्ला , पर शायद इस प्रेम की आयु इतनी ही थी।

कृष्ण को रथ पर बैठा कर अक्रूर के संग नंद बाबा चले तो यशोदा ने कहा - तनिक सुनिए न , आपसे देवकी तो मिलेगी न ? उससे कह दीजियेगा, लल्ला तनिक नटखट है पर कभी मारेगी नहीं।

नंद बाबा ने मुह घुमा लिया। यशोदा ने फिर कहा - कहियेगा कि मैंने लल्ला को कभी दूभ से भी नहीं छुआ, हमेशा हृदय से ही लगा कर रखा है।

नंद बाबा ने रथ को हांक दिया। यशोदा ने पीछे से कहा - कह दीजियेगा कि लल्ला को माखन प्रिय है, उसको ताजा माखन खिलाती रहेगी। बासी माखन में कीड़े पड़ जाते हैं।

नंद बाबा की आंखे फिर भर रही थीं, उन्होंने घोड़े को तेज किया। यशोदा ने तनिक तेज स्वर में फिर कहा - कहियेगा कि बड़े कौर उसके गले मे अटक जाते हैं, उसे छोटे छोटे कौर ही खिलाएगी।

नंद बाबा ने घोड़े को जोर से हांक लगाई, रथ धूल उड़ाते हुए बढ़ चला।
यशोदा वहीं जमीन पर बैठ गयी और फफक कर कहा - कृष्ण से भी कहियेगा कि मुझे स्मरण रखेगा।

उधर रथ में बैठे कृष्ण ने मन ही मन कहा - तुम्हें यह जगत सदैव स्मरण रखेगा मइया। तुम्हारे बाद मेरे जीवन मे जीवन बचता कहाँ है ?

 लीलायें तो ब्रज में ही छूट जायेंगी...........

🙏|| जय श्री कृष्ण: ||🙏


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