Thursday 16 July 2020

भगवान कृष्ण की बाललीला ।



भगवान कृष्ण की बाललीला का एक दृष्टांत!!!

मैया कन्हैया को घर के अन्दर ले गयीं और बोली- क्यों रे लाला तने बाबा के पूजा घर में से भगवान् मुंह में धर लिये, कन्हैया बोले- मैया, वो रोज घी में नहाते है, शहद में नहाते है ना, इसलिये मैंने सोचा मीठे होंगे तो मैंने मुंह में धर लिये, मैया बोली- लाला अब ऐसा मत करना वरना कान पकड़ के मारूंगी।

ऐसो ऊधम मचावे, अब तू इतनौ छोटौ थोड़े ही है, मैया नै लाला को स्नान करायौ और बोली, स्नान करके भगवान् की पूजा में जाना चाहिये, बिना स्नान किये भीतर नहीं जाते, स्नान कराके पीताम्बर पहनायौ, आज लाला की कमर में करधनी बांधी, चरणों में नुपुर बांध दिये, मोर पंख माथे पर बांध्यो, जैसे ही नूपुर बांधे, मैया अंगुली पकड़कर लाला को चलाने लगी तो ये तो ठुमका मारकर नाचने लगे।

मैया बोली- हे भगवान् ये नाचना कब सीख लिया, लाला की मैया ताली बजाने लगी और भूल गयी, सब कुछ विस्मृत हो गयी, मैया बहुत प्रसन्न है, "नाचे नंदलाला नचावें हरि की मैया, यशोदा तेरे भाग की कही न जाय" 

आप जरा देखो सज्जनों- साक्षात् परब्रह्म, "जग जाकी गोद में, सो यशोदा की गोद में" दुनियां जिसके इशारे पर नाचती है, वो यशोदा के इशारे पर नाच रहा है- भाईयों ! थोड़े से छाछ व मक्खन के लिए गोपियां भगवान को नचां देती थी।

आपका ह्रदय ही सुंदर मंदिर है, ह्रदय रूपी मंदिर में परब्रह्म को नचाइयें, भाव से गायेंगे तो नाचेगा, यशोदाजी के भाव का दर्शन करें- लाला को कोई चीज अच्छी नहीं लगती, मैया कभी दुशाला ओढ़तीं है, गोविन्द नहीं ओढ़तें, क्यों ? क्योंकि उन्हें तो कारी कमरिया ही अच्छी लगती हैं, ऐसा सुन्दर गोपाल नृत्य करते हैं।

शेष, महेश, गणेश, दिनेश, सुरेश हुं जाहि निरन्तर ध्यावैं।
ताहि अखण्ड अनन्त अनादि अछेध, अवैध सुवेद बतावै।।
नारद से शुक व्यास रळें पचिहारि कोउ पुनि पार न पावै।
ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै।।

कृष्ण चरित्र में जो यश प्रदान करे उसे यशोदा कहते हैं, एक और बात- राधारानी की माता का नाम क्या है ? कीर्ति, और कृष्ण की माता का नाम है यशोदा, यदि आप व्याकरण के हिसाब से उसका शाब्दिक अर्थ देखें तो "कीर्तिः ददति इति कीर्तिदा" और "यशं ददति इति यशोदा" जो कीर्ति दे वो कीर्तिदा और जो यश देवे वो यशोदा, यश यानी कीर्ति और कीर्ति यानी यश।

राधा और कृष्ण दोनों की माताओं के नाम का अर्थ एक ही होता है, यदि लाला की लीलाओं में यशोदा यश प्रदान न करे तो गोविन्द को कौन जाने, गोविन्द को कौन पहचाने ? ऐसा सुन्दर चरित्र है कृष्ण का, मैया जब नृत्य करा रही लाला को, दो ढाई वर्ष के कृष्ण है, रूनक-झुनक पायल बज रही, आज एक गोपी ने गोविन्द को नृत्य करते हुए देख लिया।

उस गोपी का नाम है श्रुतिरूपा, वेद के मंत्र गोपी बनकर आऐं है, गोपी का मन रूपी मयूर नाचने लगा, दौड़ी-दौड़ी गोपियों की मण्डली में गयीं, गोपियां बोली- क्या बात है ? क्यों इतनी खुश हो रही हो ? गोपी बोली- मैंने आज विचित्र दृश्य देखा, आश्चर्य देखा, गोपियां बोली, क्या देखा ? बोली, गाय की धूल से धूसरित अंग वाला, वेदांत प्रतिपाध ब्रह्म आज यशोदा के आंगन में नाच रहा था।

श्रृणुसखि कौतुकमेकं नन्द निकेतांगणेमयादृष्टं।
गोधूलि धूसरितांगः नृत्यति वेदान्त सिद्धान्त।।

इस बात को सुनकर हजारों गोपियों के नैत्र नम हो गये और गोपियों ने मन में सोचा, हम गोविन्द का दर्शन कैसे करे ? यशोदा बड़ी भाग्यशाली है, जिसके आंगन में कृष्ण नाचता है, पर लाला का हम दर्शन कैसे करें ? अब सब विचार कर रही है, कैसे जायें दर्शन करने? सासूजी तो घर से जाने नहीं देती।

कोई-कोई सासूजी बड़ी खतरनाक होती है, स्वयं सब जगह चली जाती हैं, पर बहू को कहीं नहीं जाने देती, मैं तो हास्य-विनोद मैं कह रहा हूं, जो सास है वो बुरा न मानें।

देखे बिन कान्हा जब मन नाहिं माना,
इन आंखों से आज हमने ब्रह्म पहचाना है।
कृष्ण पद कमलों में मन को लगाना,
इन गोपियों का ताना ये उलाहना तो बहाना है।।

बहूओं ने सोचा कैसे भी कृष्ण का दर्शन करें, भले ही उलाहना के बहाने ही कृष्ण का दर्शन क्यों ना करना पड़े, कैसे करें ? सासूजी सवेरे गयीं शिव मंदिर शिवजी को जल चढ़ाने, नयी-नयी बहूओं ने घर की जितनी भी मटकीयां थी, सारी फोड़ दीं सासूजी आयीं - बहू, ये मटकी कैसी फूटी पड़ी है, बोली, माताजी ! नन्दजी के लाला आये और सारी मटकी फोड़कर चले गये।

सासूजी बोलो - अच्छा, वो नन्द के छोरा की इतनी हिम्मत की मेरे घर में आयकर मेरी मटकी फोड़कर चल्यो गयो, बहू, यदि मैं जाऊँगी तो बात ज्यादा बढ़ जायेगी, इसलिये तुम जाओ हमारी तरफ से यशोदा को उलाहना देकर आओ बड़ी खुशी की बात है, इस उलाहने के बहाने आज लाला के दर्शन तो हो जाऐंगे, इन गोपियों का ताना, ये उलाहना तो एक बहाना है।

🙏 ‼ वृन्दावन बिहारीलाल की जय ‼ 🙏

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रागु रोषु इरिषा मदु मोहु,

मानव जीवन को कैसे जिया जाए इसका संपूर्ण उदाहरण हिंदू धर्म के ग्रंथों में निहित है। जीवन को सुखमयी और सफल बनाने के लिए बहुत सी बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है। यदि मनुष्य जाने अनजाने में ही कोई ऐसा काम कर जाए, जो उसे नहीं करना चाहिए तो उसे उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है। कौन सी आदतें अच्छी हैं और कौन से काम करने से नुकसान ही होता है इसके बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस के एक दोहे से समझा जा सकता है। आइए जानते हैं इसके बारे में-

रागु रोषु इरिषा मदु मोहु, जनि जनि सपनेहुं इन्ह के बस होहु।
सकल प्रकार बिकार बिहाई, मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।

अर्थात- राग (अत्यधिक प्रेम), रोष (क्रोध), ईर्ष्या (जलन), मद (अहंकार) और मोह (लगाव)- इस पांच कामों से हमेशा नुकसान ही होता है, अतः इनसे सपने में भी दूर ही रहना चाहिए।
 
राग यानी अत्यधिक प्रेम
जीवन में किसी भी बात की अति बुरी होती है। किसी से भी अत्यधिक या हद से ज्यादा प्रेम करना गलत होता है। बहुत ज्यादा प्रेम की वजह से हम सही-गलत को नहीं पहचान पाते। कई बार बहुत अधिक प्रेम की वजह से मनुष्य अधर्म तक कर जाता है जैसे गुरु द्रोणाचार्य। गुरु द्रोणाचार्य जानते थे कि कौरव अधर्मी है, फिर भी अपने पुत्र अश्वत्थामा से बहुत अधिक प्रेम करने की वजह से वे जीवनभर अधर्म का साथ देते रहे। पुत्र से अत्यधिक प्रेम के कारण ही गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई थी। इसलिए किसी से भी ज्यादा मोह नहीं करना चाहिए।

रोष यानी क्रोध
क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। क्रोध में मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान नहीं कर पाता है। जिस व्यक्ति का स्वभाव गुस्से वाला होता है, वह बिना सोच-विचार किए किसी का भी बुरा कर सकता है। क्रोध की वजह से मनुष्य का स्वभाव दानव के समान हो जाता है। क्रोध में किए गए कामों की वजह से बाद में शर्मिदा होना पड़ता है और कई परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है। इसलिए इस आदत को छोड़ देना चाहिए।

ईर्ष्या यानी जलन
जो मनुष्य दूसरों के प्रति अपने मन में ईर्ष्या या जलन की भावना रखता है, वह निश्चित ही पापी, छल-कपट करने वाला, धोखा देने वाला होता है। वह दूसरों के नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। जलन की भावना रखने वाले के लिए सही-गलत के कोई पैमाने नहीं होते हैं जैसे दुर्योधन। दुर्योधन सभी पांडवों की वीरता और प्रसिद्धि से जलता था। इसी जलन की भावना की वजह से दुर्योधन ने जीवनभर पांडवों का बूरा करने की कोशिश की और अंत में अपने कुल का नाश कर दिया। अतः हमें ईष्या या जलन की भावना कभी अपने मन में नहीं आनी देनी चाहिए।

मद यानी अहंकार
सामाजिक जीवन में सभी के लिए कुछ सीमाएं होती हैं। हर व्यक्ति को उन सीमाओं का हमेशा पालन करना चाहिए, लेकिन अहंकारी व्यक्ति की कोई सीमा नहीं होती। अंहकार में मनुष्य को अच्छे-बुरे किसी का भी होश नहीं रहता है। अहंकार के कारण इंसान कभी दूसरों की सलाह नहीं मानता, अपनी गलती स्वीकार नहीं करता और दूसरों का सम्मान नहीं करता। ऐसा व्यक्ति अपने परिवार और दोस्तों को कष्ट पहुंचाने वाला होता है।
 
मोह यानी लगाव
सभी को किसी न किसी वस्तु या व्यक्ति से लगाव जरूर होता है। यह मनुष्य के स्वभाव में शामिल होता है, परंतु किसी भी वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह भी बर्बादी का कारण बन सकता है। किसे से भी बहुत ज्यादा लगाव होने पर भी व्यक्ति सही-गलत का फैसला नहीं कर पाता और उसके हर काम में उसका साथ देने लगता है। जिसकी वजह से कई बार नुकसान का भी सामना करना पड़ जाता है।
 

🚩जय श्री हरि 🚩
🚩जय श्रीराम 🚩

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)