Thursday 28 April 2022

"शरण्या" की व्याकुलता और कान्हा से मिलन”

 "शरण्या" की व्याकुलता और कान्हा से मिलन”

प्रथम भाग


दिन भर कान्हा के टैडी के साथ खेलना, उसके जैसी आवाज निकाल कर उनकी लीलाओं का घर में मंचन जब करती है तो पूरे घर को वृंदावन बना देती है वो। फिर उसकी लीला में हम दोनों नंद बाबा और यशोदा मैया स्वत: ही बन जाते हैं। श्रीदामा, मंशुका, श्रीधर, बलराम, मधुमंगल दूसरे टैडी बन जाते हैं। वो स्वयं बाल कृष्ण की दीदी है। 


यह जो मंचन है उसे वो हर पर जीती है। नाम उसका शरण्या है। शरण्या उसे कहते हैं जो भगवान के शरणागत है।


एकदिन गिरिराज परिक्रमा लगाने जाना हुआ तो वो इसलिए खुश थी कि वहाँ कृष्ण साक्षात मिलेंगे उसे। परिक्रमा में 12 किलोमीटर तक वह 4 साल की बच्ची केवल इसलिए पैदल चली है कि कहीं न कहीं कृष्ण से मुलाकात जरूर होगी।


अहा! कितना सुंदर भाव बालमन का। यही अंतर है बालक में और स्वयं को बडे समझने वालों में। तलहटी की परिक्रमा में श्रीनाथ जी का महल नुमा मंदिर पडा तो उसे देखकर बोली, पापा! शायद यही है कान्हा का घर। मुझे वहाँ ले चलो। वहाँ पहुंची तो भगवान के पट बंद थे। मंदिर में सफाई करते हुए लोगों से पूछा कि कान्हा जी सो रहे हैं? उन्होंने कहा," हां 5 बजे पट खुलेंगे।"


शरण्या थोडी निराश हुई। परिक्रमा में मेरे साथ आगे बढ तो गयी, पर निराशा का भाव चेहरे पर झलकने लगा। कहने लगी कि 5 बजे फिर से इसी जगह ले चलना पापा। मुझे कान्हा से मिलना है।


आगे बढती हुई परिक्रमा में मैं उसके इन प्रश्नों का उत्तर ठीक से दे ही नहीं पा रहा था। उसे किसी भी कीमत पर कान्हा से मिलना था और मैं असमंजस में था।


बचपन में मेरी मां कहा करतीं थीं कि गोवर्धन परिक्रमा में कान्हा परिक्रमा लगाने वालों को कहीं न कहीं किसी रूप में अवश्य दर्शन देते हैं। 


मुझे उनकी बात स्मरण हो आयी थी। मन ही मन कृष्ण से प्रार्थना की कि हे कृष्ण! तुम अंतर्यामी हो। बालक का विश्वास तुम्हारे प्रति दृढ़ है। बालक बडे होंगे तो पता नहीं कि बालक का मनोभाव कैसा हो!! इसलिए निश्छल निर्मल मन वाली शरण्या की तुम मनोकामना पूर्ण करो। कैसे भी दर्शन दो इसको।.. 


अब बारी कृष्ण की थी। भक्त ने तो अपनी व्यथा प्रकट कर ही दी है अब कृष्ण को आगे का काम करना है। आखिर तुमने ही तो गीता में वादा किया है ना.


"स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।"


जो तुम्हारी तरफ थोड़ा सा भी कदम बढ़ा दे कोई तो तुम उसकी तरफ स्वयं चले आते हो। 


बडी परिक्रमा पूरी हो चुकी थी तो शरण्या गोद में सो गयी थी। थोडा आराम करने के बाद राधाकुंड में उसकी नींद खुल गयी। नींद खुलते ही उसने पूछा कि 5 बज गये क्या? मैंने कहा अभी 7 बज रहे हैं। उसने कहा पापा मुझे कान्हा जी से मिलना है। मैंने उसको समझाने को कहा कि इतनी देर से कान्हा जी ही तो तुझे उठाकर परिक्रमा में चल रहे थे। तुझे उन्होंने जगाया लेकिन तू जागी नहीं। फिर उन्होंने अपनी गोद में ले लिया तुझको। ऐसा सुनते ही उसके होठों पर मुस्कान आने लगी। उसके हावभाव बदल चुके थे। कान्हा के बारे में तरह तरह के प्रश्न करने लगी। पापा ये बताओ कि वो कितने साल के बनकर आये थे?


वो अकेले आये थे या अपने सखाओं (friends) के साथ? उसके प्रश्नों के जैसे समझ आये वैसे उत्तर देते परिक्रमा आगे बढती रही। तभी उसने कहा मुझे रिक्शे पर बैठना है। एक रिक्शेवाले को रोका तो शरण्या रिक्शे में बैठ गयी। उसने शरण्या का नाम पूछा तो शरण्या ने अपना नाम बताया। वो शरण्या को देखकर बहुत खुश था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शरण्या को अपने रिक्शे में बिठाकर उसका आज का दिन सफल हो गया हो। मैंने अनायास ही उसका नाम पूछ लिया कि आपका नाम क्या है? रिक्शेवाले ने हंसते हुए उत्तर दिया कि मेरा नाम है "कान्हा" । और मैं शरण्या को रिक्शे पर ले चलने के लिए आया हूँ।


उसका उत्तर सुनते है मैं निशब्द हो गया। क्या अद्भुत लीला है प्रभु आपकी !


परिक्रमा में अक्सर रिक्शे वाले रिक्शे पर चढकर आगे बढते हैं। वो बची परिक्रमा में रिक्शे को पैदल खींचता रहा क्योंकि शरण्या से बात करता हुआ चल सके। शरण्या भी खूब बातें करती हुई चलती रही। उसे आनंद आ रहा था। 


दानघाटी पर परिक्रमा पूरी हुई तो शरण्या पर दुलार करके वो कुछ ही क्षणों में आंखों से ओझल हो गया। मैं निर्णय न कर सका कि वो कौन था!! बस विस्मय कर दिया था 'कान्हा' और उसके व्यवहार ने।


मैंने कान्हा को जो पुकार लगाई थी, शरण्या की उत्कंठा, मेरी माता जी का वह ध्रुव वाक्य कि " गोवर्धन परिक्रमा में कान्हा किसी न किसी रूप में दर्शन देते ही हैं ". ये सब बातें मन में घूमती रहीं। परिक्रमा के बाद शरण्या बहुत प्रशन्न थी। उसे साक्षात उसी रूप में दर्शन भले न हुए हों पर कृष्ण की उपस्थित का अहसास उसने अवश्य कर लिया था। 


द्वितीय भाग


फिर एक दिन वृंदावन जाना हुआ। शरण्या को लग रहा था कि कृष्ण मुझे गोवर्धन में नहीं मिले पर वृंदावन में जरुर मिल जाएंगे। बिहारी जी के दर्शन किए।  रंग मंदिर में उन दिनों ब्रह्मोत्सव चल रहा था। भगवान श्री विग्रह रूप में रथ की सवारी कर रहे हैं। विशाल मेला लगा हुआ हैं। रंग मंदिर की छटा ब्रह्मोत्सव में अनुपम थी। वृंदावन की परिक्रमा लगाई एवं श्री यमुना जी में नौका विहार किया। सब जगह शरण्या मेरे साथ होती। परन्तु उसकी उत्कंठा कृष्ण से साक्षात मिलने की थी। उसे विश्वास था कि वृंदावन में मुझे कृष्ण अवश्य मिलेंगे। वो बार बार पूछती जा रही थी कि पापा! कृष्ण कहां मिलेंगे। परिक्रमा मार्ग में दूर कहीं कुछ बालक गेंद खेलते हुए दिखाई दिए शरण्या ने कहा, पापा! शायद ये कृष्ण के सखा हैं एक बार इनसे ही पूछ लो ना!  मैं उसे बहलाता रहा।


परिक्रमा पूरी होने के बाद जब रंग मंदिर की तरफ हम आ रहे थे। तब तक शरण्या बहुत व्याकुल हो चुकी थी। अब उसने रास्ते में जोर से आवाज लगाना शुरू कर दिया।


ओ कान्हा......

राधा......

दाऊ भैया......


जब उसकी आवाज रास्ते में चलने वाले लोगों ने सुनी तो वे सब शरण्या को और उसकी व्याकुलता को अनुभव कर रहे थे।


अंततः शरण्या बहुत रोने लगी। तभी रंग मंदिर में सामने से आते हुए एक श्रीवैष्णवाचार्य के दर्शन हुए। उन्होंने रोते हुए बालक को देखकर ऐसे ही पूछ लिया कि क्या बात है बिटिया क्यों रो रही है?


तभी मैंने कहा कि स्वामीजी!  इसको कृष्ण से साक्षात मिलना है। बस इतना कहा, शरण्या पर उनका वात्सल्य बरस उठा। आचार्य ने शरण्या पर दुलार किया फिर कहा कि मैं कृष्ण से प्रार्थना करूंगा कि वे तुझे मिलने आयेंगे।


मेरे और शरण्या के गुरु जी एक ही हैं। शरण्या अपने गुरु जी के पास पहुंची तो स्वामीजी को प्रणाम किया। शरण्या को देखकर उनका ह्रदय भर आया।शरण्या शायद उनकी सबसे छोटी शिष्या है। अन्य शिष्य भी बैठे थे परन्तु शरण्या के प्रति उनकी स्नेहमयी कृपा सबसे अलग थी।


आखिर "गुरु कृपा" ही तो गोविंद से मिलने का मार्ग प्रशस्त करती हैयह पंक्ति ध्रुव सत्य है। शरण्या के परिपेक्ष्य में इसे अगले भाग में समझ जायेंगे। 


तृतीय भाग:- .. 


वृंदावन में कृष्ण से भेंट नहीं हो पायी। पर दिल्ली में उसकी व्याकुलता समाप्त नहीं हुई। 

मैं भी उसके दिन प्रतिदिन के उत्तर दे देकर अज्ञात भय से ग्रसित होने लगा था कि कहीं उसे ऐसा न लगने जाये कि कृष्ण कोई काल्पनिक हैं। तभी भगवान ने एक लीला की।


एक दिन हनुमान जयंती के उपलक्ष्य में सुंदरकांड पाठ का आयोजन होने जा रहा था। आयोजक महोदय (गोपाल जी) आमंत्रण स्वरूप एक पुस्तिका देकर गये और कहकर गये कि 'शरण्या' को अवश्य लेकर आना। मैंने कहा ठीक है। जिस दिन कार्यक्रम होने वाला था मैं उधर जाने के लिए घर से निकला ही था कि दरवाजे के बाहर शरण्या आयी और मुस्कुरा कर मधुर वाणी में बोली, पापा ! सुंदरकांड में बच्चे नहीं जा सकते क्या? वह सुंदरकांड इसलिए जानती है कि हमारी सोसायटी में प्रत्येक शनिवार को सुंदरकांड पाठ होता है।


अचानक मुझे ध्यान आया कि आयोजक महोदय शरण्या के लिए कहकर गये थे। मैंने कहा कि तैयार हो जाओ चलते हैं। शरण्या तैयार होकर अपने आ गयी साथ चलने को। सुंदरकांड पाठ आरंभ हो चुका था मैं भी साथ साथ पढने लगा। यूं तो बालक चंचल होते हैं पर उस दिन शरण्या काफी समय तक एक स्थान पर बिना शरारत के बैठी रही। शायद इसलिए कि मैंने कहा था कि शोर मत करना। वहाँ पूजा है।


पाठ के बाद अचानक माइक पर घोषणा हुई कि

 

"श्रीराधा कृष्ण की झांकी का थोडी ही देर में दर्शन करें।" 


तभी कान्हा और राधा के मनमोहक वेष में उत्कृष्ट कलाकार मंच की ओर आने लगे। उनकी सजावट ऐसी कि उनको देखकर लगा मानो साक्षात राधा कृष्ण ही आये हों। शरण्या की दृष्टि कृष्ण बने हुए कलाकार की ओर ज्यों ही पडी। वह छवि का दर्शन पाकर शरण्या अब स्तब्ध और आनंदित हो गयी।


स्वयं को बडे समझने वालों के लिए भले वो एक कलाकार हों पर "शरण्या के लिए तो वे साक्षात कृष्ण ही थे।"

एकटक निहारती रही उनको। फिर उछलने लगी कि कान्हा आ गये! कान्हा आ गये।


वे जब स्टेज पर विराजमान हो गये तो वह मुझे बार बार याद दिलाने लगी कि 'कान्हा' आ गये हैं पापा।

मैंने उससे कहा कि जा उनसे मिलकर आ।


और वह नन्हें कदमों से थोडा सकुचाई हुई स्टेज की ओर चल दी। जहाँ राधाकृष्ण बिराजमान थे।


आखिर कृष्ण के बिल्कुल निकट पहुंच ही गयी। किसी ने उसको रोका नहीं। बिल्कुल कान्हा के निकट जाकर खडी हो गयी। कुछ देर बाद कान्हा की आंखें शरण्या से मिलीं तभी शरण्या ने गले मिलने के लिए जैसे ही दोनों हाथ बढाये कान्हा ने अपने ह्रदय से लगा लिया। और अपनी गोद में बिठा लिया। जब तक झांकी चलती रही वह कान्हा की गोद में बैठी रही। वह ह्रदय से आनंदित हो रही थी। वह क्षण शरण्या के लिए अद्भुत था। प्रतीक्षा का अंत हुआ था आज।


और इस तरह उसकी "साधना" सिद्धि में बदल चुकी थी। 


अब तीन भागों में लिखी इस कहानी के भाव को समझें। कहानी तो शरण्या और कान्हा की है। 

परन्तु इसमें निहितार्थ गहरा है। 

अहंकार नहीं बल्कि शरणागति (शरण्या) से ही कान्हा मिलते हैं।


प्रत्येक साधक की भी यही कहानी है। 


ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्त में जब तक तीव्र उत्कंठा नहीं होगी तब तक वे उसे प्राप्त नहीं हो पायेंगे। यह पिपासा ही भगवद् दर्शन कराती है। हां वो मिलता है, जरूर मिलता है।


इसीलिए शायद उपनिषद भी यही उद्घोष करते हैं... 


"यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:!!"


वो उसी को मिलता है जो उसकी ह्रदय से उसकी चाह रखता है। 



(साभार -  श्री कृष्ण भारद्वाज)


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