Tuesday 30 June 2020

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना .....


सादर जय श्रीराम........ 🌺

एक बार गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को किसी ने बताया कि जगन्नाथजी में तो साक्षात् भगवान ही दर्शन देते हैं,बस फिर क्या था, सुनकर तुलसीदासजी महाराज तो बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्रीजगन्नाथपुरी को चल दिये।महिनों की कठिन और थका देने वाली यात्रा के उपरान्त जब वह जगन्नाथपुरी पहुँचे तो मन्दिर में भक्तों की भीड़ देखकर प्रसन्न मन से अन्दर प्रविष्ट हुये। जगन्नाथजी का दर्शन करते ही उन्हें बड़ा धक्का-सा लगा। वह निराश हो गये और विचार किया कि यह हस्तपादविहीन देव हमारे जगत् में सबसे सुन्दर नेत्रों को सुख देने वाले मेरे इष्ट श्रीराम नहीं हो सकते ।

इस प्रकार दु:खी मन से बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये।सोचा कि इतना दूर आना व्यर्थ हुआ।
 क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है ? कदापि नहीं।
         
रात्रि हो गयी, थके-मांदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था।अचानक एक आहट हुई,वे ध्यान से सुनने लगे ।
अरे बाबा !तुलसीदासजी बोले  कौन है ? एक बालक हाथों में थाली लिये पुकार रहा था। उन्होंने सोचा साथ आये लोगों में से शायद किसी ने पुजारियों को बता दिया होगा कि तुलसीदासजी भी दर्शन करने को आये है। इसलिये उन्होने प्रसाद भेज दिया होगा। वे उठते हुए बोले --'हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसीदास।

बालक ने कहा, 'अरे ! आप यहाँ हैं।मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ ।'
बालक ने कहा -'लीजिये, जगन्नाथजी ने आपके लिये प्रसाद भेजा है ।'

तुलसीदास बोले -- भैया कृपा करके इसे वापिस ले जायँ।
बालक ने कहा, आश्चर्य की बात है, 'जगन्नाथ का भात !सारा जगत पसारे हाथ' और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप अस्वीकार कर रहे है।

कारण? तुलसीदासजी बोले, 'अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता हूँ।फिर यह जगन्नाथजी का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ,यह मेरे किस काम का ? '

बालक ने मुस्कराते हुये कहा अरे, बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है। तुलसीदासजी बोले यह हस्तपादविहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता ।
         
बालक ने कहा कि फिर आपने-अपने श्रीरामचरितमानस में यह किस रूप का वर्णन किया है --

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

अब तुलसीदासजी की भाव-भंगिमा देखने लायक थी।नेत्रों में अश्रु-बिन्दु निकल रहे थे परन्तु , मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे ।
      
थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि मैं ही तुम्हारा राम हूँ। 
मेरे मन्दिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है।विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है ।कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना ।

तुलसीदासजी की स्थिति ऐसी कि रोमावली रोमांचित थी, नेत्रों से अश्रु अविरल बह रहे थे और शरीर की कोई सुध ही नहीं उन्होंने बड़े ही प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया ।

प्रातः मन्दिर में जब तुलसीदासजी दर्शन करने के लिए गये तब उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी के भव्य दर्शन हुये।

भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की।
जिस स्थान पर तुलसीदासजी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान तुलसी चौरा नाम से विख्यात हुआ ।


🙏|| जय श्री जगन्नाथपुरी ||🙏

प्रेम से भरी ओढ़नी



 
वृंदावन के पास एक गाँव में भोली-भाली माई ‘पंजीरी’ रहती थी।.
दूध बेच कर वह अपनी जीवन नैया चलाती थी। वह मदनमोहन जी की अनन्य भक्त थी।

ठाकुर मदनमोहन लाल भी उससे बहुत प्रसन्न रहते थे। वे उसे स्वप्न में दर्शन देते और उससे कभी कुछ खाने को माँगते, कभी कुछ। पंजीरी उसी दिन ही उन्हें वह चीज बनाकर भेंट करती,

वह उनकी दूध की सेवा नित्य करती थी, सबसे पहले उनके लिए प्रसाद निकालती, रोज उनके दर्शन करने जाती और दूध दे आती।

लेकिन गरीब पंजीरी को चढ़ावे के बाद बचे दूध से इतने पैसे भी नहीं मिलते थे कि दो वक्त का खाना भी खा पाये, अतः कभी कभी मंदिर जाते समय यमुना जी से थोड़ा सा जल दूध में मिला लेती।

फिर लौटकर अपने प्रभु की अराधना में मस्त होकर बाकी समय अपनी कुटिया में बाल गोपाल के भजन कीर्तन करके बिताती।

कृष्ण कन्हैया तो अपने भक्तों की टोह में रहते ही हैं, नित नई लीला करते हैं।

एक दिन पंजीरी के सुंदर जीवन क्रम में भी रोड़ा आ गया। जल के साथ-साथ एक छोटी सी मछली भी दूध में आ गई और मदनमोहन जी के चढ़ावे में चली गई।

दूध डालते समय मंदिर के गोसाईं की दृष्टि पड़ गई। गोसाईं जी को बहुत गुस्सा आया, उन्होंने दूध वापस कर दिया,

पंजीरी को खूब डाँटा फटकारा और मंदिर में उस का प्रवेश निषेध कर दिया।

पंजीरी पर तो आसमान टूट पड़ा। रोती-बिलखती घर पहुँची-ठाकुर; मुझसे बड़ा अपराध हो गया, क्षमा करो, पानी तो रोज मिलाती हूँ, तुमसे कहाँ छिपा है,

ना मिलाओ तो गुजारा कैसे हो ? और उस बेचारी मछली का भी क्या दोष ? उस पर तो तुम्हारी कृपा हुई तो तुम्हारे पास तक पहुँची।

लेकिन प्रभु, तुमने तो आज तक कोई आपत्ति नहीं की, प्रेम से दूध पीते रहे, फिर ये गोसाईं कौन होता है मुझे रोकने वाला।

और मुझे ज़्यादा दुख इसलिए है कि तुम्हारे मंदिर के गोसाईं ने मुझे इतनी खरी खोटी सुनाई और तुम कुछ नहीं बोले।

ठाकुर, यही मेरा अपराध है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुम अगर रूठे रहोगे, मेरा चढ़ावा स्वीकार नहीं करोगे तो मैं भी अन्न-जल ग्रहण नहीं करुंगी,

यहीं प्राण त्याग दूंगी। भूखी प्यासी, रोते रोते शाम हो गई।

तभी पंजीरी के कानों में एक मधुर कंठ सुनाई दिया- माई ओ माई, उठी तो दरवाजे पर देखा कि एक सुदर्शन किंतु थका-हारा सा एक किशोर कुटिया में झाँक रहा है।

कौन हो बेटा...???

मैया, बृजवासी ही हूँ, मदन मोहन के दर्शन करने आया हूँ। बड़ी भूख लगी है कुछ खाने का मिल जाए तो तुम्हारा बड़ा आभारी रहूँगा।

पंजीरी के शरीर में ममता की लहर दौड़ गई। कोई पूछने की बात है बेटा, घर तुम्हारा है।

ना जाने तुम कौन हो जिसने आते ही मुझ पर ऐसा जादू बिखेर दिया है।

बड़ी दूर से आए हो क्या ? क्या खाओगे ? अभी जल्दी से बना दूँगी।

अरे मैया, इस समय क्या रसोई बनाओगी, थोड़ा सा दूध दे दो वही पी कर सो जाउँगा।

दूध की बात सुनते ही पंजीरी की आँखें डबडबा आयीं, फिर अपने आप को सँभालते हुए बोली-

बेटा, दूध तो है पर सवेरे का है, जरा ठहरो अभी गैया को सहला कर थोड़ा ताजा दूध दुह लेती हूँ।

अरे नहीं मैया, उसमें समय लगेगा। सवेरे का भूखा प्यासा हूँ, दूध का नाम लेकर तूने मुझे अधीर बना दिया है,

अरे वही सुबह का दे दो, तुम बाद में दुहती रहना।

डबडबायी आँखों से बोली... थोड़ा पानी मिला हुआ दूध है।

अरे मैया तुम मुझे भूखा मारोगी क्या ? जल्दी से दूध छान कर दे दो वरना मैं यहीं प्राण छोड़ दूंगा।

पंजीरी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये बालक कैसी बात कर रहा है, दौड़ी-दौड़ी गई और झटपट दूध दे दिया।

दूध पीकर बालक का चेहरा खिल उठा।

मैया, कितना स्वादिष्ट दूध है। तू तो यूँ ही ना जाने क्या-क्या बहाने बना रही थी,

अब तो मेरी आँखों में नींद भर आई है, अब मैं सो रहा हूँ, इतना कहकर वो वहीं सो गया।

पंजीरी को फ़ुरसत हो गई तो दिन भर की थकान, दुख और अवसाद ने उसे फिर घेर लिया।

जाड़े के दिन थे ,भूखे पेट उसकी आँखों में नींद कहाँ से आती। जाडा़ बढ़ने लगा तो अपनी ओढ़नी बालक को ओढ़ा दी।

दूसरे प्रहर जो आँख लगी कि ठाकुर श्री मदन मोहन लाल जी को सम्मुख खड़ा पाया।

ठाकुर जी बोले, मैया, मुझे भूखा मारेगी क्या ? गोसाईं की बात का बुरा मान कर रूठ गयी।

खुद पेट में अन्न का एक दाना तक न डाला और मुझे दूध पीने को कह रही है।

मैंने तो आज तेरे घर आकर दूध पी लिया अब तू भी अपना व्रत तोड़ कर कुछ खा पी ले और देख,

मैं रोज़ तेरे दूध की प्रतीक्षा में व्याकुल रहता हूँ, मुझे उसी से तृप्ति मिलती है। अपना नियम कभी मत तोड़ना।

गोसाईं भी अब तेरे को कुछ ना कहेंगे। दूध में पानी मिलाती हो, तो क्या हुआ ? उससे तो दूध जल्दी हज़म हो जाता है। अब उठो और भोजन करो।

पंजीरी हड़बड़ाकर उठी, देखा कि बालक तो कुटिया में कहीं नहीं था।

सचमुच लाला ही कुटिया में पधारे थे। पंजीरी का रोम-रोम हर्षोल्लास का सागर बन गया।

झटपट दो टिक्कड़ बनाए और मदन मोहन को भोग लगाकर आनंदपूर्वक खाने लगी। उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी।

थोड़ी देर में सवेरा हो गया पंजीरी ने देखा कि ठाकुर जी उसकी ओढ़नी ले गये हैं और अपना पीतांबर कुटिया में ही छोड़ गए हैं।

इधर मंदिर के पट खुलते ही गोसाईं ने ठाकुर जी को देखा तो पाया की प्रभु एक फटी पुरानी सी ओढ़नी ओढ़े आनंद के सागर में डूबे हैं।

उसने सोचा कि प्रभु ने अवश्य फिर कोई लीला की है, लेकिन इसका रहस्य उसकी समझ से परे था।

लीला-उद्घाटन के लिए पंजीरी दूध और ठाकुर जी का पीताम्बर लेकर मंदिर के द्वार पर पहुँची और बोली,

गुसाईं जी, देखो तो लाला को, पीतांबर मेरे घर छोड़ आये और मेरी फटी ओढ़नी ले आये।

कल सवेरे आपने मुझे भगा दिया था, लेकिन भूखा प्यासा मेरा लाला दूध के लिये मेरी कुटिया पर आ गया।

गोसाईं जी पंजीरी के सामने बैठ गए।

भक्त और भगवान के बीच मैंने क्या कर डाला, भक्ति बंधन को ठेस पहुंचा कर मैंने कितना बड़ा अपराध कर डाला, माई, मुझे क्षमा कर दो।

पंजीरी बोली.. गुसाई जी, देखी तुमने लाला की चतुराई, अपना पीतांबर मेरी कुटिया मे जानबूझकर छोड़ दिया और मेरी फटी-चिथड़ी ओढ़नी उठा लाये।

भक्तों के सम्मान की रक्षा करना तो इनकी पुरानी आदत है।”

ठाकुर धीरे-धीरे मुस्कुरा रहे थे, अरे मैया तू क्या जाने कि तेरे प्रेम से भरी ओढ़नी ओड़ने में जो सुख है वो पीतांबर में कहाँ...

‼ प्रेम से कहो श्री राधे ‼

‼ वृन्दावन बिहारीलाल की जय ‼


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Sunday 28 June 2020

प्रार्थना: श्री मधुराष्टकम् ।



भगवान के परमप्रिय भक्त महाप्रभु श्री वल्भाचार्य को श्री मधुराष्टकम् रचना के लिये शत शत कोटि नमन।

श्री मधुराष्टकम् में श्रीकृष्ण के बालरूप को मधुरता से माधुरतम रूप का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग, गतिविधि एवं क्रिया-कलाप मधुर है, और उनके संयोग से अन्य सजीव और निर्जीव वस्तुएं भी मधुरता को प्राप्त कर लेती हैं।

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥1॥

(हे कृष्ण!) आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी आंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥1॥

वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥2॥

आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥2॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥3॥

आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाए हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं, आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है। ॥3॥

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥4॥

आपके गीत मधुर हैं, आपका पीना मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥4॥

करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥5॥

आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥5॥

गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥6॥

आपकी घुंघची मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥6॥

गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥7॥

आपकी गोपियां मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥7॥

गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥8॥

आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥8॥


|| संत भक्त भगवान की जय हो ||

  ✍☘💕

Tuesday 23 June 2020

🌸भगवान श्रीजगन्नाथ जी कथा 🌸




एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला. पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है।

रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले। तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी। वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया।

सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना। माता ने कथा सुनानी आरम्भ की, सुभद्रा द्वार पर तैनात थी, थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे, सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया। 

इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ। वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे। बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे।कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ, उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे। तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे। बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे।सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया. उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे।भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे।कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले, आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें। भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा।

कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई।

राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे। प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी। प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें। दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो। इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें। राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा। एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए। नीद में राजा ने एक सपना देखा, सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी। इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो। मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो। उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी। राजा नीद से जाग उठे, सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई।
राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ। वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ।

राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई, सभी इसमें योगदान देने पहुंचे। दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए, कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ।

सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी।राजा फिर से चिंतित होने लगे। एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए।राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं, मार्ग दिखाइए। आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे।

राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है, प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया, हे प्रभु मार्ग दिखाइए।

राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए। उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा। सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है, तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे। इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई, सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी, उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा।

भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया। प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले। उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति, वह चारों में सबसे कम उम्र के थे। प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई, प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें

पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले, कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया, वन भयावह था, विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे। उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी, प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे, जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था। विद्यापति संगीत के जान कार थे, उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी, यह संगीत उन्हें दिव्य लगा।संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले। वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए। पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे। विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे, सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी। अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे। बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था, बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे।

बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया। स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा। बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है, युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा। वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी। वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी। ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का, कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी। उन्हें जल पिलाया गया, विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे।

ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं।

विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था। ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें। जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें।

विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए।विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया, विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए।

विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके। वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे, उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे, ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया। विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे। अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए, ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की। इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया, विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले, विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया।

कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते, ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था।यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी। इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली, विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था। कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था। विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ। उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई, आखिर विश्वावसु जाता कहां है। एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा, ललिता यह सुनकर सहम गई। 

आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए ?

विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा। विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो। ललिता के सामने धर्म संकट आ गया, वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था।

ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं।

यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं, उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं, यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए। उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं।

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं। ललिता बोली- यह संभव नहीं, हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे।

विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी, वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे। आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें।

ललिता ने पिता से सारी बात कही,वह क्रोधित हो गए। ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं, आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा, इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा। विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए। वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले। विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले, विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए। गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए। विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी, उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा। हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया। विद्यापति आनंद मग्न हो गए, उन्होंने भगवान के दर्शन किए। दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे परंतु विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया। फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े।

लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा। विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा, वह टाल गए। यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं।

विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी। विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा। वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे दूसरी तरफ भील राजा और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था। विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे। फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता। इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता, उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया।

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है, वे उसे लेकर परेशान होंग। ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा। ललिता मान गई, विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया। अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे, उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया। उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली। शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया। उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी।

राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा। उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है, वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा। तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है, दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है।

राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना, उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा। स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था। सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए। दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे। मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ। और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका।

राजा का मन उदास हो गया। सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी, सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके, सुबह से रात हो गई।
अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया। उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है, राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे। राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही।

राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान का विग्रह बन जाएगा। बस एक काम करना होगा। भगवान श्री कृष्ण ने राजा को ऐसा क्या संकेत दे दिया था कि उसकी सारी परेशानी समाप्त हो गयी?

राजा इंद्रध्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा।

राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी। बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा।
राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे। राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया, दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे। इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले, वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है। विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी, विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए। ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी। पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे। उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ। 
अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले। वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे।

विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले। विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे, जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे, फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे, उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी। उसी समय एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है। यह सुन कर सब चौंक उठे, विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे।

राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं, उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया, यह सुन कर सब चौंक उठे।

विश्वावसु ने राजा को आसन दिया। राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा। फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई।

राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं। भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए।

ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं। अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो। उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा।
विश्वावसु राजी हो गए। राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे। विश्वावसु ने कुंदे को छुआ, छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा, राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया।

अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा। मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं।

एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए। उसी समय वहां एक बूढा आया, उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें। इस दैवयोग का यही संकेत है।

राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं। मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा, पर मेरी एक शर्त है। राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी।

बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा और  मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा। कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा, इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए।

राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं।

राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया। भीतर से आवाजें आती थीं। महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं। महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं। 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई, जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं। उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो। व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा।

महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्ति कार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था। मूर्ति कार अभी मूर्तियां बना रहा था, परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए। मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था, हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था।

वृद्ध शिल्प कार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे। उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं, उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया।

कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी। विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था। ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थ।विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करते है।

रथ यात्रा का रहस्य

द्वारिका में सुभुद्राजी ने अपने भाई भगवान कृष्ण और बलदाऊजी से नगर भ्रमण कराने का अनुरोध किया। तब वह दोनों अपने बीच में अलग रथ में सुभुद्राजी को बैठा कर नगर भ्रमण को ले गए। इसी स्मृति स्वरूप यह रथयात्रा निकाली जाती है।

जगन्नाथ तीर्थ क्षेत्रः पुरी

आपको संभवत जानकारी न हो तो बताते चलें कि भगवान कृष्ण की बाल्य लीलाओं का क्षेत्र वृन्दावन, किशोरावस्था का क्षेत्र मथुरा और युवावस्था से अंत तक का कर्म क्षेत्र द्वारिका में रहा और उनके देह परित्याग के पश्चात् का स्वरुप भगवान जगन्नाथ है। पुरूषोत्तम क्षेत्र के पुरी के विशाल और भव्य मंदिर के मूल गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ अपने अग्रज बलदाऊजी एवं बहिन सुभुद्रा के साथ विराजमान है। विशालकाय परिसर में बने मंदिर का भव्य प्रवेश द्वार है फिर ऊंचाई पर मंदिर है। भोगशाला, अर्द्ध मण्डप, मण्डपम के उपरांत गर्भगृह में आदमकद भगवान के काष्ठ से बने दिव्य विग्रह विराजमान है।

परिसर में श्री गणेशजी, बलदाऊजी की पत्नी, श्री दुर्गा, श्री लक्षमीजी, सूर्य और चंद्रमा की प्रतिमाऐं आसीन है। मंदिर के प्रथम तल पर श्री नृसिंह भगवान आसीन है। भगवान जगन्नाथ की नित्य पूजा अर्चना के साथ कई बार भोग लगता है। इसके लिए आधे नगर के बराबर रसोई है जिसमें तरह तरह के पकवान बनते रहते है और रोज हजारों परिवार और तीर्थयात्री यही प्रसाद ग्रहण करते है। रसोई में रोज मिटटी के नए बर्तन और एक कूप का पानी ही उपयोग में लाया जाता। यह रसोई अपने आप में अजूबा है। भगवान जगन्नाथ को विशेष मुहूर्त में नहलाया जाता है। स्नान के बाद बह बीमार न हो जाए इसके पट बंद कर दिए जाते है। कुछ समय के लिए मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते है।

तब भगवान अलारनाथ के मंदिर में स्थित श्री विग्रह के दर्शन की मान्यता है। प्रति वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का उत्सव मनाया जाता है। विशालकाय रथ में सवार भगवान अपनी बहिन और भाई के साथ तीन किमी दूर स्थित अपनी मांसी के घर गुलीचा मंदिर में रहने जाते है।

पुरी में आचार्य शंकर द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है। पुरी सुंदर शहर है। समुद्र का सुंदर बीच यहां है। शंकराचार्य पीठ द्वारा नित्य सांय समुद्र की आरती की जाती है। कहा जाता है कि हजारो वर्षो मे सुनामी आंधी तूफानों में यहां समुद्र ने  कभी अपनी सीमा या मर्यादा नहीं तोडी।

🙏|| जय श्री जगन्नाथपुरी ||🙏


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Sunday 14 June 2020

श्रीराधे जी के प्रश्न




“कान्हा जी...वाही धुन बजाइए न...जो आपने कालिया नाग पर विजय के बाद उस पर नृत्य करते हर बजाई थी...मुझे वो धुन ना... सच्ची बहुत पसंद है...” श्रीराधे ने कृष्णा जी से आग्रह किया...

कृष्णा ने अपनी पसंदीदा धुन मुरली पर बजाना प्रारंभ कर दिया...वो धुन जिसमे संपूर्ण ब्रह्माण्ड को मोहित करने की सामर्थ्य है...

यदपि सूर्य देव तो कुछ समय पूर्व ही अस्त हो चुके हैं...लेकिन आकाश में उनकी लालिमा अभी भी शेष है...चिड़ियाँ भी वन को प्रस्थान कर चुकी हैं...और अब तो यमुना जी भी कृष्ण की मुरली के लय के साथ-साथ बहने लगीं...और कुछ ही समय में वृक्षों के पत्ते, बगिया के फूल, आकाश के तारे और स्वयं श्रीराधे कृष्णा की धुन पर नृत्य करने लगे...
राधारानी सब कुछ भूल कर कृष्णा के संगीत में आत्मसात हो गयीं...वो कान्हा के जादू में पूरी तरह खो गयीं...और अपने आप को उन्होंने कृष्णा प्रेम से परिपूर्ण पाया...

नाचते-नाचते वो अचानक बेहोश होकर गिर गयीं...और जब वे जागीं ...तो वहां कुछ भी नहीं था... ना कोई धुन, ना मुरली, ना वृक्ष, ना तारे और ना ही यमुना नदी...वहां पर ना ही कृष्णा ही थे, ना संगीत, ना कोई जादू...और ना हे परिपूर्ण प्रेम...

राधे ने काले आकाश की और देख कर कहा, “हे कान्हा जी...आप मुझे अपने साथ ब्याह कर क्यूँ नहीं ले गए ???... आखिर क्यूँ ?...क्या आप मुझसे प्रेम नहीं करते...?”

कुछ देर के गहरे सन्नाटे के बाद... अचानक ही कृष्णा जी राधे के सम्मुख प्रगट हो गए... “मैंने वादा किया था राधे...जब भी मुझे याद करोगी...मुझे अपने सामने पाओगी ...”

“मुझे अपने सवालों के ज़वाब चाहिए ...कान्हा जी...”श्री राधे ने अश्रु भरे नैनो से कहा...

कृष्णा ने राधे के कमल जैसे हाथो को पकड़ा....और सात सालों बाद भी वोही जादुई स्पर्श महसूस किया...

और फिर उन्होंने बोलना प्रारंभ किया... “प्रेम करने और विवाह करने में बहुत अंतर है...राधे...इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं...”

श्रीराधे ने ये वचन पहले कभी नहीं सुने थे...वो बहुत आश्चर्य चकित होकर बोली, “ये क्या कहते हो सांवरे??? ...जिस से हम प्रेम करते हैं...उसी से तो विवाह भी करते हैं ना ???”

कृष्णा ने एक मधुर मुस्कान दी और बोले, “मेरा भरोसा करो ...राधे...प्रेम तो केवल एक मार्ग है...एक पथ है...त्याग का पथ, आज़ादी का पथ, प्रतीक्षा का पथ, तेज़ धडकनों का पथ, जुदाई का पथ...प्रेम की कोई मंजिल नहीं होती...राधे...

जबकि विवाह की तो शुरुआत ही होती है...एक नए मुकाम के साथ...विवाह कोई पथ नहीं...एक मंजिल है...इसमें त्याग नहीं स्वार्थ है...एक दूसरे के साथ का...इसमें आज़ादी नहीं बंधन है...आपस का....इसमें इंतज़ार नहीं अधिकार है...इसमें ना तो आँखों का मिलना ही है...ना ही दिलो का तेज़ धडकना...और फिर इसमें विरह का आनंद भी तो नहीं है...राधे...”

“कभी न ख़त्म होने वाली राह?...त्याग? इंतज़ार?...विरह?...इनमे कैसा आनंद कान्हा जी?...जब हमारा प्रियतम हमारे साथ ही ना हो ...???” श्रीराधे ने बड़ा विस्मित होकर पूंछा...

कृष्णा फिर शुरू हुए... “मै हजारों विवाह कर चूका हूँ राधे...लेकिन तुम्हारे वियोग का अहसास उनके साथ के अहसास से कहीं उपर है ...हम केवल उन्हें ही याद करते हैं...जो हमारे साथ नहीं हैं...हमें बस उसी का इंतज़ार रहता है...जो हमारे पास नहीं है...हम बस राह तक ही चलते हैं...और मंजिल पर जाकर रूक जाते हैं...प्रेम तो इंतज़ार की राह पर जीवित रहता है...राधे...विवाह की मंजिल तो उस यात्रा को रोक ही देती है...”

श्रीराधे एकटक होकर कान्हा की गहरी आँखों में देखे जा रही थीं...क्यूंकि उन्होंने कभी वियोग के इस पहलू पर विचार तक नहीं किया था...कृष्णा उन्हें प्रेम और जीवन का नया ही दृष्टिकोण दिखा रहे थे...

कृष्णा ने फिर समझाया... “खेल का आनंद ...खेल के समाप्त होने तक ही रहता है...त्योहारों का आनंद उनके इंतज़ार मे ही है...खुद हे सोचो राधे... दीवाली का आनंद उसकी तैयारी करने और दीप जलाने में आता है...या फिर उसका पूरा होने पर...रासलीला की तैयारी और उसके होने के आनंद में हमें जो आनंद आता था...वो उसके पूरा होने के बाद कहाँ आता था...?

राधे...मैंने तुमसे विवाह ना करके कुछ भी गलत नहीं किया है...मैंने तुमे धोखा नहीं दिया है...मैंने तुमारा दिल भी नहीं तोड़ा है...मैंने तो हमारे प्रेम को हमारी आँखों के इंतज़ार में सदैव के लिए अमर कर दिया है...तुमसे दूर होकर हमेशा के लिए हमारे प्रेम को शाश्वत कर दिया है...”

चिड़िया और गौओं की आवाज़ ने राधे का ध्यान तोडा...यमुना पार से सूरज निकल रहा है...रात्रि बीत चुकी है...कृष्णा अद्दृश्य हो चुके हैं...और अब राधे के हृदय में कोई प्रश्न शेष नहीं....


⚘जय श्री राधे ⚘

(साभार - श्री हरि मंदिर  वृन्दावन)


तोय मुदरि उस पार किये .......



हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है क्यों?

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥

मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥ 

 मित्रो! हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है। हनुमानजी ने अपने नाम को छुपा लिया हम अपना प्रकट  करने के लिये लालायित है, सज्जनों! कई लोग तो पत्थर पर खुदवा के जायेंगे, भले ही हम दुनिया से चले जायें लेकिन हमारा नाम रहना चाहियें, काम दिखाई दे न दे उसकी चिंता नहीं है, लेकिन नाम दिखाई देना चाहियें इसकी चिंता है, हनुमानजी का जगत में काम दिखाई देता है लेकिन हनुमानजी का कोई नाम नहीं पता लगा पाया।

एक तो हनुमानजी ने अपना नाम छिपाया और दूसरा रूप, भाईयों! आपको तो मालूम है कि कुरूप कोई होता है तो बन्दर होता है, और इसके पीछे भी कारण होगा, हनुमानजी चाहते हैं कि लोग मुझे देख कर मुंह फेर ले, मैरे प्रभु का सब लोग दर्शन कर ले, मैरे प्रभु सुन्दर लगें, मै तो बन्दर ही ठीक हूँ।

हम सब अपने नाम, रूप व यश के लिए रोते हैं, आप किसी भी परिवार में जाइये, कोई न कोई यह शिकायत करते मिलेगा कि हम कितना भी कर दे, कितनी भी मेहनत करें, कितना भी काम कर दे, सबके लिए कितना भी कर दे, लेकिन हमें हमेशा अपयश ही मिलता है, हमको केवल बुराई ही बुराई मिलती है,सारा रोना यश का है।

हनुमानजी हर घर में भगवान रामजी का यश चाहते हैं, जब लंका में हनुमानजी जानकीजी के पास बैठे थे और जानकी माँ स्वयं रो रही थीं तब हनुमानजी ने कहा माँ वैसे तो मैं आपको अभी ले जा सकता था, परन्तु मैं चाहता हूँ कि सारा जगत्, तीनों लोक मैरे प्रभु का यशगान करें, और बन्धुओं ! जो यश का त्याग कर देता है, उनका यश हमेशा भगवान गाते हैं।

अबहि मातु मैं जाऊँ लैवाई, प्रभु आयसु नहिं राम दुहाई।
कछुक दिवस जननी धरू धीरा, कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि ले जैहहिं, तिहुँ पुर नारदादि जस गैहहिं।।

भगवान् श्री भरतजी से कहते हैं कि रघुवंश की इकहत्तर पीढियाँ भी हनुमान की सेवा में लग जायेंगी, तो भी हे भरत! रघुवंशी हनुमान के इस ऋण से उऋण नहीं होंगे, भगवान कहते हैं कि हनुमान अगर तूने अपना यश त्याग दिया तो मेरा आशीर्वाद है तेरा यश केवल मैं ही नहीं अपितु, "सहस बदन तुम्हरो जस गांवैं" हजारों मुखों से शेषनाग भी जिनका यश का गुणगान करते हैं।

महावीर विनवउँ हनुमाना, राम जासु जस आपु बखाना।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई, बार बार प्रभु निज मुख गाई।।

श्री हनुमानजी को देखो यश से कितनी दूर है, मनुष्य जरा सा भी काम करता है, उसको भी छपवाना चाहता है, हनुमानजी कितना बडा काम करके आयें तो भी छुपाते रहे, सज्जनों! आपने वो घटना सुनी होगी कि वानरों के बीच में भगवान् बैठे हैं तो भगवान् चाहते हैं कि हनुमानजी के गुण वानरों के सामने आयें, भगवान् बोले हनुमान 400 कोस का सागर कोई वानर पार नहीं कर पाया मैंने सुना तुम बडे आराम से पार करके चले गयें ? 

हनुमानजी ने कहा महाराज बन्दर की क्या क्षमता थी, "शाखा से शाखा पर जाई" बन्दर तो इस टहनी से उस टहनी पर उछल कूद करता है यह तो प्रभु आपकी कृपा से हुआ, 

"प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लागिं गये अचरज नाही" 

हनुमानजी बोले भगवान् से "तोय मुद्रिका उस पार किये" यह आपकी मुद्रिका थी जिस के कारण मैं सागर पार कर गया।

भगवान् ने कहा अच्छा मैरी मुद्रिका से सागर पार किया परन्तु मुद्रिका तो आप जानकीजी को दे आये थे, लेकिन जब लोट कर आये तो सागर सिकुड गया था या छोटा हो गया था ? हनुमानजी बोले सागर तो उतना ही रहा, भगवान ने पूछा जब तुम मेरी मुद्रिका से सागर पार गये और लोटते समय मुद्रिका तुम्हारे पास थी नही तो तुम इस पार कैसे आयें

हनुमानजी ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया कि 

"तोय मुदरि उस पार किये और चूडामणि इस पार" 

आपकी कृपा ने तो माँ के चरणों  तक पहुंचा दिया और माँ के आशीर्वाद ने आपके चरणों तक पहुंचा दिया, भाई-बहनों ! ऐसे है हमारे हनुमानजी महाराज, न नाम चाहिये न यश चाहियें।

🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏

Thursday 4 June 2020

करमा रो खिचड़ो



भगवान श्री जगन्नाथ (पुरी)

राजस्थान के मारवाड़ इलाके का एक जिला है नागौर। नागौर जिले में एक छोटा सा शहर है... "मकराणा"।

मारवाड़ का एक सुप्रसिद्ध भजन है ....

थाळी भरकर ल्याई रै खीचड़ो, ऊपर घी री बाटकी...
जिमों म्हारा श्याम धणी, जिमावै करमा बेटी जाट की...
बापू म्हारो तीर्थ गयो है, ना जाणै कद आवैलो...
उण़क भरो़स बैठ्यो बैठ्यो, भुखो ही मर जावलो।
आज जिमाऊं त़न खिचड़ो, का़ल राबड़ी छाछ री...
जिमों म्हारा श्याम धणी, जिमावै बेटी जाट री...

मकराणा तहसील में एक गांव है कालवा .... कालूराम जी डूडी (जाट) के नाम पे इस गांव का नामकरण हुआ है कालवा।कालवा में एक जीवणराम जी डूडी (जाट) हुए थे, भगवान कृष्ण के भक्त।

जीवणराम जी की काफी मन्नतों के बाद भगवान के आशीर्वाद से उनकी पत्नी रत्नी देवी की कोख से वर्ष 1615 AD में एक पुत्री का जन्म हुआ नाम रखा.... "करमा"।

करमा का लालन-पालन बाल्यकाल से ही धार्मिक परिवेश में हुआ .... माता पिता दोनों भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे।घर में ठाकुर जी की मूर्ति थी जिसमें रोज़ भोग लगता भजन-कीर्तन होता था।

करमा जब 13 वर्ष की हुई तब उसके माता-पिता कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए समीप ही पुष्कर जी गए .... करमा को साथ इसलिए नहीं ले गए कि घर की देखभाल, गाय भैंस को दुहना निरना कौन करेगा। रोज़ प्रातः ठाकुर जी के भोग लगाने की ज़िम्मेदारी भी करमा को दी गयी।

अगले दिन प्रातः नन्हीं करमा बाईसा ने ठाकुर जी को भोग लगाने हेतु खीचड़ा बनाया (बाजरे से बना मारवाड़ का एक शानदार व्यंजन) और उसमें खूब सारा गुड़ व घी डाल के ठाकुर जी के आगे भोग हेतु रखा।

करमा;- ल्यो ठाकुर जी आप भोग लगाओ तब तक म्हें घर रो काम करूँ...

करमा घर का काम करने लगी व बीच बीच में आ के चेक करने लगी कि ठाकुर जी ने भोग लगाया या नहीं, लेकिन खीचड़ा जस का तस पड़ा रहा दोपहर हो गयी।
करमा को लगा खीचड़े में कोई कमी रह गयी होगी वो बार बार खीचड़े में घी व गुड़ डालने लगी।
दोपहर को करमा बाईसा ने व्याकुलता से कहा ठाकुर जी भोग लगा ल्यो नहीं तो म्हे भी आज भूखी ही रहूंली....
शाम हो गयी ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया इधर नन्हीं करमा भूख से व्याकुल होने लगी, वो बार बार ठाकुर जी की मनुहार करने लगी भोग लगाने के लिए...

नन्हीं करमा की अरदास सुन के ठाकुर जी की मूर्ति से साक्षात भगवान श्री-कृष्ण प्रकट हुए और बोले: "करमा तूँ म्हारे परदो तो करयो ही कोनी, म्हें भोग कंइया लगातो ?" 

करमा - ओह्ह इत्ती सी बात, थे (आप) मन्ने तड़के (सुबह) ही बोल देता भगवान।
करमा अपनी लुंकड़ी (ओढ़नी) की ओट (परदा) करती है और हाथ से पंखा हिलाती। करमा की लुंकड़ी की ओट में ठाकुर जी खीचड़ा खा के अंतर्ध्यान हो जाते हैं। अब ये करमा का नित्यक्रम बन गया।

रोज़ सुबह करमा खीचड़ा बना के ठाकुर जी को बुलाती, ठाकुर जी प्रकट होते व करमा की ओढ़नी की ओट में बैठ के खीचड़ा जीम के अंतर्ध्यान हो जाते।

माता-पिता जब पुष्कर जी से तीर्थ कर के वापस आते हैं तो देखते हैं गुड़ का भरा मटका खाली होने के कगार पे है। पूछताछ में करमा कहती है, म्हें नहीं खायो गुड़...
"ओ गुड़ तो म्हारा ठाकुर जी खायो"

माता-पिता सोचते हैं करमा ही ने गुड़ खाया है अब झूठ बोल रही है।

अगले दिन सुबह करमा फिर खीचड़ा बना के ठाकुर जी का आह्वान करती है तो ठाकुर जी प्रकट हो के खीचड़े का भोग लगाते हैं।

माता-पिता यह दृश्य देखते ही आवाक रह जाते हैं।

देखते ही देखते करमा की ख्याति सम्पूर्ण मारवाड़ व राजस्थान में फैल गयी।

जगन्नाथपुरी के पुजारियों को जब मालूम चला कि मारवाड़ के नागौर में मकराणा के कालवा गांव में रोज़ ठाकुर जी पधार के करमा के हाथ से खीचड़ा जीमते हैं तो वो करमा को पूरी बुला लेते हैं।

करमा अब जगन्नाथपुरी में खीचड़ा बना के ठाकुर जी के भोग लगाने लगी। ठाकुर जी पधारते व करमा की लुंकड़ी (ओढणी) की ओट में खीचड़ा जीम के अंतर्ध्यान हो जाते।बाद मे करमा बाईसा जगन्नाथपुरी मे ही रहने लगी व जगन्नाथपुरी में ही उनका देहावसान हुआ।

(1) जगन्नाथपुरी में ठाकुर जी को नित्य 6 भोग लगते हैं, इसमें ठाकुर जी को तड़के प्रथम भोग करमा रसोई में बना खीचड़ा आज भी रोज़ लगता है।

(2) जगन्नाथपुरी में ठाकुर जी के मंदिर में कुल 7 मूर्तियां लगी है .... 5 मूर्तियां ठाकुर जी के परिवार की है .... 1 मूर्ति सुदर्शन चक्र की है .... 1 मूर्ति करमा बाईसा की है।

(3) जगन्नाथपुरी रथयात्रा में रथ में ठाकुर जी की मूर्ति के समीप करमा बाईसा की मूर्ति विद्यमान रहती है .... बिना करमा बाईसा की मूर्ति रथ में रखे रथ अपनी जगह से हिलता भी नहीं है।

🙏|| जय श्री जगन्नाथपुरी ||🙏

Monday 1 June 2020

शबरी को नवधा भक्ति उपदेश



श्रीराम व लक्ष्मण मतंग ऋषि के आश्रम पहुंचे। वहां आश्रम में वृद्धा शबरी भक्ति में लीन थी। मतंग ऋषि अपने तप व योग के बल पर अन्य ऋषियों सहित दिव्यलोक पहुंच चुके थे। ऋषि मतंग ने शबरी से एक अपेक्षित घड़ी में कह दिया कि राम तुम्हारी कुटिया में आएंगे। ऋषि ने शबरी की श्रद्धा और सबूरी की परख करके यह भविष्य वाक्य कहा। शबरी एक भरोसे लेकर जीती रही। वह बूढ़ी हो गई, परंतु उसने आतुरता को बूढ़ा नहीं होने दिया।

वन-फलों की अनगिनत टोकरियां भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है। 

जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम  आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। इस भावनात्मक दृश्य को गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार रेखांकित करते हैं:

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।

अर्थात, कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।

इसके बाद शबरी जल्दी से जंगली कंद-मूल और बेर लेकर आईं और अपने परमेश्वर को सादर अर्पित किए। पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार, बेर कहीं खट्टे न हों, इसलिए अपने इष्ट की भक्ति की मदहोशी से ग्रसित शबरी ने बेरों को चख-चखकर श्रीराम व लक्ष्मण को भेंट करने शुरू कर दिए। श्रीराम शबरी की अगाध श्रद्धा व अनन्य भक्ति के वशीभूत होकर सहज भाव एवं प्रेम के साथ झूठे बेर अनवरत रूप से खाते रहे, लेकिन लक्ष्मण ने झूठे बेर खाने में संकोच किया। उसने नजर बचाते हुए वे झूठे बेर एक तरफ फेंक दिए। माना जाता है कि लक्ष्मण द्वारा फेंके गए यही झूठे बेर, बाद में जड़ी-बूटी बनकर उग आए। समय बीतने पर यही जड़ी-बूटी लक्ष्मण के लिए संजीवनी साबित हुई। श्रीराम-रावण युद्ध के दौरान रावण के पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाथ) के ब्रह्मास्त्र  से लक्ष्मण मुर्छित हो गए और मरणासन्न हो गए। विभिषण के सुझाव पर लंका से वैद्यराज सुषेण को लाया गया। वैद्यराज सुषेण के कहने पर बजरंग बली हनुमान संजीवनी लेकर आए। श्रीराम की अनन्य भक्त शबरी के झूठे बेर ही लक्ष्मण के लिए जीवनदायक साबित हुए। 

भगवान श्रीराम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।

श्रीराम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। उन महापुरुषों ने जो फल अर्पित किए वे भी दिव्य ही रहे होंगे। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से यह पूछा जा सकता है कि 'शबरी के फलों में ऐसी कौन सी विशेषता थी कि प्रभु ने उनमें जिस स्वाद का अनुभव किया, अन्यत्र नहीं कर पाए?' गोस्वामीजी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उसके अर्थ और संकेत पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। गोस्वामी, इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र अर्पित कंद, मूल, फल के लिए नहीं करते। वे कहते हैं- कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। अर्थात शबरी के फलों में 'रस' नहीं 'सुरस' है। और केवल सुरस ही नहीं 'अति सुरस' है।

भक्ति-साहित्य में शबरी के फलों की मिठास का बार-बार वर्णन आता है। भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला। भीलनी को सामाजिकता की मूलधारा में ले आते हैं। 

इसके बाद श्रीराम ने शबरी की भक्ति से खुश होकर कहा, ‘‘भद्रे!  तुमने  मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो।’’ इस पर शबरी ने स्वयं को अग्नि के अर्पण करके दिव्य शरीर धारण किया और अपने प्रभु की आज्ञा से स्वर्गलोक पधार गईं।

महर्षि वाल्मीकी ने शबरी को सिद्धा कहकर पुकारा, क्योंकि अटूट प्रभु भक्ति करके उसने अनूठी आध्यात्मिक उपलब्धि हासिल की थी। यदि शबरी को हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक कहें तो कदापि गलत नहीं होगा। 

शबरी को उसकी योगाग्नि से हरिपद लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधाभक्ति के अनमोल वचन दिए । शबरी प्रसंग से यह पता चलता है की प्रभु  सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।

नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

    हे माता शबरी ! मैं आपसे यह नव विधा भक्ति कहता हूँ , जिसको आप ध्यानपूर्वक सुनें और मन में विचार करें।
      1.  प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
        पहली भक्ति है कि हमेशा संतों का , अर्थात सदाचारी लोगों का साथ रहे |
          2.  दूसरि रति प्रभु कथा प्रसंगा॥
            दूसरी भक्ति है कि प्रभु कथा, अर्थात ऐसी कथाएं जो हमें जीवन के आदर्शों की प्रेरणा देती हैं, उनमें रति अर्थात प्रेम रखें |
              3. गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
                तीसरी भक्ति है अमान अर्थात मान या अहंकार को त्याग कर अपने गुरु का सम्मान करना।
                  4. चौथि भगति प्रभु गुन गन करइ कपट तजि गान॥
                    चौथी भक्ति है कि अपने जीवन से कपट और छल का त्याग कर, प्रभु का अर्थात आप जिसको भी आदर्श मानते हैं उसका गुणगान करना।
                      5. मंत्र जाप प्रभु दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
                        पांचवी भक्ति, जोकि वेदों में प्रकाशित की गयी है , प्रभु के मंत्र का जाप अर्थात जो भी आपका आदर्श है उसके विचारों का बार बार मनन, जिससे आपकी एकाग्रता आपके आदर्श से भटके नहीं |
                          6. छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
                            छठवीं भक्ति है अपने शील, अर्थात चरित्र के निर्माण के लिए सदा प्रयत्नरत रहना और जीवन के अनेकों कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्मों से एक वैराग्य बनाये रखना (भगवद्गीता में भी यह मत्त्वपूर्ण जीवन सिद्धांत “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के रूप में दोहराया गया है  ) | इसके साथ साथ हमेशा स्वयं को सज्जन धर्म यानी अच्छे कामों में ही निरत अर्थात व्यस्त रखना चाहिए |
                              7. सातवँ सम हरि मय जग देखा। हरि तें संत अधिक करि लेखा॥
                                सातवीं भक्ति है इस पूरे जगत को हरि अर्थात अपने प्रेम की सबसे ऊंची अभिव्यक्ति के रूप में देखना और सभी से उतना ही प्रेम करना (वसुधैव कुटुम्बकम !) | संत अर्थात ज्ञानी और अच्छे काम करने वाले लोगों को हरि से भी अधिक समझना चाहिए | यह महत्त्वपूर्ण है की यहाँ स्वयं भगवान अपने मुख से कह रहे हैं की ज्ञानी और सज्जन लोगों को भगवान से ऊपर मानें | आज जब राजनीति के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जाता है, तब भगवान की यह विनम्रता अवश्य याद रखनी चाहिए |
                                  8. आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखइ परदोषा॥
                                    आठवीं भक्ति है संतोष का लाभ लेना और सपने में भी दूसरों के दोष ना देखना | आज जब स्कूल के दिनों से लेकर पूरे जीवन भर हर जगह सर्वश्रेष्ठ होने के लिए आवश्यकता से अधिक दबाव का सामना करना पड़ता है, यह उक्ति हम सभी के लिए महत्त्वपूर्ण है |
                                      9. नवम सरल सब सन छलहीना। हरि भरोस हिय हरष न दीना॥
                                        नवीं भक्ति सबसे सरल और सहज अवस्था में आती है | इस अवस्था में मनुष्य समस्त छल कपट को त्यागकर, संसार के सभी आडम्बरों से मुक्त होकर बिना सुख दुःख से प्रभावित हुए अपने आदर्श में परम विश्वास रखता है और अंततः निर्वाण को प्राप्त करता है |
                                          नवधा भागती सबरी कह दीन्हीं | सादर सबरी सीस धरी लीन्हीं ||
                                            इस प्रकार भगवान राम ने यह नव विधा भक्ति माता शबरी को बतायी, जिसे माता शबरी ने आदर के साथ अपने मस्तिष्क में ग्रहण किया |

                                            🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏