Monday 1 June 2020

शबरी को नवधा भक्ति उपदेश



श्रीराम व लक्ष्मण मतंग ऋषि के आश्रम पहुंचे। वहां आश्रम में वृद्धा शबरी भक्ति में लीन थी। मतंग ऋषि अपने तप व योग के बल पर अन्य ऋषियों सहित दिव्यलोक पहुंच चुके थे। ऋषि मतंग ने शबरी से एक अपेक्षित घड़ी में कह दिया कि राम तुम्हारी कुटिया में आएंगे। ऋषि ने शबरी की श्रद्धा और सबूरी की परख करके यह भविष्य वाक्य कहा। शबरी एक भरोसे लेकर जीती रही। वह बूढ़ी हो गई, परंतु उसने आतुरता को बूढ़ा नहीं होने दिया।

वन-फलों की अनगिनत टोकरियां भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है। 

जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम  आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। इस भावनात्मक दृश्य को गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार रेखांकित करते हैं:

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।

अर्थात, कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।

इसके बाद शबरी जल्दी से जंगली कंद-मूल और बेर लेकर आईं और अपने परमेश्वर को सादर अर्पित किए। पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार, बेर कहीं खट्टे न हों, इसलिए अपने इष्ट की भक्ति की मदहोशी से ग्रसित शबरी ने बेरों को चख-चखकर श्रीराम व लक्ष्मण को भेंट करने शुरू कर दिए। श्रीराम शबरी की अगाध श्रद्धा व अनन्य भक्ति के वशीभूत होकर सहज भाव एवं प्रेम के साथ झूठे बेर अनवरत रूप से खाते रहे, लेकिन लक्ष्मण ने झूठे बेर खाने में संकोच किया। उसने नजर बचाते हुए वे झूठे बेर एक तरफ फेंक दिए। माना जाता है कि लक्ष्मण द्वारा फेंके गए यही झूठे बेर, बाद में जड़ी-बूटी बनकर उग आए। समय बीतने पर यही जड़ी-बूटी लक्ष्मण के लिए संजीवनी साबित हुई। श्रीराम-रावण युद्ध के दौरान रावण के पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाथ) के ब्रह्मास्त्र  से लक्ष्मण मुर्छित हो गए और मरणासन्न हो गए। विभिषण के सुझाव पर लंका से वैद्यराज सुषेण को लाया गया। वैद्यराज सुषेण के कहने पर बजरंग बली हनुमान संजीवनी लेकर आए। श्रीराम की अनन्य भक्त शबरी के झूठे बेर ही लक्ष्मण के लिए जीवनदायक साबित हुए। 

भगवान श्रीराम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।

श्रीराम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। उन महापुरुषों ने जो फल अर्पित किए वे भी दिव्य ही रहे होंगे। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से यह पूछा जा सकता है कि 'शबरी के फलों में ऐसी कौन सी विशेषता थी कि प्रभु ने उनमें जिस स्वाद का अनुभव किया, अन्यत्र नहीं कर पाए?' गोस्वामीजी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उसके अर्थ और संकेत पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। गोस्वामी, इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र अर्पित कंद, मूल, फल के लिए नहीं करते। वे कहते हैं- कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। अर्थात शबरी के फलों में 'रस' नहीं 'सुरस' है। और केवल सुरस ही नहीं 'अति सुरस' है।

भक्ति-साहित्य में शबरी के फलों की मिठास का बार-बार वर्णन आता है। भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला। भीलनी को सामाजिकता की मूलधारा में ले आते हैं। 

इसके बाद श्रीराम ने शबरी की भक्ति से खुश होकर कहा, ‘‘भद्रे!  तुमने  मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो।’’ इस पर शबरी ने स्वयं को अग्नि के अर्पण करके दिव्य शरीर धारण किया और अपने प्रभु की आज्ञा से स्वर्गलोक पधार गईं।

महर्षि वाल्मीकी ने शबरी को सिद्धा कहकर पुकारा, क्योंकि अटूट प्रभु भक्ति करके उसने अनूठी आध्यात्मिक उपलब्धि हासिल की थी। यदि शबरी को हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक कहें तो कदापि गलत नहीं होगा। 

शबरी को उसकी योगाग्नि से हरिपद लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधाभक्ति के अनमोल वचन दिए । शबरी प्रसंग से यह पता चलता है की प्रभु  सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।

नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

    हे माता शबरी ! मैं आपसे यह नव विधा भक्ति कहता हूँ , जिसको आप ध्यानपूर्वक सुनें और मन में विचार करें।
      1.  प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
        पहली भक्ति है कि हमेशा संतों का , अर्थात सदाचारी लोगों का साथ रहे |
          2.  दूसरि रति प्रभु कथा प्रसंगा॥
            दूसरी भक्ति है कि प्रभु कथा, अर्थात ऐसी कथाएं जो हमें जीवन के आदर्शों की प्रेरणा देती हैं, उनमें रति अर्थात प्रेम रखें |
              3. गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
                तीसरी भक्ति है अमान अर्थात मान या अहंकार को त्याग कर अपने गुरु का सम्मान करना।
                  4. चौथि भगति प्रभु गुन गन करइ कपट तजि गान॥
                    चौथी भक्ति है कि अपने जीवन से कपट और छल का त्याग कर, प्रभु का अर्थात आप जिसको भी आदर्श मानते हैं उसका गुणगान करना।
                      5. मंत्र जाप प्रभु दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
                        पांचवी भक्ति, जोकि वेदों में प्रकाशित की गयी है , प्रभु के मंत्र का जाप अर्थात जो भी आपका आदर्श है उसके विचारों का बार बार मनन, जिससे आपकी एकाग्रता आपके आदर्श से भटके नहीं |
                          6. छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
                            छठवीं भक्ति है अपने शील, अर्थात चरित्र के निर्माण के लिए सदा प्रयत्नरत रहना और जीवन के अनेकों कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कर्मों से एक वैराग्य बनाये रखना (भगवद्गीता में भी यह मत्त्वपूर्ण जीवन सिद्धांत “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” के रूप में दोहराया गया है  ) | इसके साथ साथ हमेशा स्वयं को सज्जन धर्म यानी अच्छे कामों में ही निरत अर्थात व्यस्त रखना चाहिए |
                              7. सातवँ सम हरि मय जग देखा। हरि तें संत अधिक करि लेखा॥
                                सातवीं भक्ति है इस पूरे जगत को हरि अर्थात अपने प्रेम की सबसे ऊंची अभिव्यक्ति के रूप में देखना और सभी से उतना ही प्रेम करना (वसुधैव कुटुम्बकम !) | संत अर्थात ज्ञानी और अच्छे काम करने वाले लोगों को हरि से भी अधिक समझना चाहिए | यह महत्त्वपूर्ण है की यहाँ स्वयं भगवान अपने मुख से कह रहे हैं की ज्ञानी और सज्जन लोगों को भगवान से ऊपर मानें | आज जब राजनीति के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया जाता है, तब भगवान की यह विनम्रता अवश्य याद रखनी चाहिए |
                                  8. आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखइ परदोषा॥
                                    आठवीं भक्ति है संतोष का लाभ लेना और सपने में भी दूसरों के दोष ना देखना | आज जब स्कूल के दिनों से लेकर पूरे जीवन भर हर जगह सर्वश्रेष्ठ होने के लिए आवश्यकता से अधिक दबाव का सामना करना पड़ता है, यह उक्ति हम सभी के लिए महत्त्वपूर्ण है |
                                      9. नवम सरल सब सन छलहीना। हरि भरोस हिय हरष न दीना॥
                                        नवीं भक्ति सबसे सरल और सहज अवस्था में आती है | इस अवस्था में मनुष्य समस्त छल कपट को त्यागकर, संसार के सभी आडम्बरों से मुक्त होकर बिना सुख दुःख से प्रभावित हुए अपने आदर्श में परम विश्वास रखता है और अंततः निर्वाण को प्राप्त करता है |
                                          नवधा भागती सबरी कह दीन्हीं | सादर सबरी सीस धरी लीन्हीं ||
                                            इस प्रकार भगवान राम ने यह नव विधा भक्ति माता शबरी को बतायी, जिसे माता शबरी ने आदर के साथ अपने मस्तिष्क में ग्रहण किया |

                                            🙏 ।। जै श्रीराम ।। 🙏

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