Thursday 3 November 2022

राम से प्रभावी है, राम का नाम ।


 
🌺  राम से प्रभावी है, राम का नाम   🌺

हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है , प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था।
आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था।

"सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू"

हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है।
प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ। 

भगवान बोले कैसे ? 

हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है। आपको पता है! जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया, पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा, तो भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया!उन्होंने आपका नाम लेकर कहा,

"जौ मोरे मन बच अरू काया, प्रीति राम पद कमल अमाया"
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला, जौ मो पर रघुपति अनुकूला
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा, कहि जय जयति कोसलाधीसा"

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा.

मै नाम तो लेता हूँ,पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता।

बस ऐसा ही हम करते है। हम नाम तो भगवान का लेते है, पर भरोसा नही करते।

बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा, बेटे ने नहीं की तो क्या होगा? उस समय हम भूल जाते है कि जिस भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते , बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है। 

दूसरी बात प्रभु ! बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ। मेरा दूसरा अभिमान टूट गया।

इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ।

फिर हनुमान जी कहते है -

और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है,जैसे बाण भरत जी के पास है। आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया। 

भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताड़का को मारा और भी राक्षसों को मारा, तो वे सब मरकर, मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये।
 
इस पर हनुमान जी बोले- प्रभु! आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है, पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है। 

भरत जी संत है,और संत का बाण क्या है? 
संत का बाण है उसकी वाणी। लेकिन हम करते क्या है, हम संत वाणी को समझते तो है, पर सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है। 

हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठने को कहा, तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ?

परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है।

इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जगाते है जैसे हनुमान जी को जगाया, क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है। आप उन पर भरोसा तो करो, तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे।

सियावर रामचंद्र की जय ।

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Saturday 20 August 2022

बालरूप श्रीराम जी के सौंदर्य का वर्णन ।


 बालरूप श्रीराम जी के सौंदर्य का वर्णन:-

गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी कहते हैं की जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में खेल रहे हैं

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
अरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥

उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे लाल कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों ।

रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥

चरणतलों में वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे देखा है ।

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥

बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है ।

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥

कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक के सौंदर्य का तो वर्णन ही कौन कर सकता है ।

सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥

सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है ।

पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥

भावार्थ:-शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो ।

(साभार -  अनजान, व्हाट्सएप से प्राप्त)

Saturday 9 July 2022

🏹🏹🏹 श्री राम धनुष यज्ञ 🏹🏹🏹

 

" श्री राम धनुष यज्ञ "



 🌹🌷🚩 श्री राम जय राम जय जय राम 🌹🌷🚩जय जय विघ्न हरण हनुमान🌹🌷🚩 

🏹🏹🏹 धनुष यज्ञ 🏹🏹🏹

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--- रामजी बडे धर्म संकट मे हैं । 


लक्ष्मण जी अडे है भैय्या ! शिर मत झुकाना । 


जानकी जी की सखियां कह रही है प्रभो ! सरकार ! शिर झुका दीजिये । 


रामजी ने कहा , हम वीर हैं क्षत्रिय हैं , रघुवंशी हैं ।सखियां बोली , आप कोई भी हो , ससुराल हैं यहाँ बडो़ बडो़ का शिर झुक जाता हैं ।


श्रीराम जी कहते हैं , विवाह मे तो कोई ऐसी रीति नही होती जिससे सिर झुकाया जाता हो । 

एक सखी ने कहा , प्रभु ! विवाह की रीति आपको कैसे मालुम ? क्या इससे पहले भी आपका कहीं विवाह हुआ हैं ? 


अब रामजी सखियों के इस विनोद पर मुस्कराकर रह गये । 


पर राम जी की ओर से वकालत तो श्री लक्ष्मण जी कर रहे थे । लक्ष्मण जी ने कहा , हमारे रामजी सरल हैं पर इसका अर्थ यह नही कि इनकी कोई महिमा नही हैं । इनको साधारण व्यक्ति समझा है क्या ? ये जगन्नियन्ता , जगदाधार ,परब्रम्ह्य ,सर्वशक्तिमान , सर्वेश्वर , सर्वसमर्थ , परमात्मा हैं । इनके कई अवतार हो चुके हैं तो पिछले अवतारो मे विवाह हुआ होगा । तबका अनुभव सुना रहे हैं ।  वकील साहब ने तर्क बहुत बढिया दिया । 


परन्तु एक सखी कहती हैं राजराजेश्वरी श्रीकिशोरी जी की कृपा से मिथिला का पक्ष कमजोर नही हैं । कैसे ? कहा कि इनके जितने अवतार हुये है उनके सारे नामो की लिस्ट हमारे पास हैं । ये बताएं पिछले किस अवतार मे विवाह हुआ है इनका ? अब लक्ष्मण जी ने कहा ये तो यही जाने हम क्या बताएं ?सखियां कहती है ये क्या बतायेंगे हमे मालुम है नही हुआ हैं -


मीन कमठ सूकर नर हरी । बामन परसुराम वपुधरी ।।


श्रीराम अवतार से पहले ये अवतार हुये हैं । मत्स्य अवतार , आपने कभी मछली के विवाह की कथा सुनी । भगवान मत्स्य बने ,कच्छप बने ,वाराह बने , वामन ,नरसिंह और परसुराम अवतार हुआ । किसी अवतार मे विवाह नही हुआ ।


वेद के ममत्व पे मत्स्य अवतार लीन्हो , कच्छप तन कीन्हो वाराह वपु धारी में ।

वामन के रुप भूप बलि कों पाताल भेज्यों , रह्यो भृगुवंस मांहि बाल ब्रम्ह्यचारी मैं ।।

बरी कवन बरै रमारानी हूं देख डरी , धरयो नरसिंह जब रुप भयकारी मैं ।

काहू अवतार मैं ऐसी नहि रीति रची , आज ही बिनीति मोहि बांध्यो ससुरारि में मैं ।।


सखियां बोली , तो आज सोच लीजिए सरकार ! इतने अवतार के बाद तो अब मौका मिला हैं । अगर हमारी बात नही मानोगे तो यह अवतार भी ऐसे ही जाएगा - बिना विवाह के । इसलिए झुका दो शिर । 


रामजी चुपचाप खडे है । जानकी जी ने लक्ष्मण जी को इसारा किया आपतो शेषावतार हैं ,उठा दो पृथ्वी मै माला पहना दूँ प्रभु को । लक्ष्मण जी ने कहा आपकी आज्ञा शिरोधार्य पर एक समस्या है जब मै पृथ्वी उठाउँगा तो यह तो पूरी उठेगी । फिर राम जी तभी तो उतने ही उठ जाएगें ।


मित्रों इस प्रसंग पर बहुत संतो के तरह तरह के भाव हैं । पर एक भाव मुझे अत्यन्त प्रिय है उसे ही उल्लेखित करता हूँ । 

बडी देर हो गयी दोनो तरफ से कटाक्ष चल रहा है । जानकी जी जयमाल लिए खडी है अभी पहनाया नही है लेकिन सखियां गाने लगीं - झूठें ही । क्या गा रही हैं -


गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सिय जयमाल राम उर मेली ।।


सखियां झूठे ही गा रही हैं - सीता जी ने रामजी के गले मे माला डाल दी , अब श्रीरामजी बडे हैरान ! सिर तो झुकाया नही , जयमाल गिर कैसे गई । यह तो गा रही है , गिर नही सकती । माला न गिरी होती तो ये गाती कैसे ? जरुर गिर गयी है । श्रीराम जी ने सोचा क्यूँ परेशान हो देख लेते है कि माला गिरी है कि झूंठे गा रही है और जैसे ही रामजी यह देखने के लिये सिर नीचे किया वैसे ही सिय जयमाल राम उर मेली । 


जयमाल गिर गई । लेकिन मित्रो एक बात और सुनो । श्रीरामजी सिंहासन पर बैठे हैं ।श्री सीता जी जयमाल लिए खडी हैं । सिर झुकाया । अब सीताजी जयमाल ही न पहनाए । रामजी कहते है जल्दी करो । हम सिर झुकाए बैठे हैं । सीताजी कहती है आपने धनुष तोडने मे जल्दी की थी क्या ? 


धनुष चढावत लाडली ज्यों तरसाई लाल ।

त्यों तरसैहे सिय तुम्हे पहिरावत जयमाल ।।


रामजी कहते हैं तो हम सिर झुकाए बैठे है भरी सभा मे यह अच्छा लग रहा है क्या ? श्री जानकी जी कहती हैं , आप ऐसे बडे अच्छे लग रहे हैं , शिर झुकाए सभा मे बैठे हुए । प्रभु इससे आपका शील प्रकट होता हैं ।देखो दूसरे राजाओं को जिनसे धनुष हिला नही वह अकड़ के बैठे हैं - जैसे बडा कमाल किया हो । और जिसके छूते ही धनुष टूट गया , वह शिर झुकाए बैठा हैं । यही तो आपका शील हैं । 


भगवान श्रीराम कहते हैं. ,हम सिर झुकाए ? जानकी जी कहती है आप ज्ञान के स्वरुप हैं । तो ज्ञान के सिर झुकाने का अर्थ क्या हैं ? ज्ञानन मे विनम्रता होनी ही चाहिए । विद्या ददाति विनयम् । श्री जानकी जी भक्ति हैं । 


कितना सुन्दर संकेत है , भक्ति उसी ज्ञान को जयमाल पहनाती हैं जिस ज्ञान मे विनम्रता हो , जहाँ विनम्रता हो । 


रामजी कहते हैं यह तो ठीक हैं लेकिन हम कब तक सिर झुकाए बैठे रहेगें ? देर हो रही है ? जानकी जी ने कहा क्यूँ आपकी ओर से भी तो देर हुई थी ? श्रीरामजी ने कहा , आपने ही कहा कि मै ज्ञान का स्वरुप हूँ , ज्ञान की ओर से बिलम्ब हो यह बात तो समझ मे आती हैं पर भक्ति की ओर से यदि बिलम्ब होगा तो भक्ति पर भरोसा कौन करेगा । इसलिए आप बिलम्ब न करें ।


सज्जनो जयमाल पडने के बाद सखिओं ने सीता जी से कहा अब इन्हे प्रणाम करों -


सखी कहहिं प्रभु पद गहु सीता । करत न परसि चरन अति भीता ।। 


सीता जी तो रामजी के रुप माधुर्य के पान मे मस्त है उन्हे चरण स्पर्श का ध्यान ही कहा । और गोस्वामी बाबा कहते है चरण छूना कोई आवश्यक नही है । हम सीताराम के प्रेम माधुर्य मे चरण स्पर्श कराके ध्यान भंग नही करेगें । 


गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसत पग पानि ।

मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ।।


कुछ लोगो का मानना है कि सीता जी ने गौतम की पत्नी अहिल्या का स्मरण करके चरण स्पर्श नही किया । 


परन्तु यहाँ पर गोस्वामी बाबा का भाव है कि माता जानकी चाहती है कि मेरा प्रेम सदैव बना रहे । अहिल्या की तरह चरण रज मिलते ही इनसे दूर न हो जाऊँ । इसलिये भगवान राम , माता जानकी के अलौकिक प्रेम को देखकर हंसने लगे । 


मित्रों अलौकिक प्रेम को तो श्रीराम जी ही जानते हैं । अब युगल सरकार बिराजमान है जय जयकार हो रही है । हम आप भी जय जयकार करे । 


🌷🚩 श्री राम जय राम जय जय राम 🌹🌷🚩जय जय विघ्न हरण हनुमान🌹🌷🚩 


🍁🍁🍁 भाग  30 🍁🍁🍁


Thursday 28 April 2022

"शरण्या" की व्याकुलता और कान्हा से मिलन”

 "शरण्या" की व्याकुलता और कान्हा से मिलन”

प्रथम भाग


दिन भर कान्हा के टैडी के साथ खेलना, उसके जैसी आवाज निकाल कर उनकी लीलाओं का घर में मंचन जब करती है तो पूरे घर को वृंदावन बना देती है वो। फिर उसकी लीला में हम दोनों नंद बाबा और यशोदा मैया स्वत: ही बन जाते हैं। श्रीदामा, मंशुका, श्रीधर, बलराम, मधुमंगल दूसरे टैडी बन जाते हैं। वो स्वयं बाल कृष्ण की दीदी है। 


यह जो मंचन है उसे वो हर पर जीती है। नाम उसका शरण्या है। शरण्या उसे कहते हैं जो भगवान के शरणागत है।


एकदिन गिरिराज परिक्रमा लगाने जाना हुआ तो वो इसलिए खुश थी कि वहाँ कृष्ण साक्षात मिलेंगे उसे। परिक्रमा में 12 किलोमीटर तक वह 4 साल की बच्ची केवल इसलिए पैदल चली है कि कहीं न कहीं कृष्ण से मुलाकात जरूर होगी।


अहा! कितना सुंदर भाव बालमन का। यही अंतर है बालक में और स्वयं को बडे समझने वालों में। तलहटी की परिक्रमा में श्रीनाथ जी का महल नुमा मंदिर पडा तो उसे देखकर बोली, पापा! शायद यही है कान्हा का घर। मुझे वहाँ ले चलो। वहाँ पहुंची तो भगवान के पट बंद थे। मंदिर में सफाई करते हुए लोगों से पूछा कि कान्हा जी सो रहे हैं? उन्होंने कहा," हां 5 बजे पट खुलेंगे।"


शरण्या थोडी निराश हुई। परिक्रमा में मेरे साथ आगे बढ तो गयी, पर निराशा का भाव चेहरे पर झलकने लगा। कहने लगी कि 5 बजे फिर से इसी जगह ले चलना पापा। मुझे कान्हा से मिलना है।


आगे बढती हुई परिक्रमा में मैं उसके इन प्रश्नों का उत्तर ठीक से दे ही नहीं पा रहा था। उसे किसी भी कीमत पर कान्हा से मिलना था और मैं असमंजस में था।


बचपन में मेरी मां कहा करतीं थीं कि गोवर्धन परिक्रमा में कान्हा परिक्रमा लगाने वालों को कहीं न कहीं किसी रूप में अवश्य दर्शन देते हैं। 


मुझे उनकी बात स्मरण हो आयी थी। मन ही मन कृष्ण से प्रार्थना की कि हे कृष्ण! तुम अंतर्यामी हो। बालक का विश्वास तुम्हारे प्रति दृढ़ है। बालक बडे होंगे तो पता नहीं कि बालक का मनोभाव कैसा हो!! इसलिए निश्छल निर्मल मन वाली शरण्या की तुम मनोकामना पूर्ण करो। कैसे भी दर्शन दो इसको।.. 


अब बारी कृष्ण की थी। भक्त ने तो अपनी व्यथा प्रकट कर ही दी है अब कृष्ण को आगे का काम करना है। आखिर तुमने ही तो गीता में वादा किया है ना.


"स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।"


जो तुम्हारी तरफ थोड़ा सा भी कदम बढ़ा दे कोई तो तुम उसकी तरफ स्वयं चले आते हो। 


बडी परिक्रमा पूरी हो चुकी थी तो शरण्या गोद में सो गयी थी। थोडा आराम करने के बाद राधाकुंड में उसकी नींद खुल गयी। नींद खुलते ही उसने पूछा कि 5 बज गये क्या? मैंने कहा अभी 7 बज रहे हैं। उसने कहा पापा मुझे कान्हा जी से मिलना है। मैंने उसको समझाने को कहा कि इतनी देर से कान्हा जी ही तो तुझे उठाकर परिक्रमा में चल रहे थे। तुझे उन्होंने जगाया लेकिन तू जागी नहीं। फिर उन्होंने अपनी गोद में ले लिया तुझको। ऐसा सुनते ही उसके होठों पर मुस्कान आने लगी। उसके हावभाव बदल चुके थे। कान्हा के बारे में तरह तरह के प्रश्न करने लगी। पापा ये बताओ कि वो कितने साल के बनकर आये थे?


वो अकेले आये थे या अपने सखाओं (friends) के साथ? उसके प्रश्नों के जैसे समझ आये वैसे उत्तर देते परिक्रमा आगे बढती रही। तभी उसने कहा मुझे रिक्शे पर बैठना है। एक रिक्शेवाले को रोका तो शरण्या रिक्शे में बैठ गयी। उसने शरण्या का नाम पूछा तो शरण्या ने अपना नाम बताया। वो शरण्या को देखकर बहुत खुश था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि शरण्या को अपने रिक्शे में बिठाकर उसका आज का दिन सफल हो गया हो। मैंने अनायास ही उसका नाम पूछ लिया कि आपका नाम क्या है? रिक्शेवाले ने हंसते हुए उत्तर दिया कि मेरा नाम है "कान्हा" । और मैं शरण्या को रिक्शे पर ले चलने के लिए आया हूँ।


उसका उत्तर सुनते है मैं निशब्द हो गया। क्या अद्भुत लीला है प्रभु आपकी !


परिक्रमा में अक्सर रिक्शे वाले रिक्शे पर चढकर आगे बढते हैं। वो बची परिक्रमा में रिक्शे को पैदल खींचता रहा क्योंकि शरण्या से बात करता हुआ चल सके। शरण्या भी खूब बातें करती हुई चलती रही। उसे आनंद आ रहा था। 


दानघाटी पर परिक्रमा पूरी हुई तो शरण्या पर दुलार करके वो कुछ ही क्षणों में आंखों से ओझल हो गया। मैं निर्णय न कर सका कि वो कौन था!! बस विस्मय कर दिया था 'कान्हा' और उसके व्यवहार ने।


मैंने कान्हा को जो पुकार लगाई थी, शरण्या की उत्कंठा, मेरी माता जी का वह ध्रुव वाक्य कि " गोवर्धन परिक्रमा में कान्हा किसी न किसी रूप में दर्शन देते ही हैं ". ये सब बातें मन में घूमती रहीं। परिक्रमा के बाद शरण्या बहुत प्रशन्न थी। उसे साक्षात उसी रूप में दर्शन भले न हुए हों पर कृष्ण की उपस्थित का अहसास उसने अवश्य कर लिया था। 


द्वितीय भाग


फिर एक दिन वृंदावन जाना हुआ। शरण्या को लग रहा था कि कृष्ण मुझे गोवर्धन में नहीं मिले पर वृंदावन में जरुर मिल जाएंगे। बिहारी जी के दर्शन किए।  रंग मंदिर में उन दिनों ब्रह्मोत्सव चल रहा था। भगवान श्री विग्रह रूप में रथ की सवारी कर रहे हैं। विशाल मेला लगा हुआ हैं। रंग मंदिर की छटा ब्रह्मोत्सव में अनुपम थी। वृंदावन की परिक्रमा लगाई एवं श्री यमुना जी में नौका विहार किया। सब जगह शरण्या मेरे साथ होती। परन्तु उसकी उत्कंठा कृष्ण से साक्षात मिलने की थी। उसे विश्वास था कि वृंदावन में मुझे कृष्ण अवश्य मिलेंगे। वो बार बार पूछती जा रही थी कि पापा! कृष्ण कहां मिलेंगे। परिक्रमा मार्ग में दूर कहीं कुछ बालक गेंद खेलते हुए दिखाई दिए शरण्या ने कहा, पापा! शायद ये कृष्ण के सखा हैं एक बार इनसे ही पूछ लो ना!  मैं उसे बहलाता रहा।


परिक्रमा पूरी होने के बाद जब रंग मंदिर की तरफ हम आ रहे थे। तब तक शरण्या बहुत व्याकुल हो चुकी थी। अब उसने रास्ते में जोर से आवाज लगाना शुरू कर दिया।


ओ कान्हा......

राधा......

दाऊ भैया......


जब उसकी आवाज रास्ते में चलने वाले लोगों ने सुनी तो वे सब शरण्या को और उसकी व्याकुलता को अनुभव कर रहे थे।


अंततः शरण्या बहुत रोने लगी। तभी रंग मंदिर में सामने से आते हुए एक श्रीवैष्णवाचार्य के दर्शन हुए। उन्होंने रोते हुए बालक को देखकर ऐसे ही पूछ लिया कि क्या बात है बिटिया क्यों रो रही है?


तभी मैंने कहा कि स्वामीजी!  इसको कृष्ण से साक्षात मिलना है। बस इतना कहा, शरण्या पर उनका वात्सल्य बरस उठा। आचार्य ने शरण्या पर दुलार किया फिर कहा कि मैं कृष्ण से प्रार्थना करूंगा कि वे तुझे मिलने आयेंगे।


मेरे और शरण्या के गुरु जी एक ही हैं। शरण्या अपने गुरु जी के पास पहुंची तो स्वामीजी को प्रणाम किया। शरण्या को देखकर उनका ह्रदय भर आया।शरण्या शायद उनकी सबसे छोटी शिष्या है। अन्य शिष्य भी बैठे थे परन्तु शरण्या के प्रति उनकी स्नेहमयी कृपा सबसे अलग थी।


आखिर "गुरु कृपा" ही तो गोविंद से मिलने का मार्ग प्रशस्त करती हैयह पंक्ति ध्रुव सत्य है। शरण्या के परिपेक्ष्य में इसे अगले भाग में समझ जायेंगे। 


तृतीय भाग:- .. 


वृंदावन में कृष्ण से भेंट नहीं हो पायी। पर दिल्ली में उसकी व्याकुलता समाप्त नहीं हुई। 

मैं भी उसके दिन प्रतिदिन के उत्तर दे देकर अज्ञात भय से ग्रसित होने लगा था कि कहीं उसे ऐसा न लगने जाये कि कृष्ण कोई काल्पनिक हैं। तभी भगवान ने एक लीला की।


एक दिन हनुमान जयंती के उपलक्ष्य में सुंदरकांड पाठ का आयोजन होने जा रहा था। आयोजक महोदय (गोपाल जी) आमंत्रण स्वरूप एक पुस्तिका देकर गये और कहकर गये कि 'शरण्या' को अवश्य लेकर आना। मैंने कहा ठीक है। जिस दिन कार्यक्रम होने वाला था मैं उधर जाने के लिए घर से निकला ही था कि दरवाजे के बाहर शरण्या आयी और मुस्कुरा कर मधुर वाणी में बोली, पापा ! सुंदरकांड में बच्चे नहीं जा सकते क्या? वह सुंदरकांड इसलिए जानती है कि हमारी सोसायटी में प्रत्येक शनिवार को सुंदरकांड पाठ होता है।


अचानक मुझे ध्यान आया कि आयोजक महोदय शरण्या के लिए कहकर गये थे। मैंने कहा कि तैयार हो जाओ चलते हैं। शरण्या तैयार होकर अपने आ गयी साथ चलने को। सुंदरकांड पाठ आरंभ हो चुका था मैं भी साथ साथ पढने लगा। यूं तो बालक चंचल होते हैं पर उस दिन शरण्या काफी समय तक एक स्थान पर बिना शरारत के बैठी रही। शायद इसलिए कि मैंने कहा था कि शोर मत करना। वहाँ पूजा है।


पाठ के बाद अचानक माइक पर घोषणा हुई कि

 

"श्रीराधा कृष्ण की झांकी का थोडी ही देर में दर्शन करें।" 


तभी कान्हा और राधा के मनमोहक वेष में उत्कृष्ट कलाकार मंच की ओर आने लगे। उनकी सजावट ऐसी कि उनको देखकर लगा मानो साक्षात राधा कृष्ण ही आये हों। शरण्या की दृष्टि कृष्ण बने हुए कलाकार की ओर ज्यों ही पडी। वह छवि का दर्शन पाकर शरण्या अब स्तब्ध और आनंदित हो गयी।


स्वयं को बडे समझने वालों के लिए भले वो एक कलाकार हों पर "शरण्या के लिए तो वे साक्षात कृष्ण ही थे।"

एकटक निहारती रही उनको। फिर उछलने लगी कि कान्हा आ गये! कान्हा आ गये।


वे जब स्टेज पर विराजमान हो गये तो वह मुझे बार बार याद दिलाने लगी कि 'कान्हा' आ गये हैं पापा।

मैंने उससे कहा कि जा उनसे मिलकर आ।


और वह नन्हें कदमों से थोडा सकुचाई हुई स्टेज की ओर चल दी। जहाँ राधाकृष्ण बिराजमान थे।


आखिर कृष्ण के बिल्कुल निकट पहुंच ही गयी। किसी ने उसको रोका नहीं। बिल्कुल कान्हा के निकट जाकर खडी हो गयी। कुछ देर बाद कान्हा की आंखें शरण्या से मिलीं तभी शरण्या ने गले मिलने के लिए जैसे ही दोनों हाथ बढाये कान्हा ने अपने ह्रदय से लगा लिया। और अपनी गोद में बिठा लिया। जब तक झांकी चलती रही वह कान्हा की गोद में बैठी रही। वह ह्रदय से आनंदित हो रही थी। वह क्षण शरण्या के लिए अद्भुत था। प्रतीक्षा का अंत हुआ था आज।


और इस तरह उसकी "साधना" सिद्धि में बदल चुकी थी। 


अब तीन भागों में लिखी इस कहानी के भाव को समझें। कहानी तो शरण्या और कान्हा की है। 

परन्तु इसमें निहितार्थ गहरा है। 

अहंकार नहीं बल्कि शरणागति (शरण्या) से ही कान्हा मिलते हैं।


प्रत्येक साधक की भी यही कहानी है। 


ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्त में जब तक तीव्र उत्कंठा नहीं होगी तब तक वे उसे प्राप्त नहीं हो पायेंगे। यह पिपासा ही भगवद् दर्शन कराती है। हां वो मिलता है, जरूर मिलता है।


इसीलिए शायद उपनिषद भी यही उद्घोष करते हैं... 


"यमेवैष वृणुते तेन लभ्य:!!"


वो उसी को मिलता है जो उसकी ह्रदय से उसकी चाह रखता है। 



(साभार -  श्री कृष्ण भारद्वाज)


Sunday 16 January 2022

"नानी बाई का मायरा"

 

🚩 "नानी बाई का मायरा" 🚩

नानी बाई ने (मायरा) भात भरने के लिए नरसी जी को बुलाया.

नरसी जी के पास भात भरने के लिए कुछ नहीं था.

वह निर्धन थे लेकिन भगवान की भक्ति का खजाना भरपूर था. 

वो कहते थे कि -हमें अपनी चिंता  क्यों करनी, हमारी चिंता करने के लिए भगवान बैठे हैं. 

जब नरसी जी के पास भात का सन्देश आया तो सामानों की लिस्ट देखकर चिंतित हो उठे और अंतर्मन से अपने भगवान को पुकारा -

“हे साँवरिया सेठ! हे गिरधारी !

नरसी मेहता को तो कोई नहीं जाने। तुमको जाने है दुनिया सारी,

नानी बाई की पुत्री थी सुलोचना बाई , सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था; तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है

तो वह शादी के लिये भात तो  भर नही पायेगा,

उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो हमारी बहुत बदनामी होगी, इसलिये उनको शादी में आने से रोकने के लिए उन्होंने भात के समान की एक बहुत लम्बी सूची बनाई !

उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।

नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया !

साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई ,

परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी - वह थी श्री कृष्ण की भक्ति,

इसलिये वे उन पर भरोसा करते हुए अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गये,

उन्हें आया देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे,

अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे, 

नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी !

परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं नरसी भक्त के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।

दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी! और तभी सामने देखती है कि नरसी जी संतों की टोली और 

एक सेठजी जी के साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है,

दूर दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी,ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा था न ही देखेगा!

यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे,

उनके लोभ को भरने के लिये द्वारिकाधीश ने बारह घण्टे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा की नानी बाई के ससुराल वाले

उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे कि ये सेठ कौन है

और ये नरसी जी की मदद क्यों कर रहा है, जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप नरसी जी की सहायता क्यों कर रहे हैं।​

उनके इस प्रश्न के उत्तर में जो जवाब सेठ ने दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है !

तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है,इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, 

सेठ जी का उत्तर था ...

’मैं नरसी जी का सेवक हूँ !

इनका अधिकार चलता है मुझपर !

जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं ,

मैं दौड़ा चला आता हूँ इनके पास, !

जो ये चाहते हैं; मैं वही करता हूँ !

इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।"

ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था !

बस नानी बाई ही समझती थी कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उससे बंध गये हैं ,और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं

इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं, इससे यही साबित होता है कि भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं।

जय हो साँवलिया सेठ की!!

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🙏जय श्री राम ~ जय श्री कृष्णा🙏