Wednesday 19 February 2020

।। हनुमानजी की दिव्य उधारी ।।


सब पर कर्जा हनुमान जी का,सब ऋणी हनुमानजी महराज के। 

रामजी लंका पर विजय प्राप्त करके आए तो, भगवान ने विभीषण जी, जामवंत जी, अंगद जी, सुग्रीव जी सब को अयोध्या से विदा किया। तो सब ने सोचा हनुमान जी को प्रभु बाद में बिदा करेंगे, लेकिन रामजी ने हनुमानजी को विदा ही नहीं किया,अब प्रजा बात बनाने लगी कि क्या बात सब गए हनुमानजी नहीं गए अयोध्या से!

अब दरबार में काना फूसी शुरू हुई कि हनुमानजी से कौन कहे जाने के लिए, तो सबसे पहले माता सीता की बारी आई कि आप ही बोलो कि हनुमानजी चले जाएं।

माता सीता बोलीं मै तो लंका में विकल पड़ी थी, मेरा तो एक एक दिन एक एक कल्प के समान बीत रहा था, वो तो हनुमानजी थे,जो प्रभु मुद्रिका लेके गए, और धीरज बंधवाया कि...!

कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

मै तो अपने बेटे से बिल्कुल भी नहीं बोलूंगी अयोध्या छोड़कर जाने के लिए,आप किसी और से बुलावा लो।

अब बारी आयी लखनजी की तो लक्ष्मण जी ने कहा, मै तो लंका के रणभूमि में वैसे ही मरणासन्न अवस्था में पड़ा था, पूरा रामदल विलाप कर रहा था।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।

ये तो जो खड़ा है, वो हनुमानजी का लक्ष्मण है। मै कैसे बोलूं, किस मुंह से बोलूं कि हनुमानजी अयोध्या से चले जाएं!

अब बारी आयी भरतजी की, अरे! भरतजी तो इतना रोए, कि रामजी को अयोध्या से निकलवाने का कलंक तो वैसे ही लगा है मुझपे, हनुमानजी का सब मिलके और लगवा दो!

और दूसरी बात ये कि...!

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।  अधम कवन जग मोहि समाना॥

मैंने तो नंदीग्राम में ही अपनी चिता लगा ली थी, वो तो हनुमानजी थे जिन्होंने आकर ये खबर दी कि...!

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥

मैं तो बिल्कुल न बोलूं हनुमानजी से अयोध्या छोड़कर चले जाओ, आप किसी और से बुलवा लो।

अब बचा कौन..? सिर्फ शत्रुहन भैया। जैसे ही सब ने उनकी तरफ देखा, तो शत्रुहन भैया बोल पड़े मैंने तो पूरी रामायण में कहीं नहीं बोला, तो आज ही क्यों बुलवा रहे हो, और वो भी हनुमानजी को अयोध्या से निकलने के लिए, जिन्होंने ने माता सीता, लखन भैया, भरत भैया सब के प्राणों को संकट से उबारा हो! किसी अच्छे काम के लिए कहते बोल भी देता। मै तो बिल्कुल भी न बोलूं।

अब बचे तो मेरे राघवेन्द्र सरकार, 
माता सीता ने कहा प्रभु! आप तो तीनों लोकों ये स्वामी है, और देखती हूं आप हनुमानजी से सकुचाते है।और आप खुद भी कहते हो कि...!

प्रति उपकार करौं का तोरा।  सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

आखिर आप के लिए क्या अदेय है प्रभु! राघवजी ने कहा देवी कर्जदार जो हूं, हनुमान जी का, इसीलिए तो

सनमुख होइ न सकत मन मोरा

देवी! हनुमानजी का कर्जा उतारना आसान नहीं है, इतनी सामर्थ राम में नहीं है, जो "राम नाम" में है। क्योंकि कर्जा उतारना भी तो बराबरी का ही पड़ेगा न...! यदि सुनना चाहती हो तो सुनो हनुमानजी का कर्जा कैसे उतारा जा सकता है।

पहले हनुमान विवाह करें, लंकेश हरें इनकी जब नारी।

मुदरी लै रघुनाथ चलै, निज पौरुष लांघि अगम्य जे वारी।

अायि कहें, सुधि सोच हरें, तन से, मन से होई जाएं उपकारी।

तब रघुनाथ चुकायि सकें, ऐसी हनुमान की दिव्य उधारी।।

देवी! इतना आसान नहीं है, हनुमान जी का कर्जा चुकाना। मैंने ऐसे ही नहीं कहा था कि...!

"सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं"

मैंने बहुत सोच विचार कर कहा था। लेकिन यदि आप कहती हो तो कल राज्य सभा में बोलूंगा कि हनुमानजी भी कुछ मांग लें।

दूसरे दिन राज्य सभा में सब एकत्र हुए,सब बड़े उत्सुक थे कि हनुमानजी क्या मांगेंगे, और रामजी क्या देंगे।
राघवजी ने कहा! हनुमान सब लोगों ने मेरी बहुत सहायता की और मैंने, सब को कोई न कोई पद दे दिया। विभीषण और सुग्रीव को क्रमशः लंका और किष्कन्धा का राजपद,अंगद को युवराज पद। तो तुम भी अपनी इच्छा बताओ...?

हनुमानजी बोले! प्रभु आप ने जितने नाम गिनाए, उन सब को एक एक पद मिला है, और आप कहते हो...!

"तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना"

तो फिर यदि मै दो पद मांगू तो..?
सब लोग सोचने लगे बात तो हनुमानजी भी ठीक ही कह रहे हैं। रामजी ने कहा! ठीक है, मांग लो, सब लोग बहुत खुश हुए कि आज हनुमानजी का कर्जा चुकता हुआ।

हनुमानजी ने कहा! प्रभु जो पद आप ने सबको दिए हैं, उनके पद में राजमद हो सकता है, तो मुझे उस तरह के पद नहीं चाहिए, जिसमे राजमद की शंका हो, तो फिर...! आप को कौन सा पद चाहिए...?

हनुमानजी ने रामजी के दोनों चरण पकड़ लिए, प्रभु ..! हनुमान को तो बस यही दो पद चाहिए।

हनुमत सम नहीं कोउ बड़भागी। नहीं कोउ रामचरण अनुरागी।।

जानकी जी की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए राघवजी बोले, लो उतर गया हनुमानजी का कर्जा!

और अभी तक जिसको बोलना था, सब बोल चुके है, अब जो मै बोलता हूं उसे सब सुनो, रामजी भरत भैया की तरफ देखते हुए बोले...!

"हे! भरत भैया' कपि से उऋण हम नाही"........

हम चारों भाई चाहे जितनी बार जन्म लेेलें, हनुमानजी से उऋण नही हो सकते। 

आनन्द ही आनन्द🙏🏻🌹
जय श्री हनुमान जी महाराज की जय

🙏🙏🙏🙏🙏


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Friday 7 February 2020

कृष्ण आनंद के देवता है।

कभी सूरदास ने एक स्वप्न देखा था... कि रुक्मणी और राधिका मिली हैं और एक दूजे पर निछावर हुई जा रही हैं।

सोचता हूँ,  कैसा होगा वह क्षण जब दोनों ठकुरानियाँ मिली होंगी। 

दोनों ने प्रेम किया था। 
एक ने बालक कन्हैया से, दूसरी ने राजनीतिज्ञ कृष्ण से। 

एक को अपनी मनमोहक बातों के जाल में फँसा लेने वाला कन्हैया मिला था,दूसरी को मिले थे सुदर्शन चक्र धारी महायोद्धा कृष्ण।

कृष्ण राधिका के बाल सखा थे, पर राधिका का दुर्भाग्य था कि उन्होंने कृष्ण को तात्कालिक विश्व की महाशक्ति बनते नहीं देखा। 

राधिका को न महाभारत के कुचक्र जाल को सुलझाते चतुर कृष्ण मिले, न पौंड्रक-शिशुपाल का वध करते बाहुबली कृष्ण मिले।

रुक्मणी कृष्ण की पत्नी थीं, महारानी थीं, पर उन्होंने कृष्ण की वह लीला नहीं देखी जिसके लिए विश्व कृष्ण को स्मरण रखता है।

उन्होंने न माखन चोर को देखा, न गौ-चरवाहे को। 
उनके हिस्से में न बाँसुरी आयी, न माखन।

कितनी अद्भुत लीला है, 
राधिका के लिए कृष्ण कन्हैया था।
रुक्मणी के लिए कन्हैया कृष्ण थे।

पत्नी होने के बाद भी रुक्मणी को कृष्ण उतने नहीं मिले कि वे उन्हें "तुम" कह पातीं। 
'आप' से 'तुम' तक की इस यात्रा को पूरा कर लेना ही प्रेम का चरम पा लेना है। 
रुक्मणी कभी यह यात्रा पूरी नहीं कर सकीं।

राधिका की यात्रा प्रारम्भ ही 'तुम' से हुई थीं। उन्होंने प्रारम्भ ही "चरम" से किया था। 
शायद तभी उन्हें कृष्ण नहीं मिले।

कितना अजीब है ना..! 
कृष्ण जिसे नहीं मिले,  युगों युगों से आजतक उसी के हैं।
और 
जिसे मिले उसे मिले ही नहीं।

तभी कहता हूँ...
कृष्ण को पाने का प्रयास मत कीजिये। 
पाने का प्रयास कीजियेगा तो कभी नहीं मिलेंगे। 
बस प्रेम कर के छोड़ दीजिए..जीवन भर साथ निभाएंगे कृष्ण। 

कृष्ण इस सृष्टि के सबसे अच्छे मित्र हैं। 
राधिका हों या सुदामा... कृष्ण ने मित्रता निभाई तो ऐसी निभाई कि इतिहास बन गया।

🌹🙏🌹 जय श्री राधे कृष्णा 🌹🙏🌹


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🙏श्री सावता माली और भक्तिमति नागू जी🙏


श्री पंढरिनाथ भगवान् विट्ठल के भक्तो में संत सावता माली एक महान भक्त हुए है। अरणभेंडी(अरणगाव) नामक गाँव इनका निवास था,व्यवसाय से ये माली का काम करते थे। संत सावता माली और इनकी पत्नी जनाबाई दोनों प्रभु की भक्ति में सदा मग्न रहते। नागू नाम की इनकी कन्या भी उच्च कोटि की भक्त थी।

मराठी भाषा में ‘साव’ का अर्थ चारित्र्य, सज्जनता । सावता यह भाववाचक शब्द है । सभ्यता, साधारण पन यह इसका अर्थ है ।

श्री सावता माली -जन्म : इ .स १२५०
वैकुण्ठ गमन :आषाढ़ वद्य चतुर्दशी ,१२१७ (१२ जुलाई १२९५),अरणगांव 

संत जी हमेशा कहते और मानते थे की यह बाग भगवान् की है और भगवान् ने हमें इसकी देख रेख हेतु नियुक्त किया है।  बाग़ में तरह तरह के फल , सब्जियां एवं पुष्प लगे थे। बाग़ में वारकरी (वैष्णवो द्वारा पंढरपुर पैदल यात्रा) यात्रियों और बहुत से लोगो का आना जाना लगा रहता क्योंकि संत सवतामाली की बाग थी ही ऐसी।

एक दिन गाँव के एक व्यक्ति ने गाँव में बात फैला दी की सावता माली नास्तिक है। वो कभी भगवान् का दर्शन करने नहीं जाता और पंढरपुर यात्रा को भी नहीं आता , उसके बाग़ के फल सब्जी खाना पाप है! उस से बोलना भी पाप ही है। धीरे धीरे संत जी की बाग में वारकरी भक्तो का आना जाना बंद हो गया, वे लोग बाग के सामने से निकलते परंतु बाग के अंदर अब नहीं जाते।

इस बात से सावता माली की पुत्री ,भक्ता नागू बहुत दुखी रहने लगी। एक दिन कुछ वारकरी पंढरपुर यात्रा पर निकले थे और बाग़ की सामने से निकलते समय नागू ने उनसे पूछा – आप बाग में क्यों नहीं आते है? उन लोगो ने कहा – सावता माली पंढरपुर के रास्ते पर ही पास में रहता है ,परंतु फिर भी दर्शन को नहीं आता, वो पक्का प्रपंच में फस गया है,उसको पर्मार्थ नहीं चाहिए । मुख से’ विट्ठल ‘राम कृष्ण हरी ‘ नाम तो लेता है परंतु प्रभु के दर्शन को नहीं जाता, हम क्यों आये उसकी बाग के अंदर?

भक्ता नागू ने अपने पिता से कहा – पिताजी हम लोग क्यों नहीं जाते इस वारी (पैदल यात्रा)के साथ पंढरपुर?जाते है ना हम भी?

संत सावता माली कहने लगे – बेटी ,प्रभु को ये पसंद नहीं आएगा , वह कहेंगे काम छोड़ कर यहाँ क्यों आये हो? ये बाग भगवान् विट्ठल की है ।काम छोड़ कर उनके पास गए तो वो कहेंगे – क्यों आये हो यहाँ पर, मेरी बाग वहाँ सुख गयी तो? मेरी बाग़ सुख गयी तो मुझे नहीं चलेगा, तुमको मैंने जो काम दे रखा है वो छोड़ कर यहाँ क्यों आये हो?

सत्य बात ये थी की सावता माली इतनी ऊँची अवस्था को प्राप्त हो चुके थे की उनको सर्वत्र हरी दर्शन होता था,मुख से नाम निकलता रहता था परंतु अन्य लोग यह लीला नहीं समझते। दूसरा उनका भाव था की यहाँ से होकर संत महात्मा पंढरपुर की यात्रा के लिए जाते है,थकान होती होगी अतः उनकी सेवा हम फल फूल आदि से करे। यदि बाग़ छोड़ कर चले गए तो संत महात्माओ की सेवा नहीं होगी। संतो के चरणों में इनकी बहुत भक्ति थी ।पर साधारण लोग यही समझते की सावता माली नाम तो जपता है पर मंदिर में कभी नहीं जाता ।

नागू बहार खेलने निकल गयी। उसने कुछ सोच विचार किया और पुनः अंदर आकर बोली – पिताजी हम नहीं जाएंगे पंढरपुर पर विठू को तो यहाँ बुलवा लीजिये। प्यार से नागू भगवान् को धन्या ,विठू ,विठुराय ऐसे नामो से संबोधित करती । नागू निरंतर अपने पिता से पूछा करती -बाबा इस बाग का स्वामी वह विठू है न? तब वह बाग में कभी पधारता क्यों नहीं है? सावता माली को अपनी कन्या के प्रति बड़ा कौतुक लगा । उन्होंने बेटी को प्यार से अपने पास बिठाया और कहा – बेटी, वो तो समस्त जगत के पालनकर्ता है । उनको बहुत काम होता है ! परंतु जब उनको समय मिलेगा वह अवश्य आएंगे ।

एक दिन की बात है, कुछ वारकरी संत और यात्री पंढरपूर यात्रा पर प्रभु से भेट करने निमित्त निकले। नागू को जैसे इस बात का पता चला उसने एक टोकरी में कुछ गाजर और मूली भर दिए । उसने उन वारकरी भक्तो से कहा – भैया, यह नैवेद्य मेरे विठुराय को ले जाकर दोगे क्या? उसको कहना की यह सब्जी ,फल उसके ही बाग के है । बहुत से वारकरी तो रुके ही नहीं, अनदेखा कर के चले गए । आगे आने वाले कुछ वारकारियो ने उस भक्ता का मजाक उड़ाया और कहा छी !मूली और गाजर? ये लेकर जाएँ ? वह उस टोकरी को फेक कर आगे चले गए । परंतु एक बुढा वारकरी भक्त उस कोमल हृदया भक्ता के मन का भक्तिभाव जान गए। उन भक्त ने वह टोकरी उसके हाथ से ले ली और कहने लगे – मै दूंगा हां यह सब्जी और फल भगवान् विट्ठल को।

नागू को आनंद हुआ। उस कन्या भक्ता ने कहा – भैया, विठू से कहना की बाग उसकी ही है। मेरे माता पिता दिनरात तुम्हारा ही नाम जपते रहते है और हां ,मै भी उन्ही का नाम लेती हूं । विठुराय को कहना ,नागू आपकी प्रतीक्षा कर रही है। आप मेरी प्रार्थना निवेदन दे कर शीघ्र लौटना। दोगे न मेरा संदेश ? आहाहा ! उस भक्ता की वाणी सुनकर उस वारकरी भक्त का हृदय भर आया । निष्पाप,निस्वार्थ और अपार प्रेम। इस कन्या का निमंत्रण सुनकर वह अवश्य आएगा ।

उस वारकरी ने कहा – बेटी मै तुम्हारी प्रार्थना अवश्य निवेदन करूँगा और भगवान् भी अवश्य आएंगे । उनका अपने भक्तो पर बहुत प्रेम है । अरणभेंडी गाँव से पंढरपूर १८ मिल की दूरी । वारकरी भक्त ने हाथ में टोकरी ली और चल पड़ा ।मंदिर पहुँच कर उसने नागू का संदेश वैसा का वैसा भगवान् को सुनाया ।

उस दिन शाम को बाग का काम पूर्ण कर के संत सावता माली अपनी बेटी नागू से बोले – चलो बेटी,घर चले । तुम्हारी माता प्रतीक्षा करती होगी । नागू ने कहा – बाबा ,आज तो वह पांडुरंग आने वाला है । मैंने वारकरी भैया के साथ सब्जी और फल नैवेद्य के रूप में भेजे है। शीघ्र लौटना ऐसा भी कहा है। विठू आता होगा, मुझे प्रतीक्षा करनी चाहिए। मै यही ठहरूँगी । संतो ने लिखा है ही सभी वैष्णवो के ह्रदय में जिस दिन नागू जैसा दृढ़ विश्वास आएगा उस दिन भगवान् से मिलान अवश्य होगा । प्रह्लाद और नागू जैसा दृढ़ विश्वास भगवान् की प्राप्ति को सहज बना देता है । बेटी का ऐसा भगवत्प्रेम देख कर संत सावता माली धन्य हो गए। उन्होंने बेटी को अपने पास बिठाया और कहा – मै भी रुकता हूं यहाँ पर । संत सावता माली विठुराय का स्मरण करने लगे।

बहुत समय बीत गया बेटी और पति घर नहीं आये ऐसा सोच कर सावता माली की पत्नी जनाबाई को चिंता होने लगी। कुछ देर प्रतीक्षा करने के पश्चात जनाबाई भी बाग में आ गयी । बेटी की प्रेम अवस्था और प्रभु भक्ति देख जनाबाई भी अश्रुपात करने लगी। सब परिवार सुध बुध खो कर प्रभु का स्मरण करने में मग्न हो गए। नाम जप करते करते पूरी रात बीत गयी किसी को पता न चला । नागू ने भगवान् का दर्शन प्राप्त करने के लिए रट लगा दी, उसने अन्न जल त्याग दिया और भजन में लगी रही।

संत श्री नामदेव ने अपनी वाणी में कहा है – संत श्री सावता माली जी की योग्यता क्या है इसका हमने संतो के साथ प्रत्यक्ष अनुभव किया है।

बूढा वारकरी भक्त ने जैसे ही भगवान् को नागू का संदेश सुना कर प्रणाम् किया उसी क्षण तत्काल प्रभु मंदिर से बहार चले गए और सीधे संत सावता की बाग में चले गए । सावता माली के पास जब प्रभु आये तब प्रभु के दर्शन केवल सावता माली को ही हुए थे, उन्हें देख कर संत जी ने विचार किया- इस सुंदर विठू को कहा रखे और क्या करे ? आहाहा ऐसी हलचल उनके मन में होने लगी ।श्री कृष्ण तो नटवर है,उनकी लीला कौन समझ सके।  प्रभु ने विचित्र लीला की और भगवान् पांडुरंग कृष्ण बोले – बाबा , मेरे पीछे लोग पड गए है ,आप हमको कही छिपा लो। संत जी ने यहाँ वह देखा की कहा छिपावे, परंतु बाग़ तो खुली खुली थी । छुपने कि जगह ही नहीं । संत तो सरल ह्रदय और भोले होते है, बिना कुछ सोच विचार के संत सावता माली ने सब्जी काटने का खुरपा लेकर ह्रदय और पेट के बिच वाले हिस्से को चिर दिया ।

भगवान् पांडुरंग ने अतिलघुरूप धारण कर लिया और जाकर सीधे संत सावता माली के हृदय में जाकर बैठ गए। भगवान् भी रंग बिरंगी लीलाये करते है । भगवान् को संत जी के हृदय में रहना बहुत अच्छा लगा । प्रभु हृदय में विलीन हो गए ,संत निरंतर अपने हृदय में उस दिव्य ज्योति का दर्शन करने लगे । उनको दर्शन तो आत्मरूप से होता रहता परंतु संत जी सोचने लगे अब हमारी बेटी और पत्नी को दर्शन कैसे हो?भगवान का साकार रूप तो मेरे ह्रदय में विलीन होकर निराकार हो गया , अब उस कृष्ण के रस स्वरुप को प्रकट करके बेटी और पत्नी को दर्शन कैसे करावे ?

संतो का शरीर ही एक मंदिर है । उनके ह्रदय में भगवान और भक्ति देवी का निवास होता है , अंग अंग में तीर्थ विराजते है ।संत केवल मंदिर में ही नहीं अपितु कण कण में भगवान् का दर्शन करते है, इस बात की प्रतिष्ठा करने के लिए भगवान ने एक लीला की । पंढरपुर  में उस दिन बहुत से वारकरी भक्तो का समूह मंदिर में आया पर प्रभु वहाँ दिखे नहीं । किसको कुछ समझ नहीं आ रहा था।  बाद में श्री निवृत्तिनाथ,ज्ञानदेव ,सोपानदेव, मुक्ताबाई आदि अनेक महान् संत भी उस दिन भगवान् विट्ठल के दर्शन के लिए पंढरपूर में मंदिर पधारे । अंदर जाकर देखा तो भगवान् मंदिर में नहीं है। भगवान् को ढूंढे कैसे? संत श्री ज्ञानदेव जी ने कुछ क्षण ध्यान लगाया और कहा – चलो, भगवान् अरणगाव में कही गए है ।

भगवान् के कंठ में तुलसी हार तो होता ही है, अंगो से भी सुंदर सुगंधि आती है। सुंगंध के पीछे पीछे चल कर पता लग जायेगा। सब संत मंडली तुलसी की सुगंधि के पीछे चले जा रहे है।  चलते चलते आ पहुचे श्री सावता माली जी की बाग में।नागू उस समय सावता माली की गोद में सिर रख कर विरह में विट्ठल स्मरण कर रही थी । संतो को देख कर सावता माली आनंद में भर गए और कहने लगे – आज हमारा भाग्य बड़ा है । हम धन्य हो गए, संतो के चरण से हमारा घर पावन हो गया । नामदेव जी ने कहा – बाबा आपका भाग्य तो बड़ा ही है !हमारे चरण यहाँ पधारे इसलिए नहीं! भगवान् पांडुरंग यहाँ आये इसीलिए ! बताओ तो हमारे प्रभु कहा है ?

संत सावता माली कहने लगे – मै स्वयं प्रभु की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।यह बालिका ४ दिनों से अन्न जल त्याग कर भगवान् के आने की आस लगाये बैठी है।  नामदेव ने कहा – कुछ भी मत बोलो, ज्ञानदेव जी ने कहा हैं प्रभु यही पर है। असत्य कैसे होगा ?तुमने प्रभु को कहा छुपाया है वो बताओ ?

सावता माली ने कहा – मै प्रभु को कहा छुपाऊ? और प्रभु क्यों छुप के रहेंगे ? भगवान् यदि छुपे होंगे ही तो मेरे हृदय मे ही! दूसरी जगह कहाँ? मुझे तो प्रभु सर्वत्र दीखते है, वे कण कण में व्याप्त है। ये फूल पौधे के सब उसके ही रूप।

ज्ञानदेव बोले – वाह वाह यहाँ विट्ठल छुपे नहीं यहाँ तो विट्ठल सर्वत्र बिखरे है , सुगंध की तरह । सावता माली बोले – ज्ञानदेव जी भगवान् का निराकार सर्वव्यापक रूप मेरे और आपके लिए अच्छा है परंतु हमारी पुत्री नागू का समाधान कैसे हो? उसको तो सगुण साकार रूप ही प्रिय है , इसने विट्ठल दर्शन की रट लगा राखी है, ४ दिन से अन्न जल कुछ लिया नहीं ।इस बालिका का समाधान मै कैसे करू ?

नामदेव जी कहने लगे – अभी तो आपने कहा ,भगवान आपके हृदय में है। सावता माली ने कहा – ये भी सत्य है नामदेव जी ,यहां वहां क्यों ढूंढना ? आपने अच्छी याद दिलायी । सावता माली ने साग फल काटने वाला खुरपा उठाया और खच्च से छाती पर मारा और कहा – पांडुरंग विट्ठल मेरे हृदय से बहार आओ और साकार रूप में दर्शन दो । उनके ह्रदय से एक तेजस्वी प्रकाश निकला और सम्पूर्ण बाग में तुलसी की दिव्या सुगंधि व्याप्त हो गयी। भगवान् प्रकट हुए और संत सावता माली मूर्छित हो गए ।प्रभु ने अपनी कृपा दृष्टी से उनकी मूर्छा दूर की ।

भगवान् प्रकट हुए तब नागू भाग कर प्रभु के पास गयी और उनसे लिपट गयी । उसने कहा – विठु, विठु तुम आ गए ? देखो पिताजी विठू आ गया,धनी आ गया। मुझे पता था वह अवश्य आएगा।  सब संत मंडली ने हरिनाम संकीर्तन किया ,उसके बाद सावता माली ने संतो और प्रभु को भोजन प्रसाद पवाया। भगवान् ने अपनी गोद में नागू को बिठाकर प्रसाद पवाया। नागू ने कहा – विठु !अब कही जाना नहीं हां। इसपर नामदेव जी बोले- बेटी यहाँ रहकर कैसे चलेगा,प्रभु को जगत के बहुत कार्य करने होते है। वे व्यस्त होते है ।

नागू ने कहा यह भी ठीक ही है परंतु बीच बीच में आते रहना।ये बाग आपकी ही तो है और हम सब आपके सेवक, आओगे ना ? भगवान् कहने लगे – क्यों नहीं आऊंगा?तुमने याद किया तब आ जाऊंगा ,तुम्हारे प्रेम में बंध आना ही पड़ेगा । सावता माली – जनाबाई को प्रभु ने आशीर्वाद दिया और नागू को लाड लड़ा कर प्रभु अंतर्धान हो गए।

🌹🙏🌹 जय श्री राधे कृष्णा 🌹🙏🌹

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Wednesday 5 February 2020

नारद मोह प्रसंग I



परम सौभाग्यशाली मानसानुरागी जननमन सबहिं पुराणों में नारदजी के अनेक जन्मों का प्रसंग आता है। उन्होंने जीवन के अनेक रूपों का अनुभव किया है और वे अनुभव उनके अन्तर्मन में कहीं न कहीं संस्कारों के रूप में       विद्यमान हैं। 


हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि।।

आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा।।

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा।।

सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।

मानस बालकांड 124/1-4


मानस में लिखा है कि वे हिमालय की उपत्यका में आते हैं और जब वहाँ का वातावरण देखते हैं कि  बड़ी ,सुगन्धित वायु बह रही है, झरना बह रहा है  तथा चारों तरफ हरियाली है तो उन्हें लगता है कि भगवान का ध्यान करने के लिए यह स्थल बड़ा अनुकूल है, नारद वहाँ एक गुफा में बैठकर प्रभु के ध्यान में तल्लीन हो जाते हैं। आपको पता होगा कि नारद को दक्ष प्रजापति ने शाप दिया था कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं भी नहीं ठहर सकते। 


दक्ष द्वारा निर्मित पुत्र जब बड़े हो जाते थे तो नारद वहाँ पहुँच कर उन्हें ऐसा सत्संग प्रदान करते थे कि वे घर बार छोड़कर वन में चले जाते थे। इसीलिए दक्ष ने उन्हें कहीं अधिक देर तक न ठहरने का शाप दिया था। पर इस शाप से नारद की कोई हानि नहीं हुई,बल्कि लाभ ही हुआ। क्योंकि घूमते रहने से अधिकाधिक लोगों की समस्याओं से उनका परिचय होता गया और वे उनके दुखों को दूर करने में प्रयत्नशील होते रहे।


पर आज उनके अंतःकरण में अन्तर्मुखता की बृत्ति आ गयी और वे बैठकर ध्यान में लीन हो गये। फलस्वरूप प्रजापति का शाप ब्यर्थ चला गया,क्योंकि शाप तो तब कार्य करता,जब नारद देश और काल की सीमा में होते वे तो ध्यान में बैठकर, देश, काल और ब्यक्तित्व की सीमा से ऊपर उठ गये थे। इसका अर्थ यह है कि यदि ध्यान में बैठने पर भी यह याद बनी रहे कि मैं कहाँ बैठा हुआ हूँ,कितना समय हुआ है,मैं कौन हूँ,तो समझ लेना चाहिए कि ध्यान बिल्कुल अधूरा है।


उदाहरणार्थ,जब यह कहते हैं कि ध्यान कीजिये कि,अयोध्या नगर में सरयू बह रही हैं,सरयूजी के किनारे एक कल्पतरु के नीचे एक सिंहासन है और उस सिंहासन पर, भगवान राम और सीता बैठे हुए हैं, तब यदि ब्यक्ति देश के प्रति सजग होगा,तो उसे लगेगा कि नहीं, मैं तो इस शहर में ही बैठा हुआ हूँ। वह अयोध्या,बृन्दावन या उस देश की कल्पना नहीं कर सकता, जहाँ का वह ध्यान करना चाहता है। फलस्वरुप उसमें तन्मयता नहीं आ पायेगी। इसी प्रकार जब काल का चिन्तन करेगा,तब भी उसे दूरी की अनुभूति होगी। उसे लगेगा कि भगवान का अवतार तो कितना पहले हुआ था,अतः हमारे और उनके काल में बड़ी दूरी है,अब राम भला कहाँ हैं,कृष्ण कहाँ हैं ? इसका परिणाम यह होगा कि उसको सच्चा ध्यान नहीं लग पायेगा।


इसी प्रकार सच्चे ध्यान के लिए ब्यक्तित्व की सीमा को भी लाँघना पड़ता है। जैसे भगवान का ध्यान करता हुआ ब्यक्ति अपने आप को कुछ करता हुआ पाता है। भक्त ध्यान करता हुआ देखता है कि वह माला गूँथकर भगवान को पहना रहा है।अब वह अपने आपको जिस शरीर से माला पहनाता हुआ देखता है,वह स्थूल शरीर तो है नहीं,वह तो उसका भावनात्मक शरीर है। ऐसी स्थिति में यदि उसका स्थूल शरीर ही उसके चिन्तन में आता रहा,तो वह सच्ची तन्मयता नहीं प्राप्त कर सकेगा।


नारद ने देश,काल और ब्यक्तित्व तीनों से ही मुक्ति प्राप्त कर ली। इसलिए दक्ष के शाप का कोई अर्थ नहीं रह गया,क्योंकि वे न तो किसी स्थान में बैठे थे,न किसी काल में और न ब्यक्तित्व की सीमा में थे। वे दिब्य मनःस्थिति में थे। लेकिन स्वर्ग में बैठे हुए इन्द्र के मन में भय पैदा हो गया कि नारद कहीं स्वर्ग पर अधिकार करने के लिए तो तपस्या नहीं कर रहे हैं और वह ऐसा सोच, उनकी तपस्या भंग करने की चेष्टा में लग जाता है।


यहाँ पर गोस्वामीजी एक बड़े महत्व की मनोवैज्ञानिक बात कहते हैं। वैसे लगता तो यही है कि दुर्गुणों की ओर से ब्यक्ति के जीवन में बाधा आती है, लेकिन कभी कभी ऐसा भी दिखाई देता है कि दुर्गुण और सद्गुण मिलकर साधक के जीवन में बाधा की सृष्टि कर रहे हैं। नारद की तपस्या को भंग करने की बृत्ति किसी राक्षस या दैत्य के मन में नहीं आयी,वह आती है इन्द्र के मन में। और इन्द्र कौन है ? सबसे बड़ा पुण्यात्मा। सौ अश्वमेध करने वाला ही इन्द्र का पद प्राप्त करता है। तो ऐसा इन्द्र जो स्वयं सत्कर्म करने वाला है,वह दूसरे को सत्कर्म से विरत करने की चेष्टा करत है,तब यह बात बड़ी अटपटी-सी लगती है।


पर विद्वज्जन! यही समाज और जीवन दोनों का सत्य है। अच्छे काम में बाधा केवल बुरे लोग ही नहीं डालते, कभी - कभी अच्छे लोग भी डालते हैं। जब उनके मन में यह ईर्ष्या उत्पन्न होती है कि कहीं वह मुझसे बढ़िया काम न कर दे। अच्छा कहलाने वाले ऐसे ईर्ष्यालु ब्यक्ति भोगपरायण होते हैं। वे सत्कर्म के बदले कुछ पाना चाहते हैं। उनके मन में यही चिन्ता रहती है कि बँटवारे में सब मुझे ही मिले,दूसरों को कुछ न मिल पाये।


तुलसीदासजी से किसी ने पूछा कि स्वर्ग में जाकर ब्यक्ति तो दुर्गुणों से मुक्त हो जाता होगा, गोस्वामीजी ने ब्यंग्य करते हुए कहा - और दुर्गुण चाहे कम हो जाँय, पर वहाँ जाकर एक दुर्गुण बढ़ जाता है - और वह है ईर्ष्या। वे विनयपत्रिका में लिखते हैं -


"स्वर्गहु मिटइ न सावत"


स्वर्ग में सौतियाडाह नहीं मिटती, ईर्ष्या नहीं मिटती।


अब नारद हैं त्यागी और इन्द्र हैं भोगी। और विचित्रता यह है कि त्याग और भोग दोनों ही पुण्य के फल हैं। पुण्य से ब्यक्ति को भोग भी प्राप्त हो सकता है और वैराग्य भी। चुनाव तो ब्यक्ति को करना है। देवर्षि नारद तो  पुण्य के द्वारा वैराग्य पाने के पक्ष में हैं, पर इन्द्र में भय उत्पन्न होता है कि कहीं ए मेरे स्वर्ग पर अधिकार पाने के लिए ही तो तपस्या नहीं कर रहे हैं। इन्द्र अपने मापदंड से नारद को मापता है। उसे लगता है कि हमने इतना सत्कर्म करके स्वर्ग प्राप्त किया, नारद भी निश्चय ही स्वर्ग पाने के लिए तप कर रहे होंगे। और तब यहाँ पर दुर्गुण के साथ देवता का एक अनोखा समझौता हो जाता है।


इन्द्र काम को बुलाकर कहता है - "सहित सहाय जाहु मम हेतू।" 


- कामदेव तुम अपने सहायकों के साथ जाओ और नारद को ध्यान से विरत करने की चेष्टा करो। काम अप्सराओं को लेकर नारद के पास आता है, पर नारद के मन में अप्सराओं के मोहक हाव-भाव,नृत्य आदि का रंचमात्र प्रभाव भी नहीं पड़ा। वे शान्त भाव में बैठे रहते हैं। यह देख काम के मन में यह भय उत्पन्न होता है कि कहीं मुनि क्रोध करके मुझे भस्म न कर दें। नारद शान्त भाव से काम को देखते हैं। काम,डर के मारे उनके चरणों में जा गिरता है और कहता है महाराज ! मैंने जो कुछ किया है,वह इन्द्र के कहने से किया है। काम के इस कथन का अर्थ यही है कि यदि दण्ड देना हो तो इन्द्र को दीजिएगा, मुझे नहीं। 


मित्रों ! यही ब्यक्ति के जीवन की बिडम्बना है। अभी तक तो काम, इन्द्र का सहयोगी बना हुआ था और अब जब अपने उद्यम में असफल हो गया, तब कहता है कि यह मैंने अपनी इच्छा से नहीं किया है। फिर भी नारद को क्रोध नहीं आया। 


श्रद्धेय मानस-रत्नजी ने  "कामात्क्रोधोभिजायते"  गीताजी के सूत्र का , इस प्रसंग में विलक्षण विस्तार किया।


और नारदजी ने मुस्कुराते हुए काम से कहा - तुम इन्द्र से जाकर कह देना कि मेरे अंतःकरण में स्वर्ग का कोई लोभ नहीं है, वह आनन्द से स्वर्ग के भोगों को भोगे, राज्य करे। काम नारद के चरणों में प्रणाम करके चला गया।


लेकिन एक विचित्र बात हो गयी। अभी नारद के जीवन में सद्विचारों की,सत्कर्मों की, साधना की इतनी बढ़िया खेती हुई थी, पर अब उसकी बगल में घास उग आई और नारद उस घास को अनदेखा कर देते हैं, घास की पहचान नहीं कर पाते हैं। यही नारद की समस्या है। रोग तब होता है जब रोगी कुपथ्य करता है। नारद ने सभी इन्द्रियाँ से तो कुपथ्य रोक दिया,पर एक इन्द्रिय से कुपथ्य हो गया। अप्सराओं का सौन्दर्य सामने आया, तो नेत्र से रंचमात्र कुपथ्य नहीं किया, उस पर दृष्टि तक नहीं डाली। वहीं पर उन अप्सराओं ने दिब्य सुगंध की सृष्टि की, तो नासिका के द्वारा भी उन्होंने कोई कुपथ्य नहीं किया। जिह्वा के माध्यम से भी नारद  किसी वस्तु का कुपथ्य करने वाले थे नहीं। स्पर्श-सुख को त्याग कर उन्होंने त्वचा का भी कोई कुपथ्य नहीं किया। पर एक कुपथ्य से वे बच नहीं पाये। वैसे उससे बच पाना भी बड़ा कठिन है। 


मानस-रत्नजी विनयपत्रिका के एक पद का उद्धरण देते हुए प्रायः सुनाते हैं कि-


"कोउ कछु कहै,कोउ कछु दे, यह वासना न उर से जाई।।"


वह कुपथ्य श्रवणेन्द्रिय का था। आँख, नाक, जिह्वा से कुपथ्य रोकना सरल है, पर कान का कुपथ्य ऐसा प्रिय लगता है कि बड़े-बड़े त्यागी पुरुष भी इस कुपथ्य से बच नहीं पाते। यह कान का कुपथ्य क्या था ? मित्रों ! जब काम जाने लगा तो जाते-जाते एक बात नारदजी के कान में कहता गया, और नारदजी ने बड़े प्रेम से उसे भीतर ले लिया। काम कहता गया - "महाराज ! विश्व के इतिहास में आपसे बढ़कर कोई महापुरुष हुआ ही नहीं । बस ज्योंही प्रशंसा का कुपथ्य,नारद के कान में पैठ गया और उनके अंतःकरण में घास अंकुरित हो गयी। चाहे उसे अहंकार की घास कह लीजिये या मोह की।


कहा जाता है - "जैसा अन्न,वैसा मन।" अतः अन्न के दोषों से बचने के लिए भक्तगण पहले भगवान को भोग लगाते हैं और तब उसका प्रसाद सबको बाँटकर फिर उसको स्वयं ग्रहण करते हैं। तो सामान्य भोजन को तो बहुत से लोग भोग लगाकर ग्रहण करते हैं, पर प्रशंसा के भोजन का भोग लगाना भूल जाते हैं। 


प्रशंसा का भोजन ऐसा होता है जो ब्यक्ति के जीवन में अहंकार की सृष्टि करता है। हम जब भी अपनी प्रशंसा सुनेंगे, अहंकार होने का भय बना ही रहेगा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई प्रशंसा करे ही न। ऐसी स्थिति में उपाय क्या है ?  यही कि इस प्रशंसा को भगवान को समर्पित कर दिया जाय और उसे बाँट दिया जाय। जब भी कानों में प्रशंसा आये, इसे तुरन्त भगवान को निवेदित कर दें।  नारद ने भी ऐसा किया, लेकिन बहुत देर बाद नियम यह है कि पहले भोग लगालें फिर भोजन करें। पर नारदजी तो पहले भोजन कर लेते हैं और बाद में जब थोड़ी सी जूठन बच जाती है, तब भगवान को भोग लगाते हैं। वे क्रम को उलट देते हैं।


भगवान श्रीराम ने श्रीभरतजी के सामने प्रशंसा की लम्बी थाल परोसी और बोले -


"तीनि काल त्रिभुवन मत मोरे। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।

उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।"

मिटिहहिं पाप प्रपंच सब,अखिल अमंगल भार।

लोक सुजसु परलोक सुखु,सुमिरत नामु तुम्हार।।"


बन्धुओं ! कितना बड़ा था प्रशंसा का ब्यंजन और परोसने वाले थे साक्षात् भगवान, लेकिन भरतजी ने उसका भोग भगवान को लगा दिया। 


भगवान ने पूछा - बताओ भरत! मैं ठीक कह रहा हूँ कि नहीं? मेरी दृष्टि पर तुम्हें विश्वास है कि नहीं?


भरतजी - प्रभु ! मैं आपकी दृष्टि पर विश्वास कैसे न करूँ? जब आप कह रहे हैं तो अवश्य होगा।


"अब तो अपनी निन्दा नहीं करोगे, अपने को पापी नहीं कहोगे? भगवान बोले !


भरतजी ने कहा - "नहीं भगवान ! मैं जानता हूँ,आपके सामने एक समस्या है।"


वह क्या? -


"यह कि आप दोष देख ही नहीं पाते,इसलिए मेरे दोष आपको दिखाई नहीं देते हैं, तो यह ठीक ही है।


भगवान ने पूछा - अच्छा ! दोष देखना मुझे यदि नहीं आता तो गुण देखना तो आता है।


भरतजी बोले- भगवान ! गुण देखना आपको आता तो है,पर मैं आपसे पूछता हूँ,कि तोता यदि बहुत बढ़िया श्लोक पढ़ने लगे और बन्दर बहुत बढ़िया नाचने लगे,तो वह बन्दर या तोते की विशेषता है ,अथवा पढ़ाने और नचाने वाले की?


भगवान ने कहा-पढ़ाने और नचानेवाले की !


महाराज ! बिल्कुल ठीक कहा आपने ! मैं तो तोते और बन्दर की तरह हूँ। यदि मुझमें कोई विशेषता दिखाई देती है तो पढ़ानेवाले और नचानेवाले तो आप ही हैं। इसलिए यह प्रशंसा आपको ही अर्पित है।


"सुक नाचहिं कपि पाठ प्रवीना। गुन गति नट पाठक आधीना।।"


भगवान ने भरत से कहा - भरत! तो प्रशंसा तुमने लौटा दी !


भरतजी बोले - "प्रभु ! प्रशंसा का कुपथ्य सबमें अजीर्ण पैदा कर देता है,सबको डमरुआ रोग से ग्रस्त कर देता है, लेकिन आप इस प्रशंसा को पचाने में बड़े निपुण हैं। अनादिकाल से सारे भक्त आपकी स्तुति कर रहे हैं,पर आपको तो कभी अहंकार हुआ नहीं, ऐसी स्थिति में यह प्रशंसा आपको निवेदित है।


विद्वज्जन ! नारद ने भी यदि ऐसा ही किया होता और काम की प्रशँसा सुनकर यदि वे गद्गद होकर सोचते कि भगवान कितने कृपावत्सल हैं, जो दुर्गुणों से मुझे बचा लिए और काम, क्रोध, लोभ से मुझे बचा लिए और मुझे उनसे सुरक्षित रखा, तो प्रशंसा, भगवान को अर्पित हो जाती और नारद अहंकार से न बँध पाते।



श्रीराम जय राम जय जय राम।

नमन सबहिं।



प्रभु लीला

🥀⚘जय श्री राधे ⚘🥀

प्रभु का स्वभाव भी विचित्र है,अपनी ऐसी लीला फैला देतें हैं कि मानव मन तो उसमें उलझ कर ही रह जाता है।

दक्षिण भारत में मदुरान्तक एक प्रसिद्ध स्थान है। इसका प्राचीन नाम बकुलारण्य है। यहाँ प्रसिद्ध राम मंदिर के बराबर में ही जानकी माता का मंदिर है।

जानकी माता मंदिर के निर्माण-चमत्कार से एक अंग्रेज़ की अटूट श्रद्धा जुड़ी हुई है। लायन्स प्लेस भारी व्यय और भरपूर अच्छी से तकनीक से नदी पर बाँध बनवाता था I

किन्तु प्रति वर्ष बरसात के मौसम में बाँध को बचाने के अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी बाँध टूट जाता था। लायन्स प्लेस बहुत परेशान था।

एक दिन गाँव के एक वैष्णव ने उससे जानकी माता के छोटे से मंदिर को कुछ बड़ा बनवा देने का आग्रह किया।

 लायन्स प्लेस ने व्यंग्य करते हुये कहा-"तुम्हारी जानकी माता पर बड़ी श्रद्धा है, किन्तु वह तुम्हारे लिये करती ही क्या है ? 

बाँध को टूटने से बचा कर वह तुम्हारा हित तो करती नहीं ? 

यदि इस वर्ष तुम्हारी जानकी माता बाँध को टूटने से बचा लेंगी तो जानकी माता का मंदिर मैं बनवाऊँगा ।

पुनः बाँध बनवाया गया,यह सन 1778 की घटना है। अन्य वर्षों की अपेक्षा इस बहुत अधिक, भयानक वर्षा हुई।

 बाँध ऊपर तक भर गया था, मूसलाधार वर्षा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक प्रकार से त्राहि-त्राहि का मौसम था।

लायन्स प्लेस को पूरा यक़ीन था कि इतनी भयानक वर्षा में बाँध तो कब का टूट कर बह चुका होगा ।

 वह अपनी जान जोखिम में डाल कर उसी भयानक मौसम में बाँध को देखने निकल पड़े। वहाँ जाकर देखा को उस दृश्य को देख कर उनकी आँखें फटी की फटी रह गई।

उन्होंने देखा कि एक विशालकाय बंदर रूपी मानव अपने दोनों विशाल हाथों से बाँध को मज़बूती से थामें हुये है  I

और दो ज्योतिर्मय युवक,एक श्याम वर्ण,एक ग़ौर वर्ण- धनुष वाण लिये उस बाँध पर इधर से उधर घूम रहे हैं । बाँध पूरी तरह सुरक्षित है,तनिक भी क्षतिग्रस्त नहीं । 

एकाएक लायन्स प्लेस के दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गये ।

उन्होंने लौट कर गाँव वालों को सारी बातें बताई। जय जय कारें गूँज उठे। गाँव वालों ने उन्हें बताया कि श्याम वर्ण युवक हमारी सीता माता के पति हैं I

और ग़ौर वर्ण युवक हमारी सीता मैया के देवर हैं एवं यह बंदर रूपी मानव हमारे हनुमान जी और हमारी सीता मैया के पुत्र-तुल्य सेवक हैं।

 आश्चर्यचकित रह गया आग्रेज अफ़सर लायन्स प्लेस। अगले ही दिन से लायन्स प्लेस ने सीता माता का मंदिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया।


⚘ साभार - श्री हरि मंदिर वृंदावन ⚘

हठयोग - सभी पापकर्मों से मुक्ति पाने का उपाय है हठयोग ।

हठयोग के प्रणेता भगवान शिव हैं | भगवान शिव के अनुसार राजयोग सर्वोत्तम है और एक सिद्ध राजयोगी बनने के लिए हठयोग सीढ़ी के समान है | यद्यपि कहीं-कहीं यह भी कहा गया है कि यह दोनों अन्योनाश्रित है अर्थात जिस प्रकार से बिना हठयोग के राजयोग नहीं सिद्ध हो सकता उसी प्रकार से हठयोग के लिए भी राजयोग का अभ्यास आवश्यक है |

‘चित्तवृत्तियों को विचारों द्वारा दृढ़तापूर्वक रोकना और आसन, प्राणायाम आदि की सहायता से उसको (चित्त अर्थात मन को) परमेश्वर में लय करना ही योग है’ | शरीर की बात की जाये तो प्राण और अपान वायु की एकता का नाम ही योग है |

वास्तव में प्राण और अपान वायु के वश में हो कर ही ये जीव ऊपर और नीचे दौड़ रहा है | बायें (इड़ा नाड़ी) और दाहिने (पिंगला नाड़ी) मार्ग से गति करने की वजह से यह दिखाई भी नहीं देता |

जिस प्रकार से रस्सी से बंधा हुआ शिकारी बाज उड़ने के बाद भी फिर खिंच के चला आता है, उसी प्रकार से सत, रज और तम गुणों से बंधा हुआ यह जीव अपान वायु द्वारा खिंच कर चला आता है (शरीर में) | दरअसल प्राण अपान को और अपान प्राण को खींचता है और इस प्रकार ऊपर और नीचे ठहरे हुए इन दोनों वायुओं के रहस्य को जो जानता है वास्तव में वही योग के रहस्य को जानता है |

हठयोग: हठयोग में ‘ह’ सूर्य है और ‘ठ’ चन्द्रमा | इन दोनों के योग को हम सूर्य-चन्द्रमा, इड़ा-पिंगला, और प्राण-अपान का योग भी समझ सकते हैं | इन दोनों के योग से जो प्राणायाम (जिससे प्राण को साधा जा सके) होता है वही हठयोग है |

मोटे तौर पर समझे तो अनुलोम-विलोम प्राणायाम यानी इड़ा, और पिंगला नाड़ी को एक कर सुषुम्ना द्वारा प्राणायाम करना जिससे प्राण और अपान का एकत्व होकर समाधि का लाभ हो, यही हठयोग है |

यह समाधि वह प्रक्रिया है जिससे जन्म-जन्मान्तरों के कषाय-कल्मष (मोह, आसक्ति और वासना) नष्ट होने लगते हैं और जीव सुषुम्ना से होते हुए ब्रह्मरन्ध्र में स्थित परमात्मा से मिलन के लिए चल पड़ता है |

समाधि पर अधिकार वाले योगी को सर्वाधिकार प्राप्त होता है | काल (जिसके साम्राज्य में सब आते है) भी उसका अनुचर हो जाता है | ऐसा व्यक्ति ‘स्वयं’ में अर्थात ब्रह्म में स्थित हो जाता है |

अब थोड़ा सा विषयांतर होते हुए समाधि पर आते हैं | भारतीय धार्मिक ग्रंथों में दिया हुआ है कि ध्यान और समाधि से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते हैं |

अलग-अलग ग्रंथों में यही बात कुछ मंत्रो के लिए भी दी हुई है कि उन विशेष मन्त्रों के जप से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते है और साधक का अभ्युदय या उत्कर्ष होता है और यदि प्रभु की कृपा हो जाये या उनका दर्शन हो जाये तो भी जन्म-जन्मान्तरों के पाप नष्ट होने लगते हैं |

अब प्रश्न यह उठता है कि यदि मन्त्रों के जप से, या यौगिक क्रियाओं तथा साधनाओं से पूर्व जन्म के पाप मिटने लगते तो स्वर्ग और नर्क आदि लोकों की आवश्यकता क्यों होती ? जिन धार्मिक ग्रंथों में उपरोक्त बातें लिखीं हैं वही यह भी लिखा है कि कर्मों के फल तो भोगना ही पड़ता है चाहे ईश्वरीय कृपा हो जाये तो भी | तो फिर आखिर सत्य क्या है?

दरअसल आज के समय में जब एक आम आदमी बिना किसी कारण के कष्ट भोगता है तो उसके मन में ये विचार आता है कि पूर्व जन्म में उसने कोई पाप किया होगा जिसकी वजह से आज वह कष्ट भोग रहा है और अगर वह धार्मिक है, आस्तिक है तो यह विचार काफी दृढ़ता से मष्तिष्क में उठता है |

लेकिन जब कोई व्यक्ति कष्ट भोग रहा होता है तो उसके पीछे पूर्व जन्म के कर्म नहीं बल्कि उसके पीछे उसकी जन्म-जन्मान्तर की आसक्तियां, मोह-बन्धन, और वासनाएं होती हैं |

अगर इन मोह-बन्धन और आसक्तियों को किसी प्रकार से नष्ट कर दिया जाये तो वह व्यक्ति दुःख तो भोगेगा लेकिन उस दुःख में पीड़ा नहीं होगी ऐसा व्यक्ति अगर सुख और ऐश्वर्य भी भोगेगा तो उसमे प्रमाद, घमण्ड या ख़ुशी का भाव नहीं होगा | उसके लिए सुख और दुःख एक सामान हो जायेंगे और उसे इन दोनों में एक ही भाव (आनन्द) की अनुभूति होगी |

पढ़ने में यह बात पुस्तकीय ज्ञान जैसी लग सकती है लेकिन बात प्रामाणिक है | पुराणों में और धर्मग्रंथों में जहाँ ‘पूर्वजन्म के पापों के नष्ट होने की’ व्याख्या की गयी है दरअसल वहाँ ‘पूर्वजन्म की आसक्तियों, बन्धनों और वासनाओं के नष्ट होने की’ बात कही गयी है |

ये बिलकुल उसी तरह से है जैसे अगर कोई डॉक्टर, ऑपरेशन से पहले उस नर्व-सिस्टम का, जो मष्तिष्क तक पीड़ा की जानकारी पहुंचाती है, उस अंग (जिसमे शल्य-क्रिया करनी है) से विच्छेद कर दे तो रोगी को ऑपरेशन की चीर-फाड़ के दौरान होने वाले दर्द की जरा भी अनुभूति नहीं होगी जबकि वह बहुत कष्टकारक प्रक्रिया होगी |

योग की महिमा अपार है | एक बार संदेह में आकर पार्वती जी ने भगवान शिव से एक सटीक प्रश्न किया | उन्होंने महादेव जी से पूछा “ज्ञानी लोग कहते हैं कि ज्ञान प्राप्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है अतः प्रयत्न पूर्वक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और आप सिद्ध हुए योग को ही मोक्ष देने वाला बताते हैं, ऐसा क्यों”?

इसके उत्तर में ईश्वर ने कहा “हे प्रिये! केवल ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्ति होती है, दूसरे साधन से नहीं, उनका यह कहना बिलकुल वैसे ही है जैसे कोई उत्साही वीर पुरुष कहे कि अस्त्र-शस्त्रों से ही शत्रु की पराजय होती है लेकिन तुम्ही बताओं क्या बिना युद्ध-कौशल और पराक्रम के (केवल अस्त्र-शस्त्रों की सहायता से) कोई युद्ध जीता जा सकता है ?

उसी प्रकार से बिना योगाभ्यास के, केवल ज्ञान मुक्ति नहीं दिला सकता | कोई महापुरुष ज्ञानी हो या त्यागी हो, धर्म के रास्ते पर चलने वाला हो अथवा इन्द्रियों को जीतने वाला जितेन्द्रिय हो किन्तु हे प्रिये बिना योग के कोई देवपुरुष भी मोक्ष का अधिकारी नहीं बन सकता |

उस अविनाशी आत्मा के साक्षात्कार करने में एक योग ही उपाय है दूसरा कोई नहीं | श्रेष्ठ पुरुष योगाभ्यास द्वारा ही उस आत्मा को जानकार इस हर्ष-शोक रुपी संसार का परित्याग करते हैं” |

हठयोग में प्राणायाम का अभ्यास करते-करते जब प्राणवायु सुषुम्ना में प्रवेश करती है तब मन स्थिरता को प्राप्त होता है | इसलिए प्राणायाम का अभ्यास तब तक करना चाहिए जब तक की सुषुम्ना में प्राण वायु का संचार ना होने लगे |

बिना सुषुम्ना नाड़ी में प्राणवायु के प्रवेश हुए मन का स्थिर होना लगभग असंभव है | और अगर सुषुम्ना में प्राणवायु के प्रवेश के बाद किसी कारणवश प्राणायाम का अभ्यास छूट भी गया तो भी साधक योगसाधना के मार्ग पर पीछे नहीं जाएगा, वह जब भी अभ्यास पुनः प्रारम्भ करेगा वहीँ से आगे बढ़ेगा | इस प्रकार से मन के स्थिर हो जाने को मनोन्मनी अवस्था कहते हैं |

सामान्यतया सुषुम्ना नाड़ी कफ़ आदि बंधनों से ढकी रहती है | प्राणायाम के निरंतर अभ्यास से वह मार्ग शुद्ध हो जाता है और प्राणवायु, सुषुम्ना नाड़ी के मुख को अच्छे से तोड़ देती है और फिर उसमे प्रवेश करती है |

हठयोग में ही कहीं-कहीं आष्टांग योग और कहीं-कहीं षडांग योग का ज़िक्र मिलता है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह आठ अंग अष्टांग योग के अंग है | इनमे से यम और नियम को छोड़कर शेष छह षडांग योग के अंग है | योग के इन आठ अंगो का साधन करने से, इन्ही के क्रम से मलिनता का नाश होता है और ज्ञान का प्रकाश होता है अर्थात शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है |

यम: किसी जीव को नहीं मारना, सच बोलना, कभी चोरी ना करना और ना ही किसी को चोरी के लिए कहना, बिंदु (वीर्य) की रक्षा सदैव करना और किसी प्रकार के धन, द्रव्यादी की इच्छा न करना यम के अंतर्गत आता है |

आज के युग में इन सभी का कठोरता से पालन करना एक कठिन कार्य है लेकिन लम्बे समय तक इनके अभ्यास से कुछ चमत्कारिक परिणाम दिखाई पड़ सकते हैं जैसे हिंसा न करने से कोई भी मनुष्य, हिंसक पशु, पक्षी, व्याघ्र और सर्प आदि का भय नहीं रह जाता | ऐसा कोई हिंसक प्राणी सामने आ भी जाये तो उस मनुष्य को देखते ही शांत हो जाता है |

सत्य बोलने के अभ्यास से वाकसिद्धि मिल जाती है अर्थात ऐसा मनुष्य जो कुछ भी कहता है वह वास्तव में घटित हो जाता है | कभी किसी प्रकार की चोरी ना करने से वह लोकप्रिय हो जाता है |

किसी प्रकार के धन-द्रव्यादी की इच्छा ना करने से आवश्यक वस्तुएं सदा अपने आप ही प्राप्त हो जाती हैं | धन-द्रव्यादी की इच्छा ना करने से विषयों में आसक्ति भी समाप्त होने लगती है ऐसी स्थिति में पूर्व जन्मों का ज्ञान भी होने लगता है |

कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करके वीर्य की रक्षा करने से वह सौन्दर्यवान तथा प्रचंड बलशाली होने लगता है और इसके साथ ही उसका शरीर ‘अजर’ होने लगता है |

नियम: शौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय, एवं ईश्वर की भक्ति ही नियम है | इनका महात्म्य इस प्रकार से है कि शौच के साधन से सत्वबुद्धि, मन की शुद्धता, एकाग्रता, तथा इन्द्रियों पर विजय मिलती है |

संतोष से उत्तम सुख मिलता है | वास्तव में आसक्तियों एवं वासनाओं से मुक्ति मिलने पर अपने आप शाश्वत सुख की प्राप्ति होने लगती है | तप से शरीर सिद्ध होता है और इन्द्रियों की सिद्धि (जैसे दूरश्रवण या दूरदृष्टी की सिद्धि मिलना) मिलती है अर्थात शरीर में जो रोगादि का भय होता है वह नष्ट हो जाता है |

स्वाध्याय से ईष्ट देवता के दर्शन होते हैं और जो मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर कर सकें, ऐसे ऋषि-मुनियों के दर्शन होते हैं | इन सब के साथ ईश्वर में भक्ति होने पर, समाधि का लाभ तथा उनके परमधाम की प्राप्ति होती है |

आसन: जिससे स्थिरता का सुख हो अर्थात जब तक इच्छा करे, एक ही आसन में बैठे रहने पर अगर किसी भी प्रकार का क्लेश ना हो तो उसे आसन कहते है | आसन सिद्ध होने पर साधक सर्दी,गर्मी, सुख, दुःख आदि के प्रभाव से रहित हो जाता है | मन को अपनी चेतना के वशीभूत कर लेता है और उसके सारे रोग नष्ट हो जाते है | कहा भी गया है-

“आसनं विजितम येन जितम तेन जगत्रयम” अर्थात जिसने आसन को जीत लिया समझो तीनो लोकों को जीत लिया |

ॐ नम: शिवाय।

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)