Friday 18 December 2020

श्री दुर्वासा मुनि द्वारा श्रीराधारानी को अमृतहस्ता वरदान प्राप्ति लीला ।

Barsana Radha Rani Mandir

एक बार ऋषि दुर्वासा बरसाने आए ।

श्री राधारानी अपनी सखियों संग बाल क्रीड़ा में मग्न थी ।

छोटे छोटे बर्तनों में झूठ मूठ भोजन बनाकर इष्ट भगवान श्री कृष्ण  को भोग लगा रही थी ।

ऋषि को देखकर राधारानी और सखियाँ संस्कार वश बड़े प्रेम से उनका स्वागत की ।

उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया और बैठने को कहा ।

ऋषि दुर्वासा भोली भाली छोटी छोटी कन्यायों के प्रेम से बड़े प्रसन्न हुए और  उन्होंने जो आसान बिछाया था उसमें बैठ गए ।

जिन ऋषि की सेवा में त्रुटि के भय से त्रिलोकी काँपती है,वही ऋषि दुर्वासा की सेवा राधारानी एवम सखियाँ भोलेपन से सहजता से कर रही हैं।ऋषि केवल उन्हें देखकर मुस्कुरा रहे ।

सखियाँ कहतीं है  -

" महाराज !आपको पता है हमारी प्यारी राधा न बहुत अच्छे लड्डू बनाती है। हमने भोग अर्पण किया है। अभी आपको प्रसादी देती हैं । "

यह कहकर सखियाँ  लड्डू प्रसाद ले आती हैं । 

लड्डू प्रसाद तो है,पर है ब्रजरज का बना,खेल खेल में बनाया गया ।

ऋषि दुर्वासा उनके भोलेपन से अभिभूत हो जाते हैं। हँसकर कहते हैं -

" लाली!प्रसाद पा लूँ ?क्या ये तुमने बनाया है ? "

सारी सखियाँ कहती हैं -

"हाँ हाँ ऋषिवर ! ये राधा ने बनाया है। आज तक ऐसा लड्डू आपने नही खाया होगा "

मुंह मे डालते ही परम चकित,शब्द रहित हो जाते हैं ।

एक तो ब्रजरज का स्वाद,दूजा श्री राधा जी के हाथ का स्पर्श लड्डू ।

अमृत को फीका करे ऐसा स्वाद लड्डू का

ऋषि की आंखों में आंसू आ जाते हैं।अत्यंत प्रसन्न हो वो राधारानी को पास बुलाते हैं।

और बड़े प्रेम से उनके सिरपर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं -

" बेटी आज से तुम अमृत हस्ता हुई । तुम्हारे हाथ के बनाए भोजन को पानेवाला दीर्घायु और सदा विजयी होगा "

ऋषि दुर्वासा धन्य हैं जिनके आशीर्वाद ने श्री श्री राधा कृष्ण की अत्यंत मधुर्यमयी भावी लीला के लिए मार्ग प्रशस्त किया

🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏




 

Thursday 26 November 2020

गोविंद को गायन में बसबोइ भावे ।

 


आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय, गोविंद को गायन में बसबोइ भावे।

गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें, गायन की खुर रज अंग लपटावे॥

गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो, गायन के हेत गिरि कर ले उठावे।

'छीतस्वामी' गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी, ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥

गौ चारण की सभी को  मंगलकामनाए

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Friday 20 November 2020

श्रीकृष्ण कथा

 


एक बार कन्हैया को जिद्द चढ़ गई कि मैं अपना चित्र बनवाऊँगा ,
ये बात कान्हा ने मईया ते कही, मईया मै अपना चित्र बनवाऊँगो, 

मईया बोली चित्र बनवाय के का करेगो, 
कन्हैया बोले, मोय कछू ना पतो मैं तो बनवाऊँगो,

मईया कन्हैया को एक औरत के पास ले गई जिसका नाम था चित्रा, 
वो ऐसा चित्र बनाती थी कि कोई पहचान भी ना पावे था कि असली कौन है...

मईया कान्हा को चित्रा के पास ले कर गई और कहा कि कान्हा का चित्र बना दो,
चित्रा ने कान्हा को कभी देखा नही था
चित्रा ने जैसे ही कान्हा को देखा वो देखती ही रह गयी 
और मन मे सोचने लगी इतना प्यारा लल्ला और बहुत ही प्रेम मे खो गयी 

जब मैया ने चिकोटी काटी तब कही जाकर उसकी तन्द्रा भंग हुई ,
चित्रा ने कान्हा को सीधे खडे होने या बैठ जाने को कहा -
लेकिन कान्हा टेढे होने के कारण , बार-बार टेढे खडे हो जाते या बैठ जाते,
कान्हा बोले चित्र बनाना है 
तो ऐसे ही बनाओ.
मे तो एसो ही हूँ टेडो मेडो सो,

लेकिन जब चित्रा ने कान्हा की सूरत देखती तो उनकी शरारत आँखों मैं बस गयी
चित्रा का चित कान्हा मे ही कहीं खो गया

मईया कान्हा को ले कर चली गई और 
चित्रा से बोली चित्र बना कर कल हमारे घर दे जाना

लेकिन चित्रा जब भी कान्हा का चित्र बनाती तो रोने लग जाती 
और सारा चित्र खराब हो जाता

किसी तरह उसने चित्र बनाया और मईया के घर गई.
जब मईया ने चित्र देखा तो ,ख़ुशी के मारे झूम उठी और

चित्रा को वचन दिया की
इस चित्र के बदले तू जो माँगेगी मैं दुँगी चित्रा बोली सच मईया..

मईया बोली हाँ जो माँगेगी मैं दुँगी..
चित्रा बोली तो जिसका चित्र बनायो है वाको ही दे दिओ 

मईया ये बात सुन रोने लगी और 
बोली तू चाहे मेरे प्राण मांग ले पर कान्हा को नही....
चित्रा बोली मईया तू अपना वचन तोड़ रही है
मईया रोते हुए बोली तू कान्हा के समान कुछ भी माँग ले मैं दूँगी

चित्रा बोली तो कान्हा के समान जो भी वस्तु हो तुम मुझे दे दो...
मईया ने घर और बाहर बहुत देखा पर कान्हा के समान कुछ ना मिला..

इतने मे कान्हा चित्रा को थोङा कौने मे ले जा कर बोले 
देख तू मुझे ले जायेगी तो मेरी माँ मर जायेगी
चित्रा बोली अगर तू मुझे ना मिलो तो मै मर जाउँगी.

तब कान्हा ने चित्रा को समझाया की मे तो बृज मे आया ही इस ही लिए हूँ 
तू क्या जो भी मुझ को एक बार दिल से याद करेगा 
मैं खुद ही उसके सामने आ जाऊँगा मे सब
गोपियों का लाला हूँ और मेरी तो बहुत सारी मैया हैं 

तू भी तो मेरी मैया है ,और मैं अपनी मैया कू रोते नाय देख सकू
कान्हा की भोली भोली बातो मे चित्रा रीझ गयी
और बोली जब बुलाऊगी तब आयेगो न तब कान्हा बोले तेरी सो आऊंगा 

तब चित्रा खुश हो कर मईया से बोली अरी मईया मैं तो मजाक कर रही थी,
मुझे तेरा लाला नही चाहिये..ये सुन कर मईया की जान मे जान आई 

यहाँ गोपी का कृष्ण के प्रति अनुराग और 
मैया के कृष्ण प्रेम की लीला का अद्भुत और विलक्षण द्रश्य है,

हे कृष्णा.
भक्त्ति से अधिक आनंदित करने वाली
सृस्टि में कोई वस्तु नहीं है
जिसने एक बार इस सुख को पा लिया
वह सदा सदा केे लिए प्यासा हो गया
  
 🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏

Friday 11 September 2020

बिहारी जी का कंगन

बहुत समय पहले की बात है | वृन्दावन में श्रीबांके बिहारी जी के मंदिर में रोज पुजारी जी बड़े भाव से सेवा करते थे। 

वे रोज बिहारी जी की आरती करते, भोग लगाते और उन्हें शयन कराते और रोज चार लड्डू भगवान के बिस्तर के पास रख देते थे।

उनका यह भाव था कि, 

बिहारी जी को यदि रात में भूख लगेगी तो वे उठ कर खा लेंगे और जब वे सुबह मंदिर के पट खोलते थे तो भगवान के बिस्तर पर प्रसाद बिखरा मिलता था। इसी भाव से वे रोज ऐसा करते थे। 

एक दिन बिहारी जी को शयन कराने के बाद वे चार लड्डू रखना भूल गए। उन्होंने पट बंद किए और चले गए। 

रात में करीब १०-११ बजे, मंदिर के पास के जिस दुकान से वे बूंदी के लड्डू आते थे, उन बाबा की दुकान खुली थी। 

वे घर जाने ही वाले थे तभी एक छोटा सा बालक आया और बोला, 

बाबा मुझे बूंदी के चार लड्डू चाहिए। 

बाबा ने कहा - 

लाला, बूँदी के लड्डू तो खत्म हो गए, बाकी के अभी बचे हैँ। 

तब बालक मना करते हुए बोला - 

नहीँ बाबा मुझे तो बूँदी के ही लड्डू चाहिए आप अंदर देख लीजिए कुछ बूँदी के लड्डू मिल जाऐँगे। 

अंदर गये तो केवल चार बूँदी के लड्डू अब भी बचे थे। तो देते हुए बोले, 

लाला तुम बहुत भाग्यशाली हो तुम्हारे लिए बूँदी के लड्डू मिल ही गये। 

छोटे छोटे हाथोँ मेँ लड्डू देते हुए बाबा ने कहा - 

पैसे दो।

बालक ने कहा - 

मेरे पास पैसे तो नहीं हैं परंतु, ये सोने का कंगन है आप ये ले लीजिए और कल सुबह मेरे बाबा जी पैसे दे जाऐँगे तब आप ये कंगन वापस कर दीजिएगा। 

बाबा देखते ही रह गये की, 

कितना प्यारा बालक है किसी ब्राह्मण का पुत्र है ये लड्डू चार पैसे का भी नहीँ और सोने का इतना मँहगा कंगन दिये दे रहा है। 

तो बाबा ने कहा - 

लाला पैसे नहीं हैं तो रहने दो, कल अपने बाबा से कह देना, मैं उनसे ले लूँगा। 

पर वह बालक नहीं माना और कंगन दुकान में फेँक कर भाग गया। 

सुबह जब पुजारी जी ने पट खोला तो उन्होंने देखा कि, बिहारी जी के हाथ में कंगन नहीं है। मंदिर मेँ चोरी हो गयी है। 

थोड़ी देर बाद ये बात सारे मंदिर में फ़ैल गई। सभी उदास थे की बाँकेबिहारी जी का कंगन चोरी हो गया।

मंदिर का पुजारी उस लड्डू की दुकान के पास से गुजरा। तो दुकान बाले बाबा ने पूछा की, 

क्या बात है पुजारी जी ? आज आप बहुत उदास दिख रहे हैँ और आपने आज जय श्रीराधे भी नहीँ बोला। 

पुजारी जी बोले मंदिर मेँ चोरी हो गयी है बाँकेबिहारी जी का कंगन चोरी हो गया है। 

तब उस दुकान वाले को रात की बात याद आई उसने सारी बात बताई की, 

कल रात एक तेजस्वी बालक अपना कंगन दे गया है लड्डू के बदले। 

फिर वो कंगन लाकर पंडित जी को दिया। 

पंडितजी, 

"मिल गया मिल गया बाँकेबिहारी जी का कंगन" कहते मंदिर की तरफ दौडे। 

तब मंदिर के पुजारी जी बोले, 

कल रात बाँकेबिहारी जी के पास लड्डू रखना भूल गया था तो बाँकेबिहारी जी खुद ही लड्डू ले आये। 

ये सब जानकर लड्डूबाले बाबा बोले, 

कल रात स्वयं बाँके बिहारी जी आये थे और मै पहचान न सका। 

फिर वो भगवान की भक्ति मेँ ही लीन रहने लगे।

जय श्री कुंज बिहारी👏👏

Wednesday 12 August 2020

'संकटमोचन' श्री हनुमान ।


इस मानवरूपी जीवनकाल में अक्सर इंसान खुद को विपरीत परिस्थ‍ितियों के बीच घि‍रा पाता है। मुसीबतों से पार पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। जब सारे उपाय नाकाम हो जाते हैं, तो हारकर प्रभु की शरण में आता है।

प्रभु भी अपनी शरण में आए हुए को कभी निराश नहीं करते। जिस तरह मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम दीनों पर दया करने वाले, कृपा के सागर हैं, उसी तरह उनके भक्त हनुमान भी शरण में आए भक्तों पर अपना स्नेह दिखलाते हैं। संकटों से उबारने की वजह से ही तो उन्हें 'संकटमोचन' नाम मिला है।

रामचरितमानस के किष्किंधाकांड की इन चौपाइयों में आपको सकारात्मकता का अविरल उदाहरण मिलता है। कहा जाता है कि इस अंश का पाठ करने से हनुमान जी अपने भक्तों पर असीम प्रेम बरसाते हैं।

यह वही प्रसंग है, जब सीता माता की खोज में समुद्र के पार लंका भेजे जाने के लिए जामवंत हनुमानजी को उनके असीम-अपार बल का स्मरण कराते हैं ।इसके पाठ से बड़ी से बड़ी बाधाएं दूर होती हैं और सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं...

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥


भावार्थ:-ऋक्षराज जाम्बवान् ने श्री हनुमानजी से कहा - हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है ? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥


कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

भावार्थ:- जगत् में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के (अत्यंत विशालकाय) हो गए॥

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥

सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥


भावार्थ:-उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान्जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा - मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ॥


सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥

जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥


भावार्थ:- और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान् ! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना (कि मुझे क्या करना चाहिए)॥


एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥

तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥


भावार्थ:-(जाम्बवान् ने कहा-) हे तात ! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे, केवल खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे॥


छंद :

कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनि हैं।

त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥

जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।

रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥


भावार्थ:- वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके श्री रामजी सीताजी को ले आएँगे। तब देवता और नारदादि मुनि भगवान् के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुंदर यश का बखान करेंगे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझने से मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे श्री रघुवीर के चरणकमल का मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास गाता है।


दोहा :

भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥


भावार्थ:-श्री रघुवीर का यश भव (जन्म-मरण) रूपी रोग की (अचूक) दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु श्री रामजी उनके सब मनोरथों को सिद्ध करेंगे॥


सोरठा :

नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।

सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥


भावार्थ:-जिनका नीले कमल के समान श्याम शरीर है, जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है और जिनका नाम पापरूपी पक्षियों को मारने के लिए बधिक (व्याधा) के समान है, उन श्री राम के गुणों के समूह (लीला) को अवश्य सुनना चाहिए॥


🚩जय श्रीराम🚩

🚩जय बजरंग बली 🚩


(साभार - श्री कृष्ण भारद्वाज)


Thursday 16 July 2020

भगवान कृष्ण की बाललीला ।



भगवान कृष्ण की बाललीला का एक दृष्टांत!!!

मैया कन्हैया को घर के अन्दर ले गयीं और बोली- क्यों रे लाला तने बाबा के पूजा घर में से भगवान् मुंह में धर लिये, कन्हैया बोले- मैया, वो रोज घी में नहाते है, शहद में नहाते है ना, इसलिये मैंने सोचा मीठे होंगे तो मैंने मुंह में धर लिये, मैया बोली- लाला अब ऐसा मत करना वरना कान पकड़ के मारूंगी।

ऐसो ऊधम मचावे, अब तू इतनौ छोटौ थोड़े ही है, मैया नै लाला को स्नान करायौ और बोली, स्नान करके भगवान् की पूजा में जाना चाहिये, बिना स्नान किये भीतर नहीं जाते, स्नान कराके पीताम्बर पहनायौ, आज लाला की कमर में करधनी बांधी, चरणों में नुपुर बांध दिये, मोर पंख माथे पर बांध्यो, जैसे ही नूपुर बांधे, मैया अंगुली पकड़कर लाला को चलाने लगी तो ये तो ठुमका मारकर नाचने लगे।

मैया बोली- हे भगवान् ये नाचना कब सीख लिया, लाला की मैया ताली बजाने लगी और भूल गयी, सब कुछ विस्मृत हो गयी, मैया बहुत प्रसन्न है, "नाचे नंदलाला नचावें हरि की मैया, यशोदा तेरे भाग की कही न जाय" 

आप जरा देखो सज्जनों- साक्षात् परब्रह्म, "जग जाकी गोद में, सो यशोदा की गोद में" दुनियां जिसके इशारे पर नाचती है, वो यशोदा के इशारे पर नाच रहा है- भाईयों ! थोड़े से छाछ व मक्खन के लिए गोपियां भगवान को नचां देती थी।

आपका ह्रदय ही सुंदर मंदिर है, ह्रदय रूपी मंदिर में परब्रह्म को नचाइयें, भाव से गायेंगे तो नाचेगा, यशोदाजी के भाव का दर्शन करें- लाला को कोई चीज अच्छी नहीं लगती, मैया कभी दुशाला ओढ़तीं है, गोविन्द नहीं ओढ़तें, क्यों ? क्योंकि उन्हें तो कारी कमरिया ही अच्छी लगती हैं, ऐसा सुन्दर गोपाल नृत्य करते हैं।

शेष, महेश, गणेश, दिनेश, सुरेश हुं जाहि निरन्तर ध्यावैं।
ताहि अखण्ड अनन्त अनादि अछेध, अवैध सुवेद बतावै।।
नारद से शुक व्यास रळें पचिहारि कोउ पुनि पार न पावै।
ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै।।

कृष्ण चरित्र में जो यश प्रदान करे उसे यशोदा कहते हैं, एक और बात- राधारानी की माता का नाम क्या है ? कीर्ति, और कृष्ण की माता का नाम है यशोदा, यदि आप व्याकरण के हिसाब से उसका शाब्दिक अर्थ देखें तो "कीर्तिः ददति इति कीर्तिदा" और "यशं ददति इति यशोदा" जो कीर्ति दे वो कीर्तिदा और जो यश देवे वो यशोदा, यश यानी कीर्ति और कीर्ति यानी यश।

राधा और कृष्ण दोनों की माताओं के नाम का अर्थ एक ही होता है, यदि लाला की लीलाओं में यशोदा यश प्रदान न करे तो गोविन्द को कौन जाने, गोविन्द को कौन पहचाने ? ऐसा सुन्दर चरित्र है कृष्ण का, मैया जब नृत्य करा रही लाला को, दो ढाई वर्ष के कृष्ण है, रूनक-झुनक पायल बज रही, आज एक गोपी ने गोविन्द को नृत्य करते हुए देख लिया।

उस गोपी का नाम है श्रुतिरूपा, वेद के मंत्र गोपी बनकर आऐं है, गोपी का मन रूपी मयूर नाचने लगा, दौड़ी-दौड़ी गोपियों की मण्डली में गयीं, गोपियां बोली- क्या बात है ? क्यों इतनी खुश हो रही हो ? गोपी बोली- मैंने आज विचित्र दृश्य देखा, आश्चर्य देखा, गोपियां बोली, क्या देखा ? बोली, गाय की धूल से धूसरित अंग वाला, वेदांत प्रतिपाध ब्रह्म आज यशोदा के आंगन में नाच रहा था।

श्रृणुसखि कौतुकमेकं नन्द निकेतांगणेमयादृष्टं।
गोधूलि धूसरितांगः नृत्यति वेदान्त सिद्धान्त।।

इस बात को सुनकर हजारों गोपियों के नैत्र नम हो गये और गोपियों ने मन में सोचा, हम गोविन्द का दर्शन कैसे करे ? यशोदा बड़ी भाग्यशाली है, जिसके आंगन में कृष्ण नाचता है, पर लाला का हम दर्शन कैसे करें ? अब सब विचार कर रही है, कैसे जायें दर्शन करने? सासूजी तो घर से जाने नहीं देती।

कोई-कोई सासूजी बड़ी खतरनाक होती है, स्वयं सब जगह चली जाती हैं, पर बहू को कहीं नहीं जाने देती, मैं तो हास्य-विनोद मैं कह रहा हूं, जो सास है वो बुरा न मानें।

देखे बिन कान्हा जब मन नाहिं माना,
इन आंखों से आज हमने ब्रह्म पहचाना है।
कृष्ण पद कमलों में मन को लगाना,
इन गोपियों का ताना ये उलाहना तो बहाना है।।

बहूओं ने सोचा कैसे भी कृष्ण का दर्शन करें, भले ही उलाहना के बहाने ही कृष्ण का दर्शन क्यों ना करना पड़े, कैसे करें ? सासूजी सवेरे गयीं शिव मंदिर शिवजी को जल चढ़ाने, नयी-नयी बहूओं ने घर की जितनी भी मटकीयां थी, सारी फोड़ दीं सासूजी आयीं - बहू, ये मटकी कैसी फूटी पड़ी है, बोली, माताजी ! नन्दजी के लाला आये और सारी मटकी फोड़कर चले गये।

सासूजी बोलो - अच्छा, वो नन्द के छोरा की इतनी हिम्मत की मेरे घर में आयकर मेरी मटकी फोड़कर चल्यो गयो, बहू, यदि मैं जाऊँगी तो बात ज्यादा बढ़ जायेगी, इसलिये तुम जाओ हमारी तरफ से यशोदा को उलाहना देकर आओ बड़ी खुशी की बात है, इस उलाहने के बहाने आज लाला के दर्शन तो हो जाऐंगे, इन गोपियों का ताना, ये उलाहना तो एक बहाना है।

🙏 ‼ वृन्दावन बिहारीलाल की जय ‼ 🙏

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

रागु रोषु इरिषा मदु मोहु,

मानव जीवन को कैसे जिया जाए इसका संपूर्ण उदाहरण हिंदू धर्म के ग्रंथों में निहित है। जीवन को सुखमयी और सफल बनाने के लिए बहुत सी बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है। यदि मनुष्य जाने अनजाने में ही कोई ऐसा काम कर जाए, जो उसे नहीं करना चाहिए तो उसे उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है। कौन सी आदतें अच्छी हैं और कौन से काम करने से नुकसान ही होता है इसके बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीरामचरितमानस के एक दोहे से समझा जा सकता है। आइए जानते हैं इसके बारे में-

रागु रोषु इरिषा मदु मोहु, जनि जनि सपनेहुं इन्ह के बस होहु।
सकल प्रकार बिकार बिहाई, मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।

अर्थात- राग (अत्यधिक प्रेम), रोष (क्रोध), ईर्ष्या (जलन), मद (अहंकार) और मोह (लगाव)- इस पांच कामों से हमेशा नुकसान ही होता है, अतः इनसे सपने में भी दूर ही रहना चाहिए।
 
राग यानी अत्यधिक प्रेम
जीवन में किसी भी बात की अति बुरी होती है। किसी से भी अत्यधिक या हद से ज्यादा प्रेम करना गलत होता है। बहुत ज्यादा प्रेम की वजह से हम सही-गलत को नहीं पहचान पाते। कई बार बहुत अधिक प्रेम की वजह से मनुष्य अधर्म तक कर जाता है जैसे गुरु द्रोणाचार्य। गुरु द्रोणाचार्य जानते थे कि कौरव अधर्मी है, फिर भी अपने पुत्र अश्वत्थामा से बहुत अधिक प्रेम करने की वजह से वे जीवनभर अधर्म का साथ देते रहे। पुत्र से अत्यधिक प्रेम के कारण ही गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई थी। इसलिए किसी से भी ज्यादा मोह नहीं करना चाहिए।

रोष यानी क्रोध
क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। क्रोध में मनुष्य अच्छे-बुरे की पहचान नहीं कर पाता है। जिस व्यक्ति का स्वभाव गुस्से वाला होता है, वह बिना सोच-विचार किए किसी का भी बुरा कर सकता है। क्रोध की वजह से मनुष्य का स्वभाव दानव के समान हो जाता है। क्रोध में किए गए कामों की वजह से बाद में शर्मिदा होना पड़ता है और कई परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है। इसलिए इस आदत को छोड़ देना चाहिए।

ईर्ष्या यानी जलन
जो मनुष्य दूसरों के प्रति अपने मन में ईर्ष्या या जलन की भावना रखता है, वह निश्चित ही पापी, छल-कपट करने वाला, धोखा देने वाला होता है। वह दूसरों के नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। जलन की भावना रखने वाले के लिए सही-गलत के कोई पैमाने नहीं होते हैं जैसे दुर्योधन। दुर्योधन सभी पांडवों की वीरता और प्रसिद्धि से जलता था। इसी जलन की भावना की वजह से दुर्योधन ने जीवनभर पांडवों का बूरा करने की कोशिश की और अंत में अपने कुल का नाश कर दिया। अतः हमें ईष्या या जलन की भावना कभी अपने मन में नहीं आनी देनी चाहिए।

मद यानी अहंकार
सामाजिक जीवन में सभी के लिए कुछ सीमाएं होती हैं। हर व्यक्ति को उन सीमाओं का हमेशा पालन करना चाहिए, लेकिन अहंकारी व्यक्ति की कोई सीमा नहीं होती। अंहकार में मनुष्य को अच्छे-बुरे किसी का भी होश नहीं रहता है। अहंकार के कारण इंसान कभी दूसरों की सलाह नहीं मानता, अपनी गलती स्वीकार नहीं करता और दूसरों का सम्मान नहीं करता। ऐसा व्यक्ति अपने परिवार और दोस्तों को कष्ट पहुंचाने वाला होता है।
 
मोह यानी लगाव
सभी को किसी न किसी वस्तु या व्यक्ति से लगाव जरूर होता है। यह मनुष्य के स्वभाव में शामिल होता है, परंतु किसी भी वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह भी बर्बादी का कारण बन सकता है। किसे से भी बहुत ज्यादा लगाव होने पर भी व्यक्ति सही-गलत का फैसला नहीं कर पाता और उसके हर काम में उसका साथ देने लगता है। जिसकी वजह से कई बार नुकसान का भी सामना करना पड़ जाता है।
 

🚩जय श्री हरि 🚩
🚩जय श्रीराम 🚩

(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Tuesday 30 June 2020

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना .....


सादर जय श्रीराम........ 🌺

एक बार गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज को किसी ने बताया कि जगन्नाथजी में तो साक्षात् भगवान ही दर्शन देते हैं,बस फिर क्या था, सुनकर तुलसीदासजी महाराज तो बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्रीजगन्नाथपुरी को चल दिये।महिनों की कठिन और थका देने वाली यात्रा के उपरान्त जब वह जगन्नाथपुरी पहुँचे तो मन्दिर में भक्तों की भीड़ देखकर प्रसन्न मन से अन्दर प्रविष्ट हुये। जगन्नाथजी का दर्शन करते ही उन्हें बड़ा धक्का-सा लगा। वह निराश हो गये और विचार किया कि यह हस्तपादविहीन देव हमारे जगत् में सबसे सुन्दर नेत्रों को सुख देने वाले मेरे इष्ट श्रीराम नहीं हो सकते ।

इस प्रकार दु:खी मन से बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये।सोचा कि इतना दूर आना व्यर्थ हुआ।
 क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है ? कदापि नहीं।
         
रात्रि हो गयी, थके-मांदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था।अचानक एक आहट हुई,वे ध्यान से सुनने लगे ।
अरे बाबा !तुलसीदासजी बोले  कौन है ? एक बालक हाथों में थाली लिये पुकार रहा था। उन्होंने सोचा साथ आये लोगों में से शायद किसी ने पुजारियों को बता दिया होगा कि तुलसीदासजी भी दर्शन करने को आये है। इसलिये उन्होने प्रसाद भेज दिया होगा। वे उठते हुए बोले --'हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसीदास।

बालक ने कहा, 'अरे ! आप यहाँ हैं।मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ ।'
बालक ने कहा -'लीजिये, जगन्नाथजी ने आपके लिये प्रसाद भेजा है ।'

तुलसीदास बोले -- भैया कृपा करके इसे वापिस ले जायँ।
बालक ने कहा, आश्चर्य की बात है, 'जगन्नाथ का भात !सारा जगत पसारे हाथ' और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप अस्वीकार कर रहे है।

कारण? तुलसीदासजी बोले, 'अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता हूँ।फिर यह जगन्नाथजी का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ,यह मेरे किस काम का ? '

बालक ने मुस्कराते हुये कहा अरे, बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है। तुलसीदासजी बोले यह हस्तपादविहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता ।
         
बालक ने कहा कि फिर आपने-अपने श्रीरामचरितमानस में यह किस रूप का वर्णन किया है --

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।

अब तुलसीदासजी की भाव-भंगिमा देखने लायक थी।नेत्रों में अश्रु-बिन्दु निकल रहे थे परन्तु , मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे ।
      
थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि मैं ही तुम्हारा राम हूँ। 
मेरे मन्दिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है।विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है ।कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना ।

तुलसीदासजी की स्थिति ऐसी कि रोमावली रोमांचित थी, नेत्रों से अश्रु अविरल बह रहे थे और शरीर की कोई सुध ही नहीं उन्होंने बड़े ही प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया ।

प्रातः मन्दिर में जब तुलसीदासजी दर्शन करने के लिए गये तब उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकी के भव्य दर्शन हुये।

भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की।
जिस स्थान पर तुलसीदासजी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान तुलसी चौरा नाम से विख्यात हुआ ।


🙏|| जय श्री जगन्नाथपुरी ||🙏

प्रेम से भरी ओढ़नी



 
वृंदावन के पास एक गाँव में भोली-भाली माई ‘पंजीरी’ रहती थी।.
दूध बेच कर वह अपनी जीवन नैया चलाती थी। वह मदनमोहन जी की अनन्य भक्त थी।

ठाकुर मदनमोहन लाल भी उससे बहुत प्रसन्न रहते थे। वे उसे स्वप्न में दर्शन देते और उससे कभी कुछ खाने को माँगते, कभी कुछ। पंजीरी उसी दिन ही उन्हें वह चीज बनाकर भेंट करती,

वह उनकी दूध की सेवा नित्य करती थी, सबसे पहले उनके लिए प्रसाद निकालती, रोज उनके दर्शन करने जाती और दूध दे आती।

लेकिन गरीब पंजीरी को चढ़ावे के बाद बचे दूध से इतने पैसे भी नहीं मिलते थे कि दो वक्त का खाना भी खा पाये, अतः कभी कभी मंदिर जाते समय यमुना जी से थोड़ा सा जल दूध में मिला लेती।

फिर लौटकर अपने प्रभु की अराधना में मस्त होकर बाकी समय अपनी कुटिया में बाल गोपाल के भजन कीर्तन करके बिताती।

कृष्ण कन्हैया तो अपने भक्तों की टोह में रहते ही हैं, नित नई लीला करते हैं।

एक दिन पंजीरी के सुंदर जीवन क्रम में भी रोड़ा आ गया। जल के साथ-साथ एक छोटी सी मछली भी दूध में आ गई और मदनमोहन जी के चढ़ावे में चली गई।

दूध डालते समय मंदिर के गोसाईं की दृष्टि पड़ गई। गोसाईं जी को बहुत गुस्सा आया, उन्होंने दूध वापस कर दिया,

पंजीरी को खूब डाँटा फटकारा और मंदिर में उस का प्रवेश निषेध कर दिया।

पंजीरी पर तो आसमान टूट पड़ा। रोती-बिलखती घर पहुँची-ठाकुर; मुझसे बड़ा अपराध हो गया, क्षमा करो, पानी तो रोज मिलाती हूँ, तुमसे कहाँ छिपा है,

ना मिलाओ तो गुजारा कैसे हो ? और उस बेचारी मछली का भी क्या दोष ? उस पर तो तुम्हारी कृपा हुई तो तुम्हारे पास तक पहुँची।

लेकिन प्रभु, तुमने तो आज तक कोई आपत्ति नहीं की, प्रेम से दूध पीते रहे, फिर ये गोसाईं कौन होता है मुझे रोकने वाला।

और मुझे ज़्यादा दुख इसलिए है कि तुम्हारे मंदिर के गोसाईं ने मुझे इतनी खरी खोटी सुनाई और तुम कुछ नहीं बोले।

ठाकुर, यही मेरा अपराध है तो मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुम अगर रूठे रहोगे, मेरा चढ़ावा स्वीकार नहीं करोगे तो मैं भी अन्न-जल ग्रहण नहीं करुंगी,

यहीं प्राण त्याग दूंगी। भूखी प्यासी, रोते रोते शाम हो गई।

तभी पंजीरी के कानों में एक मधुर कंठ सुनाई दिया- माई ओ माई, उठी तो दरवाजे पर देखा कि एक सुदर्शन किंतु थका-हारा सा एक किशोर कुटिया में झाँक रहा है।

कौन हो बेटा...???

मैया, बृजवासी ही हूँ, मदन मोहन के दर्शन करने आया हूँ। बड़ी भूख लगी है कुछ खाने का मिल जाए तो तुम्हारा बड़ा आभारी रहूँगा।

पंजीरी के शरीर में ममता की लहर दौड़ गई। कोई पूछने की बात है बेटा, घर तुम्हारा है।

ना जाने तुम कौन हो जिसने आते ही मुझ पर ऐसा जादू बिखेर दिया है।

बड़ी दूर से आए हो क्या ? क्या खाओगे ? अभी जल्दी से बना दूँगी।

अरे मैया, इस समय क्या रसोई बनाओगी, थोड़ा सा दूध दे दो वही पी कर सो जाउँगा।

दूध की बात सुनते ही पंजीरी की आँखें डबडबा आयीं, फिर अपने आप को सँभालते हुए बोली-

बेटा, दूध तो है पर सवेरे का है, जरा ठहरो अभी गैया को सहला कर थोड़ा ताजा दूध दुह लेती हूँ।

अरे नहीं मैया, उसमें समय लगेगा। सवेरे का भूखा प्यासा हूँ, दूध का नाम लेकर तूने मुझे अधीर बना दिया है,

अरे वही सुबह का दे दो, तुम बाद में दुहती रहना।

डबडबायी आँखों से बोली... थोड़ा पानी मिला हुआ दूध है।

अरे मैया तुम मुझे भूखा मारोगी क्या ? जल्दी से दूध छान कर दे दो वरना मैं यहीं प्राण छोड़ दूंगा।

पंजीरी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये बालक कैसी बात कर रहा है, दौड़ी-दौड़ी गई और झटपट दूध दे दिया।

दूध पीकर बालक का चेहरा खिल उठा।

मैया, कितना स्वादिष्ट दूध है। तू तो यूँ ही ना जाने क्या-क्या बहाने बना रही थी,

अब तो मेरी आँखों में नींद भर आई है, अब मैं सो रहा हूँ, इतना कहकर वो वहीं सो गया।

पंजीरी को फ़ुरसत हो गई तो दिन भर की थकान, दुख और अवसाद ने उसे फिर घेर लिया।

जाड़े के दिन थे ,भूखे पेट उसकी आँखों में नींद कहाँ से आती। जाडा़ बढ़ने लगा तो अपनी ओढ़नी बालक को ओढ़ा दी।

दूसरे प्रहर जो आँख लगी कि ठाकुर श्री मदन मोहन लाल जी को सम्मुख खड़ा पाया।

ठाकुर जी बोले, मैया, मुझे भूखा मारेगी क्या ? गोसाईं की बात का बुरा मान कर रूठ गयी।

खुद पेट में अन्न का एक दाना तक न डाला और मुझे दूध पीने को कह रही है।

मैंने तो आज तेरे घर आकर दूध पी लिया अब तू भी अपना व्रत तोड़ कर कुछ खा पी ले और देख,

मैं रोज़ तेरे दूध की प्रतीक्षा में व्याकुल रहता हूँ, मुझे उसी से तृप्ति मिलती है। अपना नियम कभी मत तोड़ना।

गोसाईं भी अब तेरे को कुछ ना कहेंगे। दूध में पानी मिलाती हो, तो क्या हुआ ? उससे तो दूध जल्दी हज़म हो जाता है। अब उठो और भोजन करो।

पंजीरी हड़बड़ाकर उठी, देखा कि बालक तो कुटिया में कहीं नहीं था।

सचमुच लाला ही कुटिया में पधारे थे। पंजीरी का रोम-रोम हर्षोल्लास का सागर बन गया।

झटपट दो टिक्कड़ बनाए और मदन मोहन को भोग लगाकर आनंदपूर्वक खाने लगी। उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी।

थोड़ी देर में सवेरा हो गया पंजीरी ने देखा कि ठाकुर जी उसकी ओढ़नी ले गये हैं और अपना पीतांबर कुटिया में ही छोड़ गए हैं।

इधर मंदिर के पट खुलते ही गोसाईं ने ठाकुर जी को देखा तो पाया की प्रभु एक फटी पुरानी सी ओढ़नी ओढ़े आनंद के सागर में डूबे हैं।

उसने सोचा कि प्रभु ने अवश्य फिर कोई लीला की है, लेकिन इसका रहस्य उसकी समझ से परे था।

लीला-उद्घाटन के लिए पंजीरी दूध और ठाकुर जी का पीताम्बर लेकर मंदिर के द्वार पर पहुँची और बोली,

गुसाईं जी, देखो तो लाला को, पीतांबर मेरे घर छोड़ आये और मेरी फटी ओढ़नी ले आये।

कल सवेरे आपने मुझे भगा दिया था, लेकिन भूखा प्यासा मेरा लाला दूध के लिये मेरी कुटिया पर आ गया।

गोसाईं जी पंजीरी के सामने बैठ गए।

भक्त और भगवान के बीच मैंने क्या कर डाला, भक्ति बंधन को ठेस पहुंचा कर मैंने कितना बड़ा अपराध कर डाला, माई, मुझे क्षमा कर दो।

पंजीरी बोली.. गुसाई जी, देखी तुमने लाला की चतुराई, अपना पीतांबर मेरी कुटिया मे जानबूझकर छोड़ दिया और मेरी फटी-चिथड़ी ओढ़नी उठा लाये।

भक्तों के सम्मान की रक्षा करना तो इनकी पुरानी आदत है।”

ठाकुर धीरे-धीरे मुस्कुरा रहे थे, अरे मैया तू क्या जाने कि तेरे प्रेम से भरी ओढ़नी ओड़ने में जो सुख है वो पीतांबर में कहाँ...

‼ प्रेम से कहो श्री राधे ‼

‼ वृन्दावन बिहारीलाल की जय ‼


(Courtesy - Unknown WhatsApp forwarded message)

Sunday 28 June 2020

प्रार्थना: श्री मधुराष्टकम् ।



भगवान के परमप्रिय भक्त महाप्रभु श्री वल्भाचार्य को श्री मधुराष्टकम् रचना के लिये शत शत कोटि नमन।

श्री मधुराष्टकम् में श्रीकृष्ण के बालरूप को मधुरता से माधुरतम रूप का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग, गतिविधि एवं क्रिया-कलाप मधुर है, और उनके संयोग से अन्य सजीव और निर्जीव वस्तुएं भी मधुरता को प्राप्त कर लेती हैं।

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥1॥

(हे कृष्ण!) आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी आंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥1॥

वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥2॥

आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥2॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥3॥

आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाए हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं, आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है। ॥3॥

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥4॥

आपके गीत मधुर हैं, आपका पीना मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥4॥

करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥5॥

आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥5॥

गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥6॥

आपकी घुंघची मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥6॥

गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥7॥

आपकी गोपियां मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥7॥

गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥8॥

आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है ॥8॥


|| संत भक्त भगवान की जय हो ||

  ✍☘💕

Tuesday 23 June 2020

🌸भगवान श्रीजगन्नाथ जी कथा 🌸




एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला. पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है।

रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले। तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी। वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया।

सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना। माता ने कथा सुनानी आरम्भ की, सुभद्रा द्वार पर तैनात थी, थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे, सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया। 

इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ। वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे। बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे।कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ, उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे। तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे। बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे।सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया. उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे।भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे।कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले, आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें। भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा।

कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई।

राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे। प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी। प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें। दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो। इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें। राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा। एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए। नीद में राजा ने एक सपना देखा, सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी। इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो। मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो। उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी। राजा नीद से जाग उठे, सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई।
राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ। वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ।

राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई, सभी इसमें योगदान देने पहुंचे। दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए, कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ।

सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी।राजा फिर से चिंतित होने लगे। एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए।राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं, मार्ग दिखाइए। आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे।

राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है, प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया, हे प्रभु मार्ग दिखाइए।

राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए। उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा। सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है, तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे। इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई, सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी, उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा।

भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया। प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले। उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति, वह चारों में सबसे कम उम्र के थे। प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई, प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें

पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले, कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया, वन भयावह था, विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे। उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी, प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे, जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था। विद्यापति संगीत के जान कार थे, उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी, यह संगीत उन्हें दिव्य लगा।संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले। वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए। पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे। विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे, सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी। अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे। बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था, बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे।

बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया। स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा। बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है, युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा। वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी। वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी। ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का, कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी। उन्हें जल पिलाया गया, विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे।

ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं।

विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था। ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें। जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें।

विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए।विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया, विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए।

विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके। वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे, उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे, ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया। विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे। अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए, ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की। इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया, विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले, विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया।

कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते, ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था।यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी। इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली, विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था। कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था। विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ। उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई, आखिर विश्वावसु जाता कहां है। एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा, ललिता यह सुनकर सहम गई। 

आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए ?

विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा। विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो। ललिता के सामने धर्म संकट आ गया, वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था।

ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं।

यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं, उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं, यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए। उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं।

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं। ललिता बोली- यह संभव नहीं, हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे।

विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी, वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे। आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें।

ललिता ने पिता से सारी बात कही,वह क्रोधित हो गए। ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं, आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा, इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा। विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए। वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले। विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले, विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए। गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए। विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी, उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा। हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया। विद्यापति आनंद मग्न हो गए, उन्होंने भगवान के दर्शन किए। दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे परंतु विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया। फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े।

लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा। विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा, वह टाल गए। यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं।

विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी। विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा। वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे दूसरी तरफ भील राजा और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था। विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे। फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता। इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता, उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया।

विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है, वे उसे लेकर परेशान होंग। ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा। ललिता मान गई, विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया। अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे, उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया। उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली। शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया। उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी।

राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा। उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है, वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा। तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है, दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है।

राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना, उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा। स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था। सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए। दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे। मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ। और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका।

राजा का मन उदास हो गया। सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी, सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके, सुबह से रात हो गई।
अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया। उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है, राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे। राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही।

राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान का विग्रह बन जाएगा। बस एक काम करना होगा। भगवान श्री कृष्ण ने राजा को ऐसा क्या संकेत दे दिया था कि उसकी सारी परेशानी समाप्त हो गयी?

राजा इंद्रध्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा।

राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी। बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा।
राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे। राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया, दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे। इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले, वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है। विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी, विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए। ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी। पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे। उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ। 
अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले। वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे।

विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले। विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे, जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे, फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे, उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी। उसी समय एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है। यह सुन कर सब चौंक उठे, विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे।

राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं, उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया, यह सुन कर सब चौंक उठे।

विश्वावसु ने राजा को आसन दिया। राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा। फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई।

राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं। भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए।

ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं। अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो। उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा।
विश्वावसु राजी हो गए। राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे। विश्वावसु ने कुंदे को छुआ, छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा, राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया।

अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा। मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं।

एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए। उसी समय वहां एक बूढा आया, उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें। इस दैवयोग का यही संकेत है।

राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं। मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा, पर मेरी एक शर्त है। राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी।

बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा और  मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा। कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा, इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए।

राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं।

राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया। भीतर से आवाजें आती थीं। महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं। महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं। 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई, जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं। उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो। व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा।

महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्ति कार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था। मूर्ति कार अभी मूर्तियां बना रहा था, परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए। मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था, हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था।

वृद्ध शिल्प कार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे। उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं, उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया।

कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी। विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था। ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थ।विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करते है।

रथ यात्रा का रहस्य

द्वारिका में सुभुद्राजी ने अपने भाई भगवान कृष्ण और बलदाऊजी से नगर भ्रमण कराने का अनुरोध किया। तब वह दोनों अपने बीच में अलग रथ में सुभुद्राजी को बैठा कर नगर भ्रमण को ले गए। इसी स्मृति स्वरूप यह रथयात्रा निकाली जाती है।

जगन्नाथ तीर्थ क्षेत्रः पुरी

आपको संभवत जानकारी न हो तो बताते चलें कि भगवान कृष्ण की बाल्य लीलाओं का क्षेत्र वृन्दावन, किशोरावस्था का क्षेत्र मथुरा और युवावस्था से अंत तक का कर्म क्षेत्र द्वारिका में रहा और उनके देह परित्याग के पश्चात् का स्वरुप भगवान जगन्नाथ है। पुरूषोत्तम क्षेत्र के पुरी के विशाल और भव्य मंदिर के मूल गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ अपने अग्रज बलदाऊजी एवं बहिन सुभुद्रा के साथ विराजमान है। विशालकाय परिसर में बने मंदिर का भव्य प्रवेश द्वार है फिर ऊंचाई पर मंदिर है। भोगशाला, अर्द्ध मण्डप, मण्डपम के उपरांत गर्भगृह में आदमकद भगवान के काष्ठ से बने दिव्य विग्रह विराजमान है।

परिसर में श्री गणेशजी, बलदाऊजी की पत्नी, श्री दुर्गा, श्री लक्षमीजी, सूर्य और चंद्रमा की प्रतिमाऐं आसीन है। मंदिर के प्रथम तल पर श्री नृसिंह भगवान आसीन है। भगवान जगन्नाथ की नित्य पूजा अर्चना के साथ कई बार भोग लगता है। इसके लिए आधे नगर के बराबर रसोई है जिसमें तरह तरह के पकवान बनते रहते है और रोज हजारों परिवार और तीर्थयात्री यही प्रसाद ग्रहण करते है। रसोई में रोज मिटटी के नए बर्तन और एक कूप का पानी ही उपयोग में लाया जाता। यह रसोई अपने आप में अजूबा है। भगवान जगन्नाथ को विशेष मुहूर्त में नहलाया जाता है। स्नान के बाद बह बीमार न हो जाए इसके पट बंद कर दिए जाते है। कुछ समय के लिए मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते है।

तब भगवान अलारनाथ के मंदिर में स्थित श्री विग्रह के दर्शन की मान्यता है। प्रति वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा का उत्सव मनाया जाता है। विशालकाय रथ में सवार भगवान अपनी बहिन और भाई के साथ तीन किमी दूर स्थित अपनी मांसी के घर गुलीचा मंदिर में रहने जाते है।

पुरी में आचार्य शंकर द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है। पुरी सुंदर शहर है। समुद्र का सुंदर बीच यहां है। शंकराचार्य पीठ द्वारा नित्य सांय समुद्र की आरती की जाती है। कहा जाता है कि हजारो वर्षो मे सुनामी आंधी तूफानों में यहां समुद्र ने  कभी अपनी सीमा या मर्यादा नहीं तोडी।

🙏|| जय श्री जगन्नाथपुरी ||🙏


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